‘माया ने घुमायो’ उन कहानियों की आधुनिक प्रस्तुति है जो हमें वाचिक परम्परा से मिली हैं। ये कहानियाँ अपनी कल्पनाओं, अतिरंजनाओं और अपने पात्रों के साथ सुदूर अतीत से हमारे साथ हैं और मानव समाज, उसके मन-मस्तिष्क के साथ मनुष्य की महानताओं-निर्बलताओं का गहरा तथा सटीक अध्ययन करती रही हैं। बिलकुल नानी-दादियों की उन कहानियों की तरह जिन्हें हमारी कई पीढ़ियों ने बचपन में सुना, और दुनिया को अपनी तरह से समझा जो एक ही समय में इतनी विराट, इतनी क्षुद्र, इतनी कठिन और इतनी सहज होती है। इन कहानियों में वर्चस्व की लिप्सा है, आतंक है, कमज़ोरों की दीनता और असहायता है, चालाक गीदड़ है, आतंकी सिंह है, और साथ ही है हमारी समकालीन राजनीति और आसपास के सामाजिक-आर्थिक तंत्र में नए-नए आए जुमलों और शब्दों की बुनत जो इन कथाओं को अनायास ही हमारे आज की ‘सत्यकथा’ में बदल देती हैं। यही वह बिन्दु है जहाँ बच्चों को पूरी-पूरी समझ में आ जाने वाली ये कहानियाँ पाठक से एक वयस्क मस्तिष्क की माँग करने लगती हैं। वे आधारभूत सत्य, जिजीविषा की वे आदिम प्रेरणाएँ जो इस दुनिया को गति देती हैं, इसे ‘रहने’ और ‘नहीं रहने’ लायक़ बनाती हैं और जिनके कारण ही हर कला, हर कथा को अपने होने का तर्क मिलता है, और जो हर क़िस्म की प्रगति के बावजूद मनुष्य मन के दरवाज़े पर अपना प्राचीन लट्ठ लिये पहरा देती आयी हैं, लोककथाएँ उन्हें ही अपना खाद-पानी बनाती आयी हैं। मृणाल पाण्डे ने यहाँ उसका प्रयोग अपनी सक्षम और प्रवहमान भाषा और गहरी सामाजिक-राजनीतिक समझ के साथ किया है। किताब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है, प्रस्तुत है एक कहानी—
हिन्दी में बेहतरीन प्रेमकथाएँ क्यूँ नहीं लिखी जातीं? सालों पहले एक परदेसी समालोचक (गॉर्डन रोडरमल) ने पूछा था। बाद को सुना उसने आत्महत्या कर ली। प्रेम पर पहरा देनेवाला सन्तरी अपनी प्रेत आँख से झील से उगता, अस्त होता समय कुछ अलग तरह से देखने लग पड़ता है। हर नया दिन, नया मृत्युदंड।
हिन्दी की प्रेमकथा बेबस औरत की तरह सूनी चौखट पर खड़ी सहृदय का इन्तजार करती रहती है : न पूरी तरह कथा के भीतर, न बाहर।
जनम भर माँ-बाप से तुम उससे शादी नहीं करोगे जिसे तुम चाहते हो, बल्कि उससे जिसे हम चाहते हैं, सुनता आया औसत हिन्दी लेखक आदि-मध्य-अन्त की ज्यामिति पढ़ा है। तमाम ताखों, दरीचों वाली धूल-धूसरित पुरानी कथा के भूलभुलैये में भटकता कथावाचक प्रेतकथा की खामोश रहियो कि जइयो, चितवन का के करे? कहानी का पिछला छोर खोजे, तो उसे आगे खड़ा पाता है। आगे नकेल थामने भागा गया तो ऐसी दुलत्ती पड़ती है कि सालों पीछे उछलकर जा गिरता है।
कथा अनबनती बनी तिरछी चितवन से धूल झाड़ते उसे फिर भी टकटकी लगाए जोहती रहती है।
हाय गॉर्डन तुम न समझे हो न समझोगे एगो बात। दे और उसको दिल जो न दे तुझको जुबाँ और…
इस बार की कथा कुछ ऐसी ही है। झील के किनारे पेड़ों के झुरमुट में धोबनवाली दरगाह नाम की लगभग ओझल इमारत से सूखे पत्ते की तरह उड़कर बमुश्किल बाहर आई।
मूल कथाकार था उस दरगाह का फटेहाल एक स्वयंभू चौकीदार। याद सम्भालने के बाद से वह हमेशा से इस जगह का रखवाला था।
कोई जनमदाता रहा होगा भी, तो उसका के पतो बीबी?
वह और उसी की तरह पुराने मजार की इमारत में जने कब आ गईं दो बिल्लियाँ हाते में बने एक बिना खिड़कीवाले तंग कमरे में या सहन में पड़ी रहती थीं। उसका काम था दरगाह में झाड़ू देना, जुमे को लोबान जला देना, क्यारी में पानी देना। खा-पीकर सो रहना। अउ का?
हर मजार की कहानी के दस रास्ते। दस दरवाजे।
किसी दरवाजे से घुसकर सीधे चलो तो कहानी नौ दो ग्यारह।
एक दरवाजा खुला।
कहते हैं यह किसी साहँसाह के धोबन के इकलौते बेटे का मजार था।
माँ साहँसाह के हरम से ला-लाकर बेटे की मदद से झील के पानी में साही बेगमात के कपड़े धोती थी। कपड़ों में साहँसाह की इकलौती साहजादी के भी हुआ करै थे कपड़े। नफीस।
बेलबूटेदार, अतर से महकते वैसे कपड़े उसी के तो हो सकते थे, धोबन ने बेटे को एक पोशाक की सुगंध से चकराते देखकर कहा। तौ बेटी बस समझो कि उस कमनसीब के लिए मौत का फरमान लिखवा दिया।
उस बखत उसे के मालूम? यही खराब बात होती है माँओं में। बक-बक करती रहेंगी बगैर जाने कि कितने कान चौकन्ने होकर सुनते हैं हर पल। सो इत्ता कह के धोबन तो नाँद में नील घोलने चल दी, पर धोबन का बेटा उसके बाद दम साधे अपनी अम्मा के साही महल से धुलने के कपड़ों की गठरी लेकर घर आने का इंतिजार करै।
झील किनारे धुलाई का दिन तय था। उस रोज आगे-आगे गठरी लिये धोबन, पीछे-पीछे बेटा। गठरी खुली नहीं, कि सबसे पेश्तर वो सूँघ-सूँघ के साहजादी के ही कपड़े गठरी से निकालकर अलग रखता जाता। फिर सबसे बाद को खुद उनको खास अहतियात से धोता। उसकी उँगलियों के दस पोर, दस आँखें बन जाते। जोड़े की आस्तीनें उँगलियों से रगड़ता तो उसे लगने लगता एक नाजुक-सा हाथ थामे है हाथ में।
लड़का अपने ही धागों में लिपटा मकड़ा बनने लगा। उसके कान, उसका दिल सब पत्थर पर पछीटे जाते दूसरे कपड़ों से दूर नरमाई से पोशाकों की एक-एक सलवट सफा करता। गन्दगी का नामोनिशान नहीं। अजी बहुत नफीस तबीयत होंगी पहननेवाली साहबा!
तौ बिटिया जानो के जैसे ही साहजादी के कपड़े जल में डलते, हवा में खुशबुएँ तैरने लगतीं। बादल नीचे झुक जाते, आसमान तो पानी में ही उतर आतो। धोबन का बेटा बादल और आसमान की परछाइयों से कहता, हटो, जानते नहीं ये किसकी देही पर डलते हैं?
जल में बड़ी नरमाई से धोबन के बेटे की उँगलियाँ ढाके की मलमल, चीन का रेशम, जरदोजी का काम सबको सहला-सहलाकर एक-एक रेशा साफ करती जातीं, तब तक जब तक जोड़ा ऐसा न खिल उट्ठे जैसे कि पूनम का चन्दा।
फिर बारी आती सुखाने की। जुगान के और साही कपड़े तौ बीबी, सुखाने के लिए पेड़ों पर बँधी रस्सियों पर डाले जाते। लेकिन मजाल जो धोबन का लौंडा साहजादी के कपड़े उस जलमुँही मूँज की खुरदरी रस्सी पर डलने दे। वह साहजादी के जोड़ों और ओढ़नियों को बहुत हलके हाथों सुखाता। हवा में लहरा-लहरा के पालदार नाव जैसे वह हवा की लहरों पे देर तक साहजादी संग उड़ता सरसर करता। आपस में साहजादी के कपड़े और वह करते बात। संगम पर मिले दरिया की तरह उमड़-घुमड़ के।
कपड़े सूख गए तो फिर धोबन का बेटा उनको उतने ही जतन से तहाता। जोड़ की जगह जोड़, दामन पर चुटकी दर चुटकी हल्की सी लहरियादार चुन्नटें डालता। दुपट्टों पर कलफ संग अबरक छिड़की जाती। सबसे अखीर में बिटिया जानो वो लड़का खुद तोड़ी और छाँव में सुखाई हुई चमेली की कलियाँ पोशाकों की सलवटों के भीतर प्यार से डालकर उनकी तही बनाता।
धोबन हर हफ्ते तैयार कपड़ों की गठरियाँ माथे पर धरे साही महल जाती। दरवज्जे पर खड़ी वह गिन-गिनकर कपड़े खोजासरा को सौंप देती। न एक कम न एक बेशी। चिक के पीछे सुरीली आवाज पूछती गिन लिए न?
“जी”, खोजासरा कहता। धोबन सलाम कर घर वापिस।
पर धीमे-धीमे धोबन के मन में बेटे की दसा पे सक हो चलो। के हो चलो? सक। हऊ। वजै ये कि उसका बेटा अब पहले की तरैयाँ माँ से न बोलै न चालै। बस दरवज्जे पर खड़ा कपड़न का इन्तजार करै। गठरिया में वापिस धरन तक साहजादी को एक-एक कपड़ा माँ को छूने तक न दे। फिर सीधे झील के किनारे जुगनू-मच्छरों के बीच देर तक काँस के पौधन को ताके।
दरगाह गई तो सूफी ने साँस खींच के कहा, “री घर जा। ये मामिला सीधे साही महलन तक जानेवाला है। हमसे कुच्छ ना हो सकेगो। इसक की आँधी पे किसका बस? जब अकल हो जाए हवा तो किसकी दवा? कैसी दवा? तू पूछेगी तो तुझसे कुच्छ कह भी दे, अब वह तुझसे पराया हुआ जान!”
माँ रोती रही, “हाय बादसा को पता चल ग्यो तो के होवेगो? सीधे मेरे बच्चे को सर कलम कराय देगो।”
निराश होकर लौटी माँ का खाना-पीना छूटने लगा। हर दिन करवट बदलती आँखों-आँखों में रात काटती।
आखिरकार एक दिन वाने बेटे से कह ही तो दयो कि “देख बेटा, साहजादी के सपने मत पाल! साहँसाह को तनिक भनक पड़ गई तो तू जान से जायगो। तेरो सर कटा के भुईं धर जाएँगे वाके जल्लाद!”
“डरियो ना। उससे पहले मैं खुदै न सर भुईं पर धर न दूँगा? ये घर पिरेम के खाला का घर नांय!”
मजार के चौकीदार को खाँसी छिड़ गई। खाँसने लगा जैसे साँस ही उखड़ जाएगी।
तो बेटी धोबन से उसके बेटे ने हँसकर कहा कि “अम्मा इब तौ हाथ के पोर-पोर में वही साहजादी पैठ गई है। अब उसी की नींद सोता हूँ, उसी की जागता हूँ।”
अगली सुबह कहते हैं उसकी लहास झील में मिली। गला यहाँ से वहाँ काट लयो थो नामुराद ने। माँ पछाड़ खाकर गिर पड़ी।
गरीबनी को कैसा दफन, कफन? चुपचाप अपने हाथों मिट्टी की कबर बनाय के दफनाय दयो।
पेट का गढ़ा। चल बन्दी काम पर।
हफ्ते भर बाद भारी कदमों से साही गठरिया लेके बदस्तूर महलन चल दी।
“ये कैसे कपड़े धुले हैं इस बार?” गठरी खुलने पर साहजादी ने पूछा।
अजी साहजादी थी। जोड़ा छूते ही उसे लग गया कि इस बार कपड़ों में प्यार की न खुशबू, न किसी हाथ की चमेली जइसन छुअन।
“ये कपड़े किसने धोये हैं? पुरानेवाले हाथों ने नहीं? ये तो कोई नए हाथ लगते हैं।” वह कपड़े दूर फेंककर चीखी जिसे आज तक काहू ने जोर से बोलना तक ना सुना था। क्या? किसी ने जोर से बोलते ना सुना था।
हाँ, सो घबराई धाय ने खोजासरा से कहा, खोजासरा ने दरबान भेजकर धोबन को बुलवा भेजा। हफ्ते भर में दस बरस बुढ़ाय गई महतारी नंगे सर नंगे पाँव हवन्नक जैसा चेहरा लिए आई।
चिक के पीछे से आवाज आई कि जे कपड़न को का कर दयो तूने ऐ नामुराद? तो धोबन ने हाथ जोड़ के साहजादी से कहा, “हजूरेवाली मैं तौ आपजी के कपड़न को हाथ ना लगावै थी, वो तो मेरा नामुराद बेटा…”
इतना कहकर वह हिचकारी भर-भरकर रोवै जाय। रोवै जाय।
धाय ने इशारों-इशारों में उसकी कोख सूनी होने की खबर साहजादी को सुनाय दई।
कुछ देर सुन्न रही साहजादी फिन बिन पलक झपके बोली, “हम उसकी मजार पर जावेंगे।”
हाय! जिसकी परछाईं महलन के बाहर सुरुज-चाँद को ना दिक्खे वो पातसा की इकलौती झील किनारे धोबन के बेटे की कब्र पर जाएगी? श्श… धाय ने कुछ इसारा किया।
जी कहकर खोजासरा बाहर गया।
उस रात डोली में चुपचाप तलवार लिये खोजासरा के संगै साहजादी और उसकी धाय महलों से निकले और बाहिर खड़ी धोबन संग झील किनारे उसके बेटे की मजार पर गए।
“कैसा आशिक था रे तू”, शाहजादी बोली, “इतने प्यार से पहिराने-ओढ़ाने के बाद जिसकी खातिर जान दी उसका मुखड़ा देखे बिना, उसे अपना मुखड़ा दिखाए बिना चल दिया रे? ये कैसी आगी लगाई? मुझसे पूछा तो होता? अब तौ मुझको ही आना पड़ैगो तेरे पास…”
और बीबी कहते हैं, साहजादी के कहते के साथै धरती जो थी सो फट गई और साहजादी जब मजार में समाय गई तौ खुद ब खुद जमीन जो थी सो बन्द हो गई।
पातसा सुनते हैं हादसे के बाद बहुत कलपे। बड़े आदमी की बड़ी बात। सलतनत का कामकाज। बस इत्ता किया कि बेटी की याद में ये छोटी सी इमारत गढ़वाय दई।
सच हो कि नहीं, कानोकान चली आई बस इतनी सी कहानी है इस मजार की, कहते हैं जोगी बना के किसी न किसी सन्तरी को पकड़ लेती है ये टहल-चाकरी के लाने। मौत उसे ले गई तो दूसरा।
अब देखो भटके पात जैसो आन पहुँचो इधर जब मुझसे पहलेवालो जा चुका। उसके बाद तौ जब तक साँस चलती है, इतैं बैठ के दूर उतैं के वा लोगन की बाबत सोचना इहै को भोग लिखो है नसीब में।
फूटी आँख वाला काना भी तो उधर ही जियादा देखता है जिधर अँधेरा हैगा। इधर का अँधेरा तो दिखता ही रहता है।
रूथ वनिता की किताब 'परियों के बीच' से किताब अंश