‘Meri Neend Ret Ki Machhli’, a poem by Kailash Gautam
मेरी नींद रेत की मछली हुई मसहरी में।
धान पान थे खेत हमारे
नहरें लील गईं,
जैसे फूले कमल
ताल की लहरें लील गईं
आग लगी है घर की मीठी गंगा लहरी में।
कालिख झरती धूप
यहाँ की हवा विषैली है,
सबसे ज़्यादा धोबी की ही
चादर मैली है,
दिखलायी देते हैं तारे, भरी दुपहरी में।
मुखिया खाते दूध-भात
हम धोखा खाते हैं,
वही पंच-परमेश्वर हैं जो
घर अलगाते हैं,
जितनी सड़कें नयी बनीं, सब गईं कचहरी में।
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