अम्मा का नाम गुलाबो। मुँह देखो, तो छुहारा। आकृति धनुष की तरह। अवस्था गुलाबो अम्मा की अस्सी और पाँच पचासी वर्ष।
अम्मा का खासा परिवार। बेटे तीन – राम, काम और दाम, जिनके लघु नाम। पूर्ण नाम रामेश्वर, कामेश्वर और दामोदर। रामेश्वर कांग्रेसी, कामेश्वर कम्युनिस्ट तथा दामोदर हिंदू-सभाई।
मगर कहानी यह राजनीतिक दुभार्वना-प्रधान नहीं, सामाजिक भावना-प्रधान है। घर में एक गाय को लेकर काफी कलह। उस गाय को कामेश्वर या कम्युनिस्ट लड़के ने बारह साल पहले तीस रुपये में खरीदा था। दस साल उसने बराबर सारे परिवार को तीन सेर रोजाना से लेकर आठ सेर रोजाना तक दूध पिलाया। उसके छः बछड़े छोटी उम्र में ही कुल मिलाकर ढाई सौ रुपये में बेच दिए गए, और चार बछियाएँ डेढ़ सौ में। पर अब उस गाय में कोई तत्व नहीं, ठठरी-मात्र रह गई है। बुढ़ापे से काली, कीचमयी आँखें। किसी को भी अब उससे कोई उम्मीद नहीं। सबको अब वह द्वार की कुशोभा और गंदगी फैलानेवाली मामूल पड़ती है!
केवल गुलाबो अम्मा उस गाय की पक्षपातिनी और प्रचंड रक्षक। बिना उनके प्राण निकले, क्या मजाल जो कोई गोमाता को घर के बाहर निकाल सके! जवानी में दूध किसी ने पिया हो, पर बुढ़ापे में गाय के लिए अपना खून पानी करनेवाली हैं, तो गुलाबो अम्मा। मुँह देखो, तो छुहारा, आकृति धनुष की तरह। गुलाबो अम्मा अस्सी पाँच पचासी वर्ष की वय में जैसी बूढ़ी, वैसी ही वह गाय पंद्रह वर्ष की अवस्था में।
“इसे बेच दें अम्मा?” कम्युनिस्ट ने आज्ञा चाही।
“इसे खरीदेगा कौन? यह न तो अब फलेगी, न दूध देगी।” अम्मा ने बेचने की याचना को अनुत्साहित किया, पर कम्युनिस्ट अर्थ-पिचाश-युग का प्राणी।
“कसाई इसे हँसी-खुशी से पच्चीस-तीस रुपये में ले लेगा अम्मा!”
और, अपनी कोख से जनमे पूत के मुँह से ऐसी पातक बात सुनने के बाद अम्मा ने तीन दिन, तीन रात अन्न-जल ग्रहण नहीं किया।
कांग्रेसी बेटा रामेश्वर या राम ने एक दिन सुनाया – “अम्मा! जमाना महँगाई का है, और इस गाय पर रुपया-सवा रुपया रोज सर्फा पड़ जाता है। इसे पिंजरापोल पठा दें, तो कोई आपत्ति है तुम्हें? वहाँ यहाँ से अधिक सुखी रहेगी।”
“जमाना महँगाई का है, तो मुझे भी किसी पिंजरापोल में भर्ती करा दे। दूध पिया हमारे परिवार ने, सेवा करे पिंजरा-पोल। यह भी कोई इंसाफ है? इस पर एक रुपया रोज परिवार नहीं खर्च सकता, तो मैं आधा पेट खाऊँगी, और मेरे पेट का आधा यह खाएगी।”
और सारा घर खुशामदें करते-करते हार गया, पर उस दिन के बाद गुलाबो अम्मा ने कभी दोनों जून जमकर खाया नहीं।
हिंदू-सभाई यानी छोटा लड़का दामोदर सबसे चघड़ निकला। उसने तय किया – गुलाबो अम्मा के सो जाने पर आधी रात को गाय नगर की सीमा के बाहर हाँक आने का। उसने अम्मा अनजान को तो धोखे में रक्खा, पर ऐन वक्त पर वह गाय गोया उसके बद इरादे को जान ताड़ गई, और बंधन में हाथ लगाते ही बाँ-बाँ कर, गोया गुलाबो अम्मा को पुकारने लगी। अम्मा भी उसकी पुकार सुनते ही गाय के थान पर – “क्यों रे, यह क्या कर रहा है?”
“अम्मा”, खीझ भरे स्वर में हिंदू-सभाई लड़के ने कहा – “इसके मारे सारे घर में गंदगी, जिधर देखो, गोबर-ही-गोबर। सीधे से तुम इसे कभी न निकालोगी, सो मैंने सोचा, रातो-रात शहर हाँक आऊँ।”
“किसके भाग्य कि सारे घर में गोबर-ही-गोबर नजर आए – अभागे! गोबर में लक्ष्मी का निवास है। मैं आज अंतिम बार कहे देती हूँ, गाय घर से बाहर निकली, और दाना-पानी छोड़ मैंने प्राण देने का निश्चय किया। मेरी जिंदगी में ऐसी बेइंसाफी नहीं हो सकती कि जिसने हमारे लिए सारी जिंदगी खून का पानी बनाया, नहीं, दूध; उस मूक पशु को बुढ़ापे में घर से बाहर निकाल दिया जाय। यह भी परिवार का प्राणी है, काल-गति से वैसे ही कमजोर बनी, जैसे कि मैं।”
गुलाबो अम्मा के आर्य इंसाफ के रोब से थर्राकर दामोदर चोरों की तरह चुपके जब टरक गया, तब अम्मा ने गाय की तरफ करुण दृष्टि से देखा, और गाय ने अम्मा की तरफ कृतज्ञ दृष्टि से। वह पशु-भावनाओं से भरकर काँपी, या सहज ही उसकी चमड़ी में कंपन हुआ, पर अम्मा ने समझा कि उसको ठंड लग रही है। रातें भी तो पूस-माह की हैं।
“अरे! इसका मुझे ध्यान ही न रहा, मैं भी कैसी मूर्खा!”
वह झपटी हुई अपने सोनेवाली कोठरी में गई। उसके ओढ़ने के दो कम्बल- एक साबुत, एक पुराना झिल्लड़। पहले अम्मा ने झिल्लड़ कम्बल उठाया, फिर कुछ सोचकर रुकीं – “जिसने अपने बच्चों का पेट काटकर मेरे बच्चों को दूध पिलाया, उसे झिल्लड़ नहीं, अच्छा कम्बल ही ओढ़ाना सनातन धर्म है, कम-से-कम जब तक मैं जिंदा हूँ। मेरे बाद चाहे जो भी हो।”
गाय को उत्तम कम्बल ओढ़ा, स्वयं झिल्लड़ ओढ़े सोने की कोठरी की ओर लौटती हुई पीछे मुड़कर गुलाबो अम्मा ने यह ताड़ने की चेष्टा की कि अब तो वह नहीं काँप रही है। गाय ने भी विचित्र और मूक अपनत्व से अम्मा की तरफ देखा। अम्मा की आँखों में करुणा थी गंगा की तरह; गऊ की आँखों में कृतज्ञता थी मुक्ति की तरह।