‘Mere Gaon Ki Betiyaan’, a poem by Saraswati Mishra
मेरे गाँव की पतली सर्पीली पगडण्डी
काँप-काँप उठती है
लड़कियों की साइकिलों में बजती घण्टियों संग,
हवा में लहराती लम्बी चोटी के साथ
दूर तक लहराती हैं सपनों की पतंगें
नहीं गुहारतीं अब रुक्का साइकिल वाले को
आगे बढ़ भर लेती हैं टायर में हवा
झमककर मारती हैं पैडल,
लड़कियों ने सीख ली है
ख़िलाफ़ हवा का रुख़ मोड़ने की कला
ख़ूब खिलखिलाती हैं मेरे गाँव की लड़कियाँ,
बात-बेबात लगाती हैं ठहाके,
आजी के टोकने पर बदल लेती हैं दहलीज़,
चौकन्ने कानो से सूँघ लेती हैं
खेत से लौटे बाबा के पाँवों की आहट
हँसते मुँह में ठूँस लेती हैं दुपट्टे का छोर
लहलहाती फ़सल देख
किसान की मूँछों बीच उपजने वाली गर्वीली मुस्कान
कौंध जाती है बाबा के उम्रदराज़ चेहरे पर,
ताखे पर सजी किताबें
आश्वस्ति देती हैं बाबा को-
डॉक्टर दीदी के चेहरे में दिखती हैं
अपने घर की लड़कियाँ
घड़ी में चाबी देती लड़कियाँ
सुइयों की रफ़्तार घटाती-बढ़ाती हैं,
रुकता-चलता है समय भी
उनके सपनों के रुकने-चलने के साथ-साथ
टिकाती हैं अपनी साइकिलें
गाँव के बाहर लगे मील के पत्थरों पर
और बदल देती हैं उन पर दर्ज
बड़े शहरों की दूरी को
अपने सपनों से किताबों तक के बीच की दूरी में
मेरे गाँव के लोग
अब नहीं माँगते मनौती पीर बाबा से,
नहीं चढ़ाते काँवर केवल कुल दीपक के लिए,
काँवर के एक पलड़े पर लड़के तो
दूजे पर लड़कियों की ख़ुशियाँ
संजोकर जाते हैं लोधेश्वर बाबा के धाम
‘स्त्री शक्ति’ की नयी परिभाषा गढ़ती
गाँव के भाल पर तिलक-सी सजती हैं
मेरे गाँव की बेटियाँ।
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