‘Mera Dawa’, a poem by Rahul Boyal
मनुष्य होने का मेरा दावा ख़ारिज हो गया
देवता तो मैं किसी क़ीमत पर न था
पशु होने की विचारधारा कभी जन्मी नहीं
मैं एक लम्बी क़तार में
बहुत पीछे खड़ा तो था
पर मुझे याद नहीं, मैं क्या माँगने गया था!
चींटियों की अनुशासित पंक्ति में नहीं था मैं
न तितलियों के समूह से मेरा नाता था
मैं मछलियों की तरह न तैर सका
न पंछी बन आसमान में डुबकी लगा सका
मैं एक बड़े झुण्ड में शामिल था
पर मुझे याद नहीं, मेरा मक़सद क्या था!
सबके पास अपनी-अपनी बोलियाँ थीं
अपनी भाषा थी, अपना मौन था
मेरे पास गालियाँ थीं, मैं कौन था!
जो मनुष्य होने के क़रीब थे,
वो मनुष्येतर होने की होड़ में
मनुष्य होने से भी रह गये
मैं एक ऐसे समाज का अंग था
जिसको ये पता न था, वो क्यों था!
आख़िर जो होना था, वही हुआ
मनुष्य होने का मेरा दावा ख़ारिज हो गया।
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