मेरे साथ कौन आता है?
मैं फिर उन कांतारों की यात्रा करने जा रहा हूँ
जहाँ बरसों में भटक चुका हूँ।
मैं मानता हूँ कि वहाँ मेरे पदचिह्नों के अलावा
कुछ नहीं मिलेगा।
लड़खड़ाते हुए मैंने जिस चट्टान पर हाथ टेका था
वहाँ मेरी ज़ख़्मी उँगलियों की छाप
अभी भी होगी
और वह पगडण्डी भी
जो कहीं ले नहीं जाती
सिर्फ़ जिसे हम जानते हैं
उससे परिचय थोड़ा और घना कर देता है।

मेरे साथ कौन आता है?
यह चुनौती नहीं है।
क्योंकि चुनौती की भाषा अब मुझसे बोली नहीं जाती।
मैं इतने दिनों तक निस्तब्ध सोचता रहा हूँ
कि मेरी आवाज़ भारी हो गई है
और मुझसे सिवाय विनय के
कोई दूसरी बे-पाखण्ड मुद्रा बाक़ी नहीं रह गई है।
इसलिए मैं भरसक साधारण आवाज़ में पूछता हूँ
मेरे साथ कौन आता है?

हम यहाँ फिर उस खुले आकाश का साक्षात्कार करेंगे
जो हमें उस सबकी याद दिलाएगा
जिसे हम भूल चुके हैं।
और उस हवा से हमारी भेंट होगी
जिसका स्पर्श
हताश भटकते पाँवों की गति को
तीर्थ यात्रा में बदल देता है
और जिसकी पारदर्शिता में
ज़ख़्मी उँगलियों की छाप
चट्टानों के माथे पर
अभिषेक की तरह चमकती है।

मेरे साथ कौन आता है?

मैं देख रहा हूँ
अभी सूरज चमक रहा है
तेज़ और थकाने वाला,
लेकिन तीसरे पहर
बादल घिरेंगे
बारिश होगी और ओले गिरेंगे
मैं नहीं जानता
कि उस समय मैं हाथों से पकड़कर
पैरों को आगे बढ़ाता
रास्ते में हूँगा
या उस मंज़िल पर
जहाँ पीछे छूटा हुआ विघ्न
एक सामान्य-सी यादगार मालूम पड़ता है।

मेरे साथ कौन आता है?

वहाँ चलते वक़्त
इसका ख़याल करना कि हम कितनी दूर निकल आए—
सम्भव नहीं होता।
उस वक़्त तो सिर्फ़ रानों और पिण्डलियों की ऐंठन ही
पहली और आख़िरी अनुभूति होती है।
रास्ते का ख़याल तो
थककर बैठ जाने पर ही आता है
हो सकता है कि हम पहाड़ की छाया में सो जाएँ
पास से एक पतली धारा बह रही हो
जिसकी तरी के कारण
स्रोत पर जीवित घास और हरी पत्तियाँ
उग आयी हों—
हो सकता है कि झाड़ी से निकलकर
गेहुँअन हमारे मस्तिष्क पर
छाया करे।

मेरे साथ कौन आता है?

ऐसा नहीं है
कि वहाँ लोग नहीं होंगे
हमें सोता देखकर वे आएँगे
और जागने पर हालचाल पूछेंगे।
हम उनसे कहेंगे
कि हम भी उनके साथ कांतारों में
गुमनाम होने के लिए आए हैं
वे खुलकर हँसेंगे
और हमारी इस विचित्र आकांक्षा का मतलब
नहीं समझ सकेंगे।
क्योंकि उन्होंने अपने देश के बारे में
वह सब नहीं सुन रखा है
जो हमने सुना है।

मेरे साथ कौन आता है?

हाँ, मैंने अच्छी तरह तौल लिया है।
एक बार तय कर लेने के बाद
गुमनाम हो जाना उतना डरावना नहीं लगता
जितना हमने समझ रखा है
आख़िरकार यह हमेशा सम्भव है
कि हम अब तक के तमाम कोलाहल को
एक झटके के साथ त्याग दें
और खड़े होकर कहें
हाँ, हमने माना कि एक ज़िन्दगी हमने
ग़लत परिणामों को सिद्ध करने में गुज़ार दी।
अब हमें नई शुरुआत के लिए
नए सिरे से गुमनामी चाहिए।

भरी सभा में एक ही सवाल है—
मेरे साथ कौन आता है?

विजयदेव नारायण साही की किताब 'सवाल है कि असली सवाल क्या है'

Book by Vijaydev Narayan Sahi: