अजीब-सी इत्तिला थी वो
जिसे मैं ख़ुद से न जाने कब से छुपा रही थी
अजब ख़बर थी कि जिसकी बाबत
मैं ख़ुद से सच बोलते हुए हिचकिचा रही थी

अजीब दुःख था
कि जिसका एहसास जागते ही
मैं अपने महरम से
अपने हमदम से ऐसे नज़रें चुरा रही थी
कि जैसे मुझमें कहीं कोई जुर्म हो गया हो

अजब ख़बर थी
जिसे मिरा दिल क़ुबूल करने से मुन्हरिफ़ था
मगर हक़ीक़त का मोतरिफ़ था
कि शाख़-ए-जाँ पर गुलाब खिलने के मौसमों को
विदा कहने की साअतें अब क़रीब-तर हैं
क़रीब-तर है कि ख़ुश्क हो जाएँगे वो सोते
कि जिनकी तह में
हज़ार तख़्लीक़ के ख़ज़ाने छुपे हुए थे
वो आब-ए-हैवाँ
वो इम्बिसात-ओ-हयात का बे-कनार दरिया
कि दफ़्न हो जाएगा ख़स-ओ-ख़ाक-ए-रोज़-ओ-शब में

यहाँ से उम्र-ए-गुरेज़-पा जो निकल पड़ी और रास्ते पर
तो सोचती हूँ कि जाते-जाते
मैं अपने ख़ालिक़ से ये तो पूछूँ
ख़ुदा-ए-सत्तार
इस्मतों को हज़ार पर्दों में रखने वाले
सिफ़ात में तेरी अद्ल भी है
तो फिर मिरे
और मेरे महरम के बीच तफ़रीक़ का सबब क्या
वजूद की कीमिया-गरी में
ये बाँझ-पन का इताब तन्हा मिरे लिए क्यों
ये ख़ुश्क-साली का ऐसा एलान-ए-ख़ास
क़हत-ए-नुमू का उर्यां अज़ाब तन्हा मिरे लिए क्यों
ऐ मेरे सत्तार-ओ-कीमिया-गर
ये रोज़-ओ-शब का अज़ाब तन्हा मिरे लिए क्यों?

इशरत आफ़रीं की नज़्म 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो'

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