‘Meri Priya Kavita’, a poem by Namdeo Dhasal
मराठी से अनुवाद: सूर्यनारायण रणसुभे
मुझे नहीं बसाना है अलग से स्वतन्त्र द्वीप
मेरी प्रिय कविता, तू चलती रह सामान्य ढंग से
आदमी के साथ उसकी उँगली पकड़कर,
मुट्ठी-भर लोगों के साँस्कृतिक एकाधिपत्य से किया मैंने ज़िन्दगी भर द्वेष
द्वेष किया मैंने अभिजनों से, त्रिमितिय सघनता पर बल देते हुए,
नहीं रंगे मैंने चित्र ज़िन्दगी के।
सामान्य मनुष्यों के साथ, उनके षडविकारों से प्रेम करता रहा,
प्रेम करता रहा मैं पशुओं से, कीड़ों और चींटियों से भी,
मैंने अनुभव किए हैं, सभी संक्रामक और छुतहे रोग-बीमारियाँ
चकमा देने वाली हवा को मैंने सहज ही रखा है अपने नियन्त्रण में
सत्य-असत्य के संघर्ष में खो नहीं दिया है मैंने ख़ुद को
मेरी भीतरी आवाज़, मेरा सचमुच का रंग, मेरे सचमुच के शब्द
मैंने जीने को रंगों से नहीं, सम्वेदनाओं से कैनवस पर रंगा है।
मेरी कविता, तुम ही साक्षात, सुन्दर, सुडौल
पुराणों की ईश्वरीय स्त्रियों से भी अधिक सुन्दर
वीनस हो अथवा जूनो
डायना हो या मैडोना
मैंने उनकी देह पर चढ़े झिलमिलाते वस्त्रों को खाँग दिया है।
मेरी प्रिय कविता, मैं नहीं हूँ छात्र ‘एकोल-द-बोर्झात’ का
अनुभव के स्कूल में सीखा है मैंने जीना, कविता करना : ची निकालना
इसके अलावा और भी मनुष्यों जैसा कुछ-कुछ
शून्य भाव से आकाश तले घूमना मुझे ठीक नहीं लगता।
बादलों के सुन्दर आकार आकाश में सरकते आगे आते-जाते हुए
देखने से भर जाता है मेरा अंतरंग।
मैं तरोताज़ा हो जाता हूँ, सम्भालता हूँ, समकालीन जीवन की
सामाजिकता को।
धमनियों से बहता रक्त का ज़बरदस्त रेला,
तेज़ी से फड़फड़ाने वाली धमनी पर उँगली रखना मुझे अच्छा
लगता है।
जिस रोटी ने मुझे निरन्तर सताया
वह रोटी नहीं कर पायी मुझे पराजित,
मैंने पैदा की है जीवन की आस्था
और लिखे हैं मैंने जीने के शुद्ध-अभंग,
मनुष्य क्षण-भर को अपना दुःख भूले-बिसार दे
कविता की ऐसी पंक्ति लिखने की कोशिश की मैंने हमेशा,
भौतिकता की उँगली पकड़कर मैं चैतन्य के यहाँ गया,
परन्तु वहाँ रमना सम्भव नहीं था मेरे लिए, उसकी उँगली पकड़
मैं फिर से भौतिकता की ओर ही आया,
अस्तित्त्व-अनस्तित्त्व के बीच स्थित
बाह्य रेखाओं का अनुभव मैंने किया है,
मैंने अनुभव किया है साक्षात ब्रह्माण्ड
कविता मेरी, बताओ
इससे अधिक क्या हो सकता है
किसी कवि का चरित्र?
हे मेरी प्रिय कविता
नहीं बसाना है मुझे अलग से कोई द्वीप,
तू चलती रह, आम से आम आदमी की उँगली पकड़
मेरी प्रिय कविते,
जहाँ से मैंने यात्रा शुरू की थी
फिर से वहीं आकर रुकना मुझे नहीं पसंद,
मैं लाँघना चाहता हूँ
अपना पुराना क्षितिज।
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