मजदूर का है खेल निराला,
बहे पसीना और हाथ में प्याला॥
तन जो भिगा, और भीगा ये मन,
सनी हुई पसीने में ये कफन,
टपकती बूँद जो गिरे है निश्छल,
खेतों और खलिहानों में,
बहती है रिक्शा के उपर,
सर पर लादे ईट और पत्थर,
चमक रही उसमें भी काया।
मजदूर का है खेल निराला,
बहे पसिना और हाथ में प्याला॥
सुरज की किरणों ने भी तो,
तपिश कहाँ कम की है,
इसका भी हर प्यार मोहब्ब्त,
मजदूरों संग बधी है।
मान-मनौअल न सुनता,
यह और भी इतराता है,
जहाँ दिखा मजदूर इसे,
वहाँ और प्रचंड हो जाता है।
कहे धरा धर बन्धु हैं मेरे,
तुम ही तो हो कण कण में मेरे।
तुम जहाँ भी जाओगे,
मेरे ही पद चिन्ह पाओगे,
तुम हो तो है यह जग निराली,
करते हो इसकी रखवाली।
पेड़ पौधे लगाते, महल बनाते,
और बनाते तुम चौबारे,
लथपथ होता बदन तुम्हारा,
बूँदे छलकती माथे पर।
कभी पुरस्कृत हो जाते हो,
तिरस्कार के साथी हो तुम।
मजदूर का है खेल निराला,
बहे पसिना और हाथ में प्याला॥
संजय मणि त्रिपाठी
दिनांक : 01 मई 2019