अनुवाद: प्रेमचंद
पिछले ख़त में मैंने तुम्हें बतलाया था कि पुराने ज़माने में आदमी हर एक चीज़ से डरता था और ख़याल करता था कि उस पर मुसीबतें लाने वाले देवता हैं जो क्रोधी हैं और इर्ष्या करते हैं। उसे ये फ़र्ज़ी देवता जंगल, पहाड़, नदी, बादल सभी जगह नज़र आते थे। देवता को वह दयालु और नेक नहीं समझता था, उसके ख़याल में वह बहुत ही क्रोधी था और बात-बात पर झल्ला उठता था। और चूँकि वे उसके ग़ुस्से से डरते थे इसलिए वे उसे भेंट देकर, ख़ासकर खाना पहुँचाकर, हर तरह की रिश्वत देने की कोशिश करते रहते थे। जब कोई बड़ी आफ़त आ जाती थी, जैसे भूचाल या बाढ़ या महामारी जिसमें बहुत-से आदमी मर जाते थे, तो वे लोग डर जाते थे और सोचते थे कि देवता नाराज़ हैं। उन्हें ख़ुश करने के लिए वे मर्दों-औरतों का बलिदान करते, यहाँ तक कि अपने ही बच्चों को मारकर देवताओं को चढ़ा देते। यही बड़ी भयानक बात मालूम होती है लेकिन डरा हुआ आदमी जो कुछ कर बैठे, थोड़ा है।
इसी तरह मज़हब शुरू हुआ होगा। इसलिए मज़हब पहले डर के रूप में आया और जो बात डर से की जाए, बुरी है।
तुम्हें मालूम है कि मज़हब हमें बहुत-सी अच्छी-अच्छी बातें सिखाता है। जब तुम बड़ी हो जाओगी तो तुम दुनिया के मज़हबों का हाल पढ़ोगी और तुम्हें मालूम होगा कि मज़हब के नाम पर क्या-क्या अच्छी और बुरी बातें की गई हैं। यहाँ हमें सिर्फ़ यह देखना है कि मज़हब का ख़याल कैसे पैदा हुआ और क्योंकर बढ़ा। लेकिन चाहे वह जिस तरह बढ़ा हो, हम आज भी लोगों को मज़हब के नाम पर एक-दूसरे से लड़ते और सिर फोड़ते देखते हैं। बहुत-से आदमियों के लिए मज़हब आज भी वैसी ही डरावनी चीज़ है। वह अपना वक़्त फ़र्ज़ी देवताओं को ख़ुश करने के लिए मन्दिरों में पूजा, चढ़ाने और जानवरों की क़ुर्बानी करने में ख़र्च करते हैं।
इससे मालूम होता है कि शुरू में आदमी को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। उसे रोज़ का खाना तलाश करना पड़ता था, नहीं तो भूखों मर जाता। उन दिनों कोई आलसी आदमी ज़िन्दा न रह सकता था। कोई ऐसा भी नहीं कर सकता था कि एक ही दिन बहुत-सा खाना जमा कर ले और बहुत दिनों तक आराम से पड़ा रहे।
जब जातियाँ (फ़िरक़े) बन गईं, तो आदमी को कुछ सुविधा हो गई। एक जाति के सब आदमी मिलकर उससे ज़्यादा खाना जमा कर लेते थे जितना कि वे अलग-अलग कर सकते थे। तुम जानती हो कि मिलकर काम करना या सहयोग, ऐसे बहुत से काम करने में मदद देता है जो हम अकेले नहीं कर सकते। एक या दो आदमी कोई भारी बोझ नहीं उठा सकते लेकिन कई आदमी मिलकर आसानी से उठा ले जा सकते हैं।
दूसरी बड़ी तरक़्क़ी जो उस ज़माने में हुई, वह खेती थी। तुम्हें यह सुनकर ताज्जुब होगा कि खेती का काम पहले कुछ चींटियों ने शुरू किया। मेरा यह मतलब नहीं है कि चींटियाँ बीज बोतीं, हल चलातीं या खेती काटती हैं। मगर वे कुछ इसी तरह की बातें करती हैं। अगर उन्हें ऐसी झाड़ी मिलती है, जिसके बीज वे खाती हों, तो वे बड़ी होशियारी से उसके आसपास की घास निकाल डालती हैं। इससे वह दरख़्त ज़्यादा फलता-फूलता है और बढ़ता है। शायद किसी ज़माने में आदमियों ने भी यही किया होगा जो चींटियाँ करती हैं। तब उन्हें यह समझ क्या थी कि खेती क्या चीज़ है। इसके जानने में उन्हें एक ज़माना गुज़र गया होगा और तब उन्हें मालूम हुआ होगा कि बीज कैसे बोया जाता है।
खेती शुरू हो जाने पर खाना मिलना बहुत आसान हो गया। आदमी को खाने के लिए सारे दिन शिकार नहीं करना पड़ता था। उसकी ज़िन्दगी पहले से ज़्यादा आराम से कटने लगी।
इसी ज़माने में एक और बड़ी तब्दीली पैदा हुई। खेती के पहले हर आदमी शिकारी था और शिकार ही उसका एक काम था। औरतें शायद बच्चों की देख-रेख करती होंगी और फल बटोरती होंगी। लेकिन जब खेती शुरू हो गई तो तरह-तरह के काम निकल आए। खेतों में भी काम करना पड़ता था, शिकार करना, गाय-बैलों की देखभाल करना भी ज़रूरी था। औरतें शायद गायों की देखभाल करती थीं और उनको दुहती थीं। कुछ आदमी एक तरह का काम करने लगे, कुछ दूसरी तरह का।
आज तुम्हें दुनिया में हर एक आदमी एक ख़ास क़िस्म का काम करता हुआ दिखायी देता है। कोई डाक्टर है, कोई सड़कों और पुलों को बनानेवाला इंजीनियर, कोई बढ़ई, कोई लुहार, कोई घरों का बनानेवाला, कोई मोची या दर्ज़ी वग़ैरह। हर एक आदमी का अपना अलग पेशा है और दूसरे पेशों के बारे में वह कुछ नहीं जानता। इसे काम का बँटना कहते हैं। अगर काई आदमी एक ही काम करे तो उसे बहुत अच्छी तरह करेगा। बहुत-से काम वह इतनी अच्छी तरह पूरे नहीं कर सकता, दुनिया में आजकल इसी तरह काम बँटा हुआ है।
जब खेती शुरू हुई तो पुरानी जातियों में इसी तरह धीरे-धीरे काम का बँटना शुरू हुआ।
यह भी पढ़ें: ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ – सम्पूर्ण यहाँ पढ़ें