28/8/64
निर्मल रामकुमार के घर के बाहर। उनके पिताजी की मृत्यु का सोग। साहित्यिक परिवार में से सिर्फ़ तीन आदमी। भीष्म, कुलभूषण और मैं। …वीरानगी।
ख़ामोशी का बाँध टूटा। अच्छा लगा। उदासी से निर्मल की आँखें पहले से ज़्यादा डूबी हुई लगीं। पर उनमें मस्ती नहीं थी। रामकुमार की आँखों में, चेहरे में, मुरझाव ज़्यादा था, मस्ती भी थी।
भीष्म ने बताया कि मुक्तिबोध की हालत नाजुक है।
मेडिकल इन्स्टीट्यूट। शमशेर, शमशेर सिंह नरूला, श्रीकांत। नेमि।
पता चला कि सुबह मुक्तिबोध की साँस रुक गयी थी। आर्टिफिशियल रेस्पायरेशन से ज़िन्दा रखा जा रहा है। अब किसी भी क्षण…।
बरामदा।
अपने सिवा हर एक की हँसी-मुस्कराहट अजीब लगती है। अस्वाभाविक। लगता है, मौत के साये में कैसे कोई हँस-मुस्करा सकता है। पर फिर अपने गले से भी कुछ वैसी आवाज़ सुनाई देती है।
कमलेश, अशोक वाजपेयी।
व्यस्त, जैसे कि किसी साहित्य समारोह के कार्यकर्ता हों। व्यस्त, चेहरे से।
मुक्तिबोध-रुकी-रुकी साँसें…
ऊपर से देखने में अन्तर नहीं…
लगभग वैसे ही जैसे दिल्ली आने के दिन थे।
बाहर बातचीत…
‘चिता वगैरह का प्रबन्ध कैसे करना होता है?’
‘भीष्म बता सकेंगे। इसके लिए हमने उन्हीं का नाम लिख रखा है।’
…मुस्कराहटें!
‘कुछ महाराष्ट्रियन विधि भी तो होगी।’
‘वह प्रभाकर माचवे बता देंगे।’
हँसी।
मुक्तिबोध का सबसे छोटा बच्चा-खेलता-चिल्लाता ‘अंकल! अंकल।’
कुछ वाक्य:
‘एक साहित्यकार की अकाल मृत्यु! कितना अनर्थ है।’
‘इसके लिए एक सरकारी कोष होना चाहिए।’
‘हेल्थ सर्विसिज़ फ्री होनी चाहिए।’
‘हेल्थ सर्विसिज़! हा-हा!’
‘या सोशलिज़्म हो, या कुछ भी न हो।’
‘हम प्रजातन्त्र के लायक नहीं।’
‘आजकल क्या लिख रहे हैं?’
‘कितनी बड़ी पुस्तक होगी?’
… … …
‘कब तक पूरी हो जाएगी?’
… … …
‘नागपुर से प्लेन कितने बजे आता है?’
‘भिलाई की गाड़ी को उसका कनेक्शन नहीं मिलता।’
‘चलें?’
‘अच्छा…!’