सुरेन्द्र वर्मा की कहानी ‘मेहमान’ | ‘Mehmaan’, a story by Surendra Verma
मोती घर के बाहर चबूतरे पर टहल रहा था। चबूतरे से बिल्कुल सटी हुई काली कार खड़ी हुई थी। इसकी छत पर लोहे की छड़ों के दायरे में एक वेडिंग और दो बड़े-बड़े सूटकेस रखे थे। कार पर गर्द की मोटी तह जमी थी। मोती जब हाथ सीने पर बाँधे, चबूतरे के दोनों किनारों पर मुड़ता, तो निगाह कार पर से फिसलती हुई सड़क पर पहुँच जाती। उसकी आँखों में चमक थी, और पैरों में तेज़ी। पड़ोसी कुंदन अपने घर से निकला, तो मोती इधर-उधर देखकर ज़रा खाँसा, फिर गर्मजोशी से आवाज़ लगायी, “क्यों भई कुंदन, क्या हाल-चाल है?”
“बढ़िया है। …तुम सुनाओ।” कुंदन ने हुक्के की तरह मुट्ठी में दबी सिगरेट का गहरा कश लिया। “ये कार कब ख़रीदी?”
मोती ने ज़ोर का ठहाका लगाया, जैसे कुंदन ने कोई बहुत अच्छा मज़ाक़ किया हो। फिर कहा, “अपना एक जिगरी दोस्त आया है। बम्बई में है आजकल। एक फ़र्म में असिस्टेंट मैनेजर है। तनख़्वाह है दो हज़ार महीना। बढ़िया फ़्लैट ले रक्खा है। बहुत मानता है अपने को।”
“क्यों न हो भई, क्यों न हो?” कुदन ने धुएँ के दो छल्ले बनाए, फिर कलाई मोड़कर घड़ी देखी। “अच्छा यार, चलूँ। ज़रा बैंक में काम है।”
मोती ने चबूतरे पर दो-तीन चक्कर और लगाए, फिर अंदर घुस गया। उसके बरामदे में क़दम रखते ही, कौशल ने ग़ुसलख़ाने का दरवाज़ा खोला।
“बड़ी जल्दी नहा लिया? …पानी ठंडा तो नहीं हुआ था?” मोती ने मुस्कराकर पूछा।
“नहीं, यार”, तौलिए के सूखे कोने से गले का पिछला हिस्सा पोछते हए, वह बोला, “मुझे तो बहुत जल्दी तैयार होने की आदत पड़ गई है। …बम्बई में शुरू-शुरू में कार नहीं थी न, और ठीक साढ़े आठ की लोकल पकड़नी होती थी। सोकर उठते थे आठ बजे। लेकिन ठीक पन्द्रह मिनट में शेविंग, नहाना-धोना, चाय-नाश्ता, सब हो जाता था।” उसने मुड़कर आलमारी की ओर इशारा किया, “ज़रा वो शीशी तो देना।”
मोती ने लपककर शीशी उठायी, फिर सहँसा झेंपकर कहा, “इसमें तो सरसों का तेल है। ठहरो, मैं…”
“अरे, दे यार। अपन को सब चलता है।” कौशल ने शीशी लेकर, बड़े इतमीनान में एक हथेली की अंजलि में पतली धार गिरायी। “बाज़ार के तेलों में बस, ख़ुशबू ही तो मिलती है सूँघने को। बाल अलग सफ़ेद हो जाते हैं।” वह हल्की-हल्की उँगलियों में सिर पर मालिश-सी करने लगा।
तब तक मोती ने कंघी एक बार कमीज़ के निचले हिस्से से रगड़कर, उसकी ओर बढ़ा दी।
“बाबूजी, अम्मा पूछती है, खाना परोसें?” राजू ने रसोई-घर की दहलीज़ पर से पूछा।
“हाँ-हाँ, बिल्कुल।” मोती बोला, और जल्दी-जल्दी उस तरफ़ बढ़ गया।
कौशल ने इधर-उधर गर्दन मोड़कर, आइने में अपना चेहरा देखा, एक झटका देकर कंघी में से नन्ही-नन्ही बूंदियाँ टपकायीं, फिर आँगन के तार पर भीगी तौलिया फैलाने लगा।
“पापा!” नीरू ने गोद का कॉमिक बंद कर दिया। “अब बाक़ी सामान भी रखवाइए न। …कहते थे, सुबह चलेंगे और अब दोपहर हो गई।”
“हाँ-हाँ, बेटे, चलते हैं।” कौशल आस्तीनें मोड़ते उसके नज़दीक चारपाई पर बैठ गया। फिर पूछा, “तुमने नहा लिया?”
“हाँ, हमने तो तभी नहा लिया था, मम्मी के साथ।”
“मम्मी कहाँ हैं? ऊपर?” कौशल उसके बालों में उलझा एक धागा निकालने लगा।
“नहीं, वो तो हैं…” उसने रसोई की ओर इशारा किया, “उनके पास!”
कौशल ने मुस्कराते हुए पूछा, “किनके?”
“राजू-कुंती की मदुर…” उसने हँसकर कह दिया।
“उनसे कहने के लिए तुम्हें क्या बोला था, कल रात?” कौशल ने उसकी बंद मुट्ठी हाथ में ले ली, और उँगलियाँ एक-एक करके खोलने लगा।
उसने शर्मीली हँसी हँस दी। कहा, “आंटी!” फिर तनिक रुककर, धीरे से बोली, “पापा, ये कैसा घर है? यहाँ न तो…”
“अच्छा, बेटे, खड़े हो”, आँगन में गिलास लिए आते मोती को देख, उसने बीच में ज़ोर से टोक दिया, “ये दरी निकाल लें।”
“नहीं-नहीं, रहने दो। बैठक से मेज़-कुसियाँ उठा लेता हूँ”, मोती ने कुछ हड़बड़ाकर जल्दी-जल्दी कहा। फिर मुस्कराकर आगे जोड़ दिया, “तुम सब को तो वैसी ही आदत है न?”
“अरे, छोड़, यार!” कौशल ने दरी खींच ली, और उसे एक बार ज़ोर से फटकारा।
“ठहरो, ठहरो मैं…” मोती ने फुर्ती से झुककर, गिलास फ़र्श पर रख दिए।
तब तक कौशल ने दरी बिछा ली, और अटैची से पैकेट और माचिस निकाली। फिर खुला हुआ पैकेट मोती की तरफ़ बढ़ाया। मोती ने संकोच-भरी हँसी हँसते हुए, एक सिगरेट निकालकर मुँह में दबायी, फिर कौशल के हाथ से माचिस ले, एक तीली जलायी, और उसकी सिगरेट सुलगाने के लिए तत्परता से झुक गया।”
“सुबह लखनऊ से चलते वक़्त ही मैंने इला से कहा था कि रात मोती के यहाँ ही ठहरेंगे। लेकिन यहाँ तुम्हारे ऑफ़िस में जब तुम्हारा पता पूछा, तो जानते हो, पहले क्या जवाब मिला?”
“क्या?” मोती का हाथ थाली में ही रुक गया, और निगाह कौशल पर जम गई।
“कहने लगे, ‘जनाब, उनका ट्रांसफ़र तो दो महीने पहले मेरठ हो गया।’ मैं नाउम्मीद होकर चलने लगा। लेकिन तभी एक दूसरे साहब ने बरामदे से साइकिल उतारते हुए कहा, ‘आप मोतीलाल को पूछ रहे हैं, या मोतीचंद को?’ मैंने कहा कि मोतीलाल को। तो बोले, ‘वे तो यही हैं।’ … फिर उन्हीने घर बताने को एक चपरासी मेरे साथ बिठा दिया।”
“अगर मुझे ख़बर होती कि तुम आने वाले हो, तो मैं रात तक ऑफ़िस में ही बैठा रहता।” मोती ज़रा हँसकर बोला, “बल्कि जब बाहर से तुमने पुकारा भी न, तो मुझे सपने में भी ख़याल न था कि ये तुम हो सकते हो। …सब्जी दी न।” उसने कौशल की थाली की ओर इशारा किया।
“ये तो हमेशा आपका ज़िक्र करते रहते थे”, कुसुम संकोच-भरी हँसी हँस, कटोरे में शोरबा डालते हुए बोली, “जब आपकी शादी का निमंत्रण आया, तो आने की पूरी तैयारी कर चुके थे, छुट्टी ले ली थी। लेकिन ठीक एक दिन पहले बुख़ार ने आ पकड़ा। बहन जी, ये रायता तो लीजिए।”
“अरे भाभी, उस वक़्त तो इतनी कोफ़्त हुई, जिसकी हद नहीं। रोज़ सुबह स्टेशन पर आदमी दौड़ाता था। आख़िरी दिन तो इसकी हुलिया बताकर उससे यही कह दिया था, कि बस जैसे ही दिखायी दे, घसीटकर ले आना, बात-वात करने की ज़रूरत नहीं!” कहकर कौशल ने एक ठहाका लगाया।
कुसुम और मोती भी हँस दिए।
कुछ देर चुप्पी रही। फिर निवाले के साथ प्याज का एक टुकड़ा मुँह में रखते हुए कौशल बोला, “भाभी जी, कभी बम्बई का प्रोग्राम बनाइए न। सब घुमा देंगे आप लोगों को, जुहू, मरिन ड्राइव, चौपाटी, कमला नेहरू पार्क, हैंगिंग गार्डन, तारापुर वाला एक्वेरियम, अजंता, एलोरा, सब।”
कुसुम सकुचाई-सी हँस दी।
“क्यों, क्या दिक्कत है, मोती?” कौशल ने मोती की ओर देखा। “अगले महीने पन्द्रह-बीस दिन की छुट्टी ले लो। वक़्त बहुत अच्छा कटेगा।”
“अभी तो बच्चों के स्कूल चल रहे हैं न। बेकार की ग़ैरहाज़िरी हो जाएगी।” मोती ने नर्मी से कहा।
“अरे, हाँ।” कौशल चौंका, फिर कुछ सोचते हुए बोला, “तो इम्तिहान के बाद सही। शायद एप्रिल में ख़त्म होंगे। क्यों, राजू?”
“जी।” उसने तुरंत सहमतिसूचक सिर हिलाया।
“बस, तो फिर तय रहा। …क्यों, भाभी जी, ठीक है न?”
“अरे, आप खाइए तो।” कुसुम ने हँसकर, उसके रुके हुए हाथ की ओर इशारा किया।
इला मुस्कराकर बोली, “अगर बातें हों तो खाने की ओर इनका ध्यान कभी नहीं रहता।”
“भई, इन लोगों से छः साल के बाद मिल रहा हूँ, वह भी चंद घंटों के लिए।”
“और यहाँ कल से प्रार्थना कर रहे हैं कि कम-से-कम तीन-चार दिन तो रुको।” मोती ने इसरार किया, “आख़िर ऐसी भी क्या जल्दी है?”
कुसुम बोली, “सच, भाई साहब, अच्छा नहीं लगता कि रात को आए और सुबह चल दिए। बहन जी, आप ही इनसे कहिए न!”
इला मुस्कराकर रह गई।
“मेरे हाथ की बात होती न तो मैं महीने-भर यहीं पड़ा रहता।” कौशल ने हँसते हुए चम्मच खीर के प्लेट में रखी। “लेकिन एक बात मेरे दिमाग़ में आ रही है।”
“क्या?” मोती ने सवालिया निगाहों से उसकी ओर देखा। होंठों के कोने किसी मज़ाक़ की सम्भावना से मुस्कान में हल्के-से खिंच गए।
“यही कि दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल लिया जाए।” वह कुसुम की ओर देखते हुए हँसा, “क्यों, भाभी जी, अपने राजू के लिए नीरू का रिश्ता आपको मंज़ूर है?”
“मंज़ूर है, मंज़ूर है।” मोती खिलखिलाकर हँस पड़ा।
कुसुम मुस्कराई, “हमारे तो भाग जाग उठे।”
“भई, ऐसे नहीं? पहले लड़के वालो की तरह ज़रा नखरे तो कीजिए।” और कौशल ने ठहाका रोक पानी का गिलास मुँह से लगा लिया।
इला ने कुसुम और मोती की निगाह बचाकर, क्षण-भर कौशल की ओर देखा। फिर अनखनाकर बोली, “जल्दी कीजिए। बारह बज चुके हैं।”
“हाँ-हाँ, बस चल ही रहे हैं”, नज़र मिली तो कौशल ने कुछ सकपकाकर कहा।
2
कुसुम दीवार से पीठ टिकाए, पीढ़े पर निढाल-सी बैठी थी। मोती सामने खरहरी चारपाई पर सिर के नीचे एक बाँह लगाए लेटा था। बरामदे की तीनों दीवारों की सफ़ेदी मटमैली हो गई थी, और कोनों में जगह-जगह लम्बी दरारें थी। अंदर वाले दरवाज़े के ऊपर पुराने-से, ज़ंग लगे स्टैंड में बल्ब था, जिस पर गर्द की मोटी तह जमी थी। किवाड़ों की वार्निश कभी की उड़ चुकी थी। उनकी चूलें हिलने लगी थीं, और निचले हिस्से की दो पट्टियाँ टूटी थीं। दायीं दीवार पर लम्बे से बाँस को दो रस्सियों से बांधकर अलगनी बना दी गई थी, जिस पर कुछ मैले से कपड़े लटके थे। सामने की दीवार पर टेढी-मेढ़ी कील के सहारे एक पुराना कैलेंडर झूल रहा था। उसका काग़ज़ बिल्कुल पीला पड़ चुका था, और तारीख़ों के पन्ने फट चुके थे। फ़र्श पर दरी बिछी थी। पास ही जूठी थालियों का ढेर था, जिस पर मक्खियाँ भनभना रही थी।
देखते-देखते मोती ने गहरी साँस ली, फिर करवट बदलने लगा।
“कौशल बाबू का स्वभाव बहुत अच्छा है। तनिक भी घमंड नहीं।” कुसुम बोली, और हल्की-हल्की उँगलियों से माथा सहलाने लगी।
“वो हमेशा से ही ऐसा है”, मोती ने कहा।
“नीरू की माँ ज़रूर ग़ुरूर वाली है।”
उसने मुड़कर देखा। “क्यों? …कुछ बात हुई क्या?”
“नहीं बात-बात क्या होती? …लेकिन मालूम तो पड़ जाता है।” और कुसुम ने दोनों हथेलियाँ मुँह के आगे कर, जमुहाई ली।
“भई, बड़े आदमी की बेटी है, और बड़े घर में ब्याही गई है।”
कुछ देर चुप्पी रही।
फिर कुसुम ने पूछा, “कौशल बाबू से तुम्हारी ख़ूब दोस्ती थी?”
“दोस्ती… बस, यों समझ लो कि दो देह एक जान थे।” वह आवेश में उठकर बैठ गया, “भाई, बड़े सवेरे मोटर-साइकिल धड़धड़ाता हुआ मेरे कमरे पर पहुँच जाता था, और फिर हम आधी रात को ही अलग होते थे… उठना-बैठना, पढ़ना-लिखना, घूमना-फिरना सब साथ-साथ। जिस दिन उसके यहाँ पहुँच जाऊँ, उसकी माँ खाना खिलाए बिना नहीं आने देती थीं। ऐसा मानती थीं मुझे जैसे उन्हीं का सगा बेटा होऊँ।” उसने एक हाथ की बंधी मुट्टी पर ठोड़ी टिका ली थी, और खोया-खोया-सा सामने देखने लगा था।
आँगन के आधे हिस्से में धूप फैली हुई थी। एक दीवार से सटे रक्खे चार-छः साबित और अधटूटे गमलों के पौधे हवा में धीरे-धीरे हिल रहे थे। ऊपर छत की मुंडेर पर एक कौवा सहँसा ‘काँव-काँव’ करने लगा था।
राजू हाथ में गुलेल लिए अंदर घुसा तो मोती ने इशारे से उसे बुलाया, फिर उसके पास आने पर घुड़ककर कहा, “सुबह नाश्ते के वक़्त तू मरयुक्खों की तरह एक बार में दो-दो मिठाइयाँ क्यों खा रहा था? …मिठाई कभी देखने को नहीं मिलती थी क्या? …वे लोग अपने मन में क्या सोचते होंगे?”
राजू ने अपराधी की तरह गर्दन झुका ली, और पाँव के अँगूठे से फ़र्श कुरेदने लगा।
“जाने भी दो। बच्चे हैं।” कुसुम धीरे से बोली। मोती की निगाह बचाकर राजू को जाने का इशारा किया। फिर कुछ देर की ख़ामोशी के बाद बोली, “भई, मेरा तो बुरी तरह बदन टूट रहा है। सिर में अलग दर्द है। रात को अच्छी तरह सो नहीं सकी। सुबह भी जल्दी ही उठना पड़ा।”
“हाँ-हो तो लेट जाओ। आराम करो। खाना तो बना ही होगा?”
“हाँ, सभी कुछ है—पूरियाँ, सूखी और रसेदार तरकारी…”
“बस, ठीक है। रात को खाने का झंझट मत करना।”
वह चारपाई से उठने लगा तो कुसुम ने आँचल की गाँठ खोलकर एक सिक्का निकाला।
“मैं चौका-बर्तन करती हूँ। तुम तब तक एस्प्रो की एक टिकिया ला दो।”
“अच्छा!” मोती ने हाथ बढ़ाकर सिक्का ले लिया। फिर आँगन की ओर बढ़ते-बढ़ते सहसा ठिठककर कहा, “महरी तुमने बेकार हटा दी। ऐसा कौन-सा ख़र्च था?”
“क्या करती? इस महँगाई में…” आगे को बात गहरी साँस में टूट गई।
मोती कुछ कहने को हुआ, फिर सहसा सिर झटककर, धीरे-धीरे बाहर चबूतरे पर आ गया।
गली में इस किनारे से उस किनारे तक धूप फैली हुई थी। अभी दोपहर भी नहीं ढली थी, और पूरा दिन सामने था। उसे उत्साह में दफ़्तर से छुट्टी ले लेने पर पछतावा होने लगा। आख़िर मालूम तो था ही कि वे लोग जल्दी ही चले जाएँगे, फिर छुट्टी की क्या तुक थी? एक कैज़ुअल भी बेकार गई, और बोरियत हुई सो अलग। उसने चबूतरे के नीचे धूल-भरी सड़क पर कार के टायरों के अधपिटे निशान खोजे। फिर खाँसते हुए इधर-उघर देखने लगा।
मन्नू भण्डारी की कहानी 'स्त्री सुबोधिनी'