मैं,
एक साधारण नारी
घर से बाहर जाती हूँ
रोटी जुटानी होती है, दो वक़्त की
अनपढ़ नहीं छोड़ सकती बच्चों को
सिर छुपाने की जगह
कुछ कपड़े
ख्वाहिशें कुछ ज्यादा तो नहीं
मुझे भी
हर रोज़!
न जाने कितने लोग
छूते हैं-
हाथों से
कँधों से
निगाहों से
विचारों से
हर शाम! बदन पर रेंगते
अनगिनत कीड़े
धो-धो कर निकालती हूँ
‘मैं भी’
मैं
एक साधारण नारी
घर में होती हूँ
तो भी
घूरते हैं रिश्ते
छूना चाहते हैं मुझे
कभी दुलार का बना बहाना
कहकहे लगाते हुए कभी
या फिर
कभी चद्दर के अंदर
रेंगते हुए हाथों से
साल दर साल!
उस छुअन की पलती पीड़ा
तह बन जम जाती है
और
हर शाम!
उस पीड़ा की तह
धो-धो कर निकालती हूँ
‘मैं भी’

* * *

१८ जनवरी २०१९
अमनदीप/ विम्मी