बात हिन्दुस्तान की आज़ादी.. मेरे नज़दीक तक़सीम के आस-पास की है. हिन्दुस्तान से ब्रिटेन न ले जा सकने वाली चीज़ों को ब्रिटिश हुकूमत यहीं छोड़ कर गयी, मजबूरी में.. लेकिन एक चीज़ वह यहाँ बड़े शौक़ से छोड़ कर गयी, जो आज भी यहाँ के कई म’आशरे में अज़ीज़तर चीज़ बनी हुई है.. मैं चाय की भी बात नहीं कर रहा.. उसकी बात हिन्दुस्तान के वजीर ए आलम के अलावा कौन कर सकता है.. ग़ौरतलब है कि नफ़रत इंसानी जज्बों का ही एक पहलू है, लेकिन ‘नफ़रत’ को पाले रखना, ये न तो इंसानी जज़्बों में शुमार हो सकता है और न ही इंसानियत के दायरे में इसके क़दम पड़ सकते हैं.

दो नाम कभी भी अक्सर एक साथ इस सबब से आते हैं कि वो मिसाल बन सकें.. मसलन लैला-मजनूँ, शंकर-जयकिशन, चाय-पकौड़ा, हिन्दू-मुस्लिम.. हिन्दू-मुस्लिम वाकई, इन दोनों कौमों ने एक दूसरे की शान में ऐसे-ऐसे कारनामे किये कि दुनिया के बड़े से बड़े फ़लसफ़े फ़ेल हो गये और मिसाल बन गये. कैसे मिसाल बने ये आज भी कभी कभार नज़र से गुज़र ही जाता है..

सच बताऊँ तो मुझे तब न तो कोई दिलचस्पी थी किसी आज़ादी के जंग में और अब तो… खैर.. मैं जब ज़िन्दा था तो मेरे ज़हन में ये बात आई थी कि दूसरे जंगे अज़ीम में जितने पैसे ख़र्च हुए और जितने की तबाही हुई, उतने में दुनिया के बड़े से बड़े मसाइल हल हो सकते हैं.. लेकिन अफ़सोस कि मैं ये बात हिटलर को नही बता सका. मरने के बाद एक और  बात समझ में आई कि बात जहाँ पर ताक़त की हो, वहाँ कहीं गहरे में नफ़रत की बीज पनपने के लिये कसमसाती रहती है. लेकिन मैं मरा कैसे… मैं जन्नत का निकाला तो हो नहीं सकता और दोजख़ से घबराहट क्या होगी जब बँटवारे को इतने क़रीब से देखा है..

जब ये बात तय हो ही गयी कि हिंदुस्तान का दामन चाक करना है, तो मेरे मन में ये ख़याल आया कि क्यों न कराची वाला मकान बेच दिया जाए. हुज़ूर लालच तब तक फ़ायदे की शक्ल में नज़र आती है, जब तक आपकी जान पर न बन आये. .. और मैं निकल आया बम्बई से कराची के लिये.. सवारियों पर, रास्तों में, धरमशालाओं में आदमी इस क़दर लाचार-बेबस पड़े थे कि जैसे ख़ुदा ने उन्हें बनाया ही हिजरत के लिए था. यही तो थे असली जन्नत के निकाले.. यही जिन्हें बेमतलब शहर बदर, मुल्क-बदर होना पड़ा..  इन सबके दरमियाँ मैं भी था, जो इस मौक़ा ए हिजरत में भी, इस सोगवार आलम में भी अपने फ़ायदे की बात सोच रहा था… मकान पर क़ब्ज़ा होने से पहले कम-ज़ियादा भाव में बेच ही दिया जाए.. मगर वहां पहुँचते-पहुँचते मेरी रूह, यानि मैं अपने जिस्म से बाहर था.. जिस्म दो औसतन बराबर टुकड़ों में एक बड़े नाले के किनारे पड़ा हुआ था.. मैं हिन्दू, ब्राम्हण, जनेऊधारी, उन्होंने मेरी पतलून उतरवाने में ज़रा भी वक़्त ज़ाया न किया.. अरे!

पर जब मर ही गया हूँ, तो धरती पर कर क्या रहा हूँ..? और ये मेरे शरीर से रौशनी क्यों निकल रही है… कोई यमराज, कोई मौत का फ़रिश्ता आएगा?.. ये भी सही है कि जब एक साथ इतने लोग मरेंगे तो यमराजों पर भी वर्कलोड बढ़ ही जायेगा.. खैर ..! बात ये नहीं थी.. बात तो ये थी कि बचपन से अपने बड़े बुजुर्गों की ज़ुबान से ये सुनते आया था कि मौत के बाद यदि मरने वाले का पूरे रीति-रवाज के साथ क्रिया-करम ना हो, तो मुक्ति नहीं मिलती.. और इसी बात के दम पर हमने न सिर्फ़ कोठी खड़ी की बल्कि ऐश के साथ ज़िन्दगी भी गुज़ारी.. इस बात के ज़रिये शहर में होने वाले हिन्दू-मुस्लिम दंगों में भी मरने वाले हिन्दुओं की मुक्ति का बिजनेस ख़ूब चला.. अब यह बात तो रूह में पैवस्त हो गयी है… मैं तेरह दिनों तक अपनी लाश के इर्द गिर्द घूमता रहा कि कोई ‘ईमान वाला’ नहीं तो कचड़ा उठाने वाला ही मेरा जिस्म किसी नदी में डाल आये. पर यहाँ तो पूरा हिंदुस्तान और नया पाकिस्तान कचड़ा बना हुआ था और दुनिया भर का पानी इसके डूब मरने के लिए कम था…

मैं आख़िर तक उसी नाले के पास पड़ा रहा.. किसी को आते जाते भी नहीं देखा.. हाँ बारहवे दिन एक औरत की लाश भी कुछ लोग यहीं डाल गए.. मेरा एक हिस्सा कुत्तों ने खाया और दूसरा हिस्सा सियारों ने.. मैं अपने आप को हिन्दुस्तान बिलकुल भी महसूस नहीं कर रहा था. .. बाक़ी बचे हिस्सों में कीड़े लग गये.. मैं समझ गया कि मुझे मुक्ति नहीं मिलने वाली.. अब पुराने मकान क्या जाता, उस पर औरों का दख़ल देख व्यापारी मन को बहुत ठेस लगता, सो वापस हिंदुस्तान का रुख किया.. रूह, सुना था कि, जिस्म से तेज़ होती है.. लेकिन जहाँ नफ़रत तेज़ हो वहाँ कुछ और कैसे तेज़ हो सकता था.. फ़ज़ा में ठहरी नफ़रत से मुझे कभी खून तो कभी लाश की बदबू आती थी.. वापिस हिन्दुस्तान पहुँचने पर पाया कि हिन्दू-मुस्लिम अश्लील दंगों ने मुर्दाघरों (जो पहले घर थे), शमशानों, और कब्रिस्तानों के आंकड़ों में वो इजाफा किया है कि आने वाले दिनों में इन्हें बात बे बात पर मरने-मारने से पहले सोचना नहीं पड़ेगा.. ये बेहद आसानी से जलने या दबने के लिए ज़मीन हासिल हो जाएगी.. रहने के लिए हो न हो..

 आज लगभग अठारह-उन्नीस बरस हो गये हैं.. मैं अपनी मौत से आज तक ऐसे ही चुप-ख़ामोश और तनहा हूँ.. मैं तनहा रूह कभी-कभी इतना तनहा हो जाता कि मुझे मेरे ज़िन्दा होने का एहसास होता.. मरने के बाद ज़िन्दा होना.. यानि दूसरी मौत.. कौन झेले..? अभी तक मुक्ति नहीं मिली और अच्छा ही है.. मुक्ति पाके देवता के शरीर से चिपके रहने से बेहतर है ये आवारामिज़ाजी.. मेरा वक़्त अक्सर किसी नदी के घाट पर बहते पानी को देखते हुए गुज़रता है.. हिन्दुस्तान में क़ानून कब का आ चुका.. पूरी दुनिया में ये मुल्क अपनी जम्हूरियत के लिये जाना जाता है… और इन सब बातों से दूर एक अघोरी इसी घाट पर गाँजा फूँक रहा है.. मैं उसे देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि ये मुझे अपने वश में न कर ले.. इसी बीच मेरी नज़र के सामने से मेरी ही जैसी एक रौशनी गुज़री और घाट पर दस-बारह सीढ़ी नीचे ठहर गयी.. मुझे ख़ुशी हुई कि कोई तो मिला, जिससे मैं बात कर सकूँगा.. मेरे आवाज़ देने पर जब वो रौशनी पलटी तो मैं चौंक के रह गया… अरे ! ये तो रिजवान है.. अपने ही मोहल्ले का. लेकिन ये तो मुस्लिम है.. और जब ये मुस्लिम है और मैं हिन्दू तो हमदोनों की रूह का रंग एक जैसा कैसे हो सकता है..? पर है ..मैंने अपनी राम कहानी सुनाई.. उसके बाद उससे पूछा तो उसने कहा-

‘कुछ दिन पहले की बात है.. नया नया मरा हूँ .. भूख भी सही से नहीं लगती.. ’

‘जाना भी नहीं पड़ेगा’, मैंने कहा, ‘हुआ कैसे’?

‘यार कुछ दिन पहले की बात है.. हमारे मोहल्ले में किसी तरह का दंगा- फ़साद नहीं था.. आरती और अज़ान अपने अपने वक़्त से हो रही थी कि एक दिन अचानक कुछ पुलिस वालों ने आकर मोहल्ले में नाकाबंदी कर दी और कहा कि इस मोहल्ले में दंगे के आसार हैं.. सो पुलिस तैनात रहेगी.  सलाहुद्दीन और रामावतार चचा इस बात पर भड़के और थाने गये.. वहाँ उन्होंने कहा कि कोई दंगा-वंगा नहीं होगा.. वे लोग पुलिस हटा लें.. वहाँ पुलिस वालों ने दोनों को गिरफ़्तार कर लिया.. फिर मुसलामानों के बीच जाने ये खबर कैसे बनी कि रमावतार ने सलाहुद्दिन को गिरफ्तार करवाया है और ये सारा किया धरा उनका है.. फिर इसी तरह की ख़बर हिन्दुओं के बीच से भी आने लगी.. इधर कुछ लोगों ने थाने जा कर सीधे उन बुजुर्गों से बात करने की कोशिश की. लेकिन इसका हासिल कुछ नहीं हुआ.. इन्हें थाने में घुसने तक नहीं दिया गया. इधर सब लोग थाने में परेशान थे उधर जाने कैसे मोहल्ले के दो तीन घरों में आग़ लग गयी.. फिर क्या होना था.. बस उसी दंगे के सबब यहाँ इस हाल में हूँ .. कि भूख भी सही से नहीं लगती.. तीन चार दिन बाद उन्हें रिहा कर दिया गया और मैंने देखा कि मोहल्ले में एक पक्के मुस्लमान और एक पक्के हिन्दू की तस्वीर इलेक्शन के उम्मीदवार के तौर पर लगी हुई है… ’