सआदत हसन मंटो की कहानी ‘मोज़ील’ | ‘Mozeel’, a story by Saadat Hasan Manto

त्रिलोचन ने पहली बार, चार वर्षों में पहली बार, रात को आकाश देखा था और वह भी इसलिए कि उसकी तबीयत बहुत घबराई हुई थी और वह केवल खुली हवा में कुछ देर सोचने के लिए अडवानी चेम्बर्ज के टैरेस पर चला आया था। आकाश बिल्कुल साफ़ था और बहुत बड़े खाकी तम्बू की तरह पूरी बम्बई पर तना हुआ था। जहाँ तक दृष्टि जा सकती थी, बत्तियाँ ही बत्तियाँ नज़र आती थीं। त्रिलोचन को ऐसा महसूस होता था कि आकाश से बहुत-से तारे झड़कर बिल्डिंगों में, जो रात के अँधेरे में बड़े-बड़े पेड़ लगती थीं, अटक गए थे और जुगनुओं की तरह टिमटिमा रहे थे। त्रिलोचन के लिए यह एक बिल्कुल नया अनुभव, एक नई स्थिति थी—रात को खुले आकाश के नीचे सोना।

उसने अनुभव किया कि वह चार वर्ष तक अपने फ़्लैट में क़ैद रहा तथा प्रकृति की एक बहुत बड़ी देन से वंचित। लगभग तीन बजे थे। हवा बड़ी हल्की-फुल्की थी। त्रिलोचन पँखे की कृत्रिम हवा का आदी था, जो उसके पूरे शरीर को बोझिल कर देती थी। सुबह उठकर वह सदा ऐसा अनुभव करता था, मानो उसे रात-भर मारा-पीटा गया हो। लेकिन अब सुबह की प्राकृतिक हवा में उसके शरीर का रोम-रोम तरोताज़गी चूसकर तृप्त हो रहा था। जब वह ऊपर आया था तो उसका दिल बेहद बेचैन था। लेकिन आधे घण्टे में ही जो बेचैनी और घबराहट उसे कष्ट दे रही थी, किसी हद तक दूर हो गई थी। अब वह स्पष्ट रूप से सोच सकता था।

कृपाल कौर और उसका सारा परिवार मुहल्ले में था, जो कट्टर मुसलमानों का केन्द्र था। यहाँ कई घरों में आग लग चुकी थी। कई जानें जा चुकी थीं। त्रिलोचन उन सबको वहाँ से ले आया होता, लेकिन मुसीबत यह थी कि कर्फ़्यू लग गया था और वह भी न जाने कितने घण्टों के लिए। शायद अड़तालीस घण्टों के लिए। और त्रिलोचन विवश था। आसपास सब मुसलमान थे, वे भी बड़े भयानक क़िस्म के मुसलमान। पंजाब से धड़ाधड़ ख़बरें आ रही थीं कि वहाँ सिख मुसलमानों पर बहुत ज़ुल्म ढा रहे हैं। कोई भी हाथ—मुसलमान हाथ—बड़ी आसानी से नरम व नाज़ुक कृपाल कौर की कलाई पकड़कर उसे मौत के मुँह की तरफ ले जा सकता था।

कृपाल की माँ अन्धी थी और बाप अपाहिज। भाई था, लेकिन कुछ समय से वह देवलाली में था और उसे वहाँ नये-नये लिए हुए ठेके की देखभाल करनी थी। त्रिलोचन को कृपाल के भाई निरंजन पर बहुत ग़ुस्सा आता था। उसने, जो रोज़ अख़बार पढ़ता था, उपद्रवों की तीव्रता के बारे में एक सप्ताह पहले चेतावनी दे दी थी और स्पष्ट शब्दों में कह दिया था, “निरंजन, ये ठेके-वेके अभी रहने दो, हम एक बहुत ही नाज़ुक दौर से गुज़र रहे हैं। अगरचे तुम्हारा वहाँ रहना बहुत ज़रूरी है, लेकिन वहाँ मत रहो और मेरे यहाँ आ जाओ। इसमें कोई शक नहीं कि जगह कम है, लेकिन मुसीबत के दिनों में आदमी जैसे-तैसे गुज़ारा कर लिया करता है…”

लेकिन वह न माना। उसका इतना बड़ा लेक्चर सुनकर केवल अपनी घनी मूँछों में मुस्करा दिया, “यार, तुम बेकार फ़िक्र करते हो। मैंने यहाँ ऐसे कई फ़साद देखे हैं। यह अमृतसर या लाहौर नहीं, बौम्बे है, बौम्बे। तुम्हें यहाँ आए सिर्फ़ चार साल हुए हैं और मैं बारह बरस से यहाँ रह रहा हूँ, बारह बरस से।”

न जाने निरंजन बम्बई को क्या समझता था। उसका ख़याल था कि यह ऐसा शहर है कि अगर उपद्रव हों भी तो उनका असर अपने-आप ख़त्म हो जाता है, मानो उसके पास छूमन्तर हो—या वह कहानियों का कोई ऐसा क़िला हो, जिसपर कोई आपत्ति नहीं आ सकती। लेकिन त्रिलोचन प्रातःकालीन वायु में साफ़ देख रहा था कि… मुहल्ला बिल्कुल सुरक्षित नहीं। वह तो सुबह के अख़बारों में यह भी पढ़ने को तैयार था कि कृपाल कौर और उसके माँ-बाप क़त्ल हो चुके हैं। उसको कृपाल कौर के अपाहिज बाप और उसकी माँ की कोई परवाह नहीं थी। वे मर जाते और कृपाल कौर बच जाती तो त्रिलोचन के लिए अच्छा था। वहाँ देवलाली में उसका भाई निरंजन भी मारा जाता तो और भी अच्छा था, क्योंकि इस तरह त्रिलोचन के लिए मैदान साफ़ हो जाता। खासकर निरंजन उसके रास्ते में रोड़ा ही नहीं, बहुत बड़ा पत्थर था। और इसीलिए जब कभी कृपाल कौर से उसके बारे में बातें होतीं तो वह उसे निरंजन सिंह के बजाय अलख निरंजन सिंह कहा करता था।

सुबह की हवा धीरे-धीरे बह रही थी और त्रिलोचन का पगड़ी रहित सिर बड़ी प्रिय ठण्डक महसूस कर रहा था; लेकिन उसमें अनेकों अन्देशे एक-दूसरे से टकरा रहे थे।

कृपाल कौर नयी-नयी उसकी ज़िन्दगी में आयी थी। यों तो वह हट्टे-कट्टे निरंजन सिंह की बहन थी, लेकिन बहुत ही नरम, नाज़ुक और लचकीली थी। वह देहात में पली थी। वहाँ की कई गर्मियाँ-सर्दियाँ देख चुकी थी, फिर भी उसमें वह सख़्ती और मरदानापन नहीं था, जो देहात की आम सिख लड़कियों में होता है, जिन्हें कड़े से कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। उसके नैन-नक़्श कच्चे-कच्चे थे, मानो अभी अधूरे हों। आम देहाती सिख लड़कियों की अपेक्षा उसका रंग गोरा था, मगर कोरे लट्ठे की तरह, और बदन चिकना था, मर्सराइज्ड कपड़े की तरह। और वह बहुत लजीली थी। त्रिलोचन उसी के गाँव का था, लेकिन वह अधिक दिन वहाँ नहीं रहा था। प्राइमरी से निकलकर जब वह शहर के हाई स्कूल में गया तो बस, फिर वहीं का होकर रह गया। स्कूल से छुट्टी पायी तो कॉलेज की पढ़ाई शुरू हो गई। इस बीच वह कई बार—अनेकों बार अपने गाँव गया, लेकिन उसने कृपाल कौर नाम की किसी लड़की का नाम न सुना। शायद इसलिए कि हर बार वह इस अफ़रा-तफ़री में रहता था कि शीघ्र से शीघ्र शहर लौट जाए। कॉलेज का ज़माना बहुत पीछे रह गया था। अडवानी चेम्बर्ज के टैरेस और कालेज की इमारत में शायद दस वर्ष का फ़ासला था, और यह फ़ासला त्रिलोचन के जीवन की विचित्र घटनाओं से भरा हुआ था।

बर्मा, सिंगापुर, हाँगकाँग, फिर बम्बई, जहाँ वह चार वर्ष से रह रहा था, इन चार वर्षों में उसने पहली बार रात को आकाश की शक्ल देखी थी, जो बुरी नहीं थी—खाकी रंग के तम्बू में हज़ारों दीये टिमटिमा रहे थे और हवा ठण्डी और हल्की-फुल्की थी।

कृपाल कौर के विषय में सोचते-सोचते वह मोज़ील के बारे में सोचने लगा। उस यहूदी लड़की के बारे में, जो आडवानी चेम्बर्स में रहती थी। उससे त्रिलोचन का गोडे-गोडे इश्क हो गया था। ऐसा इश्क, जो उसने अपनी पैंतीस वर्ष की ज़िन्दगी में कभी नहीं किया था। जिस दिन उसने अडवानी चेम्बर्स में अपने एक ईसाई मित्र की सहायता से दूसरे माले पर फ़्लैट लिया, उसी दिन उसकी मुठभेड़ मोज़ील से हुई, जो पहली नज़र में उसे ख़ौफ़नाक हद तक दीवानी मालूम हुई थी। कटे हुए भूरे बाल उसके सिर पर बिखरे हुए थे—बेहद बिखरे हुए। होंठों पर लिपस्टिक ऐसे जमा थी, जैसे गाढ़ा ख़ून, और वह भी जगह-जगह चटखी हुई। वह ढीला-ढाला सफ़ेद चोगा पहने हुए थी, जिसके खुले गिरेबान से उसकी नीली पड़ी बड़ी-बड़ी छातियों का लगभग चौथाई भाग नज़र आ रहा था। बाँहें जो कि नंगी थीं, उनपर महीन-महीन बालों की तह जमी हुई थी, जैसे वह अभी-अभी किसी सैलून से बाल कटवाकर आयी हो और उनकी नन्ही-नन्ही हवाइयाँ उनपर जम गई हों। होंठ अधिक मोटे नहीं थे, लेकिन गहरे उन्नाबी रंग की लिपस्टिक कुछ इस तरीक़े से लगायी गई थी कि वे मोटे और भैंसे के गोश्त के टुकड़े जैसे मालूम होते थे।

त्रिलोचन का फ़्लैट उसके फ़्लैट के बिल्कुल सामने था। बीच में एक तंग गली थी, बहुत ही तंग। जब त्रिलोचन अपने फ़्लैट में घुसने के लिए आगे बढ़ा तो मोज़ील बाहर निकली। खड़ाऊँ पहने थी। त्रिलोचन उसकी आवाज़ सुनकर रुक गया। मोज़ील ने अपने बिखरे बालों की चिकों में से अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से त्रिलोचन की ओर देखा और हँसी—त्रिलोचन बौखला गया। जेब से चाबी निकालकर वह जल्दी से दरवाज़े की ओर बढ़ा। मोज़ील की एक खड़ाऊँ सीमेण्ट के चिकने फ़र्श पर फिसली और वह उसके ऊपर आ गिरी। अब त्रिलोचन सम्भला तो मोज़ील उसके ऊपर थी, कुछ इस तरह कि उसका लम्बा चोगा ऊपर चढ़ गया था और उसकी दो नंगी, बड़ी तगड़ी टाँगें उसके इधर-उधर थीं और… जब त्रिलोचन ने उठने की कोशिश की तो वह बौखलाहट में कुछ इस तरह मोज़ील – सारी मोज़ील से उलझा, जैसे वह साबुन की तरह उसके सारे बदन पर फिर गया हो। त्रिलोचन ने हाँफते हुए बड़े शिष्ट शब्दों में उससे क्षमा माँगी। मोज़ील ने अपना चोगा ठीक किया और मुस्करा दी, “यह खड़ाऊँ एकदम कण्डम चीज़ है।”

और वह उतरी हुई खड़ाऊँ में अपना अँगूठा और उसके साथ वाली उँगली फँसाती हुई कारीडोर से बाहर चली गई। त्रिलोचन का ख़याल था कि मोज़ील से दोस्ती पैदा करना शायद मुश्किल हो, लेकिन वह बहुत ही थोड़े समय में उससे घुलमिल गई। हाँ, एक बात थी कि बहुत उद्दण्ड और मुँहज़ोर थी और त्रिलोचन की कुछ परवाह नहीं करती थी। वह उससे खाती थी, उससे पीती थी, उसके साथ सिनेमा जाती थी। सारा-सारा दिन उसके साथ जुहू पर नहाती थी, लेकिन जब वह बाँहों और होंठों से कुछ आगे बढ़ना चाहता तो वह उसे डाँट देती। कुछ इस तरह उसे घुड़कती कि उसके सारे मन्सूबे दाढ़ी और मूँछों में चक्कर काटते रह जाते।

त्रिलोचन को पहले किसी के साथ प्रेम नहीं हुआ था। लाहौर में, बर्मा में, सिंगापुर में वह लड़कियाँ कुछ समय के लिए ख़रीद लिया करता था। उसे कभी स्वप्न में भी ख़याल न था कि बम्बई पहुँचते ही वह एक बहुत ही अल्हड़ क़िस्म की यहूदी लड़की के प्रेम में गोडे-गोडे धंस जाएगा। वह उससे कुछ विचित्र प्रकार की विमुखता बरतती थी। उसके कहने पर तुरन्त सज-धजकर सिनेमा जाने के लिए तैयार हो जाती थी, लेकिन जब वे अपनी सीट पर बैठते तो इधर-उधर वह निगाहें दौड़ाना शुरू कर देती। यदि कोई उसका परिचित निकल आता तो ज़ोर से हाथ हिलाती और त्रिलोचन से पूछे बिना उसकी बग़ल में जा बैठती। होटल में बैठे हैं। त्रिलोचन ने मोज़ील के लिए विशेष रूप से उमदा खाने मँगवाए हैं, लेकिन उसे अपना कोई पुराना दोस्त दिखायी पड़ गया है—और वह अपना निवाला छोड़कर उसके पास जा बैठी है और त्रिलोचन की छाती पर मूँग दल रही है।

त्रिलोचन कभी-कभी भिन्ना जाता था, क्योंकि वह उसे अकेला छोड़कर अपने उन पुराने दोस्तों और परिचितों के साथ चली जाती थी और कई-कई दिन तक उससे मुलाक़ात नहीं करती थी। कभी सिर-दर्द का बहाना, कभी पेट की ख़राबी, जिसके बारे में त्रिलोचन को अच्छी तरह मालूम था कि वह फ़ौलाद की तरह कड़ा था और कभी ख़राब नहीं हो सकता था। जब उससे मुलाक़ात होती तो वह उससे कहती, “तुम सिख हो; ये नाज़ुक बातें तुम्हारी समझ में नहीं आ सकतीं।”

यह सुनकर त्रिलोचन जल-भुन जाता और पूछता, “कौन-सी नाज़ुक बातें—तुम्हारे पुराने यारों की?”

मोज़ील दोनों हाथ अपने चौड़े-चकले कूल्हों पर लटकाकर अपनी तगड़ी टाँगें चौड़ी कर देती और कहती, “यह तुम मुझे उनके ताने क्या देते हो। हाए, वे मेरे यार हैं, और मुझे अच्छे लगते हैं। तुम जलते हो तो जलते रहो।”

त्रिलोचन एक कुशल वकील की तरह पूछता, “इस तरह तुम्हारी-मेरी कैसे निभेगी?”

मोज़ील ज़ोर से क़हक़हा लगाती, “तुम सचमुच सिख हो। ईडियट, तुमसे किसने कहा है कि मेरे साथ निभाओ। अगर निभाने की बात है तो जाओ अपने देश में, किसी सिखनी से ब्याह कर लो। मेरे साथ तो इसी तरह चलेगा।”

त्रिलोचन नरम पड़ जाता। वास्तव में मोज़ील उसकी बड़ी कमज़ोरी बन गई थी। वह हर हालत में उसके सामीप्य का इच्छुक था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मोज़ील की वजह से उसकी प्रायः बेइज़्ज़ती होती थी। मामूली-मामूली क्रिश्चियन छोकरों के सामने, जिनकी कोई हस्ती नहीं थी, उसे लज्जित होना पड़ता था। लेकिन दिल से मजबूर होकर उसने यह सब कुछ सहने का निश्चय कर लिया था। आम तौर पर तौहीन और बेइज़्ज़ती की प्रतिक्रिया प्रतिशोध होता है, लेकिन त्रिलोचन के मामले में ऐसा नहीं था। उसने अपने दिल और दिमाग़ की बहुत-सी आँखें मींच ली थीं और कानों में रूई ठूँस ली थी। उसको मोज़ील पसन्द थी। पसन्द ही नहीं, जैसा कि वह अक्सर अपने दोस्तों से कहा करता था, गोडे-गोडे उसके प्रेम में धँस गया था। अब इसके सिवा और कोई चारा नहीं था कि उसके शरीर का जितना भाग शेष रह गया था, वह भी इस प्रेम की दलदल में चला जाए और क़िस्सा ख़त्म हो।

दो वर्ष तक वह इसी तरह बेइज़्ज़ती का जीवन बिताता रहा, लेकिन सुदृढ़ रहा। आख़िर एक दिन, जबकि मोज़ील मौज में थी, उसने अपनी भुजाओं में उसे समेटकर पूछा, “क्या तुम मुझसे प्रेम नहीं करती हो?”

मोज़ील उसकी भुजाओं से निकल गई और कुर्सी पर बैठकर अपने फ़्रॉक का घेरा देखने लगी, फिर उसने अपनी मोटी-मोटी यहूदी आँखें उठायीं और घनी पलकें झपकाकर कहा, “मैं सिख से प्रेम नहीं कर सकती।”

त्रिलोचन ने ऐसा महसूस किया कि उसकी पगड़ी के नीचे किसी ने दहकती चिनगारियाँ रख दी हों। उसके तन-बदन में आग लग गई, “मोज़ील, तुम हमेशा मेरा मज़ाक उड़ाती हो; यह मेरा मज़ाक नहीं, मेरे प्रेम का मज़ाक है।”

मोज़ील उठी और उसने अपने भूरे कटे हुए बालों को एक दिलफ़रेब झटका दिया, “तुम शेव करा लो और अपने सिर के बाल खुले छोड़ दो तो मैं शर्त लगाती हूँ कि कई छोकरे तुम्हें आँख मारेंगे—तुम सुन्दर हो।”

त्रिलोचन के केशों में और भी चिनगारियाँ पड़ गईं। उसने आगे बढ़कर ज़ोर से मोज़ील को अपनी ओर खींचा और उसके उन्नाबी होंठों में अपने मूँछों-भरे होंठ गाड़ दिए। मोज़ील ने एकदम ‘फूँ-फूँ’ की और उससे अपने को छुड़ा लिया।

“मैं सुबह ही अपने दाँतों पर ब्रश कर चुकी हूँ—तुम कष्ट न करो।”

त्रिलोचन चिल्लाया, “मोज़ील!”

मोज़ील वैनिटी बैग से छोटा-सा आईना निकालकर अपने होंठ देखने लगी जिनपर लगी गाढ़ी लिपस्टिक पर ख़राशें पड़ गई थीं।

“ख़ुदा की क़सम, तुम अपनी मूँछों और दाढ़ी का सही इस्तेमाल नहीं करते। इनके बाल ऐसे अच्छे हैं कि मेरा नेवी ब्ल्यू स्कर्ट अच्छी तरह साफ़ कर सकते हैं—बस, थोड़ा-सा पेट्रोल लगाने की ज़रूरत होगी।”

त्रिलोचन क्रोध की उस सीमा तक पहुँच चुका था, जहाँ वह बिल्कुल ठण्डा हो गया था। वह आराम से सोफ़े पर बैठ गया। मोज़ील भी आ गई और उसने त्रिलोचन की दाढ़ी खोलनी शुरू कर दी। उसमें जो पिनें लगी थीं, वे उसने एक-एक करके अपने दाँतों में दबा लीं। त्रिलोचन सुन्दर था। जब उसके दाढ़ी-मूँछ नहीं उगी थीं तो लोग उसे खुले केशों में देखकर धोखा खा जाते थे कि वह कोई कम उम्र की सुन्दर लड़की है। मगर अब बालों के इस ढेर ने उसके नैन-नक़्श साड़ियों की तरह अन्दर छिपा लिए थे और इस बात को वह स्वयं भी जानता था। लेकिन वह धार्मिक प्रवृत्ति का एक सुशील युवक था। उसके दिल में धर्म के प्रति सम्मान था। वह नहीं चाहता था कि वह उन चीज़ों को अपने अस्तित्व से अलग कर दे, जिनसे उसके धर्म की पहचान होती थी।

जब दाढ़ी पूरी खुल गई और उसके सीने पर लटकने लगी तो उसने मोज़ील से पूछा, “यह तुम क्या कर रही हो?”

दाँतों में पिनें दबाए वह मुस्करायी, “तुम्हारे बाल बहुत मुलायम हैं। मेरा अनुमान ग़लत था कि इनसे मेरा नेवी ब्ल्यू स्कर्ट साफ़ हो सकेगा। त्रिलोचन! तुम ये मुझे दे दो, मैं इन्हें गूँथकर अपने लिए एक फ़र्स्ट क्लास बटुआ बनवाऊँगी।”

अब त्रिलोचन की दाढ़ी में फिर चिनगारियाँ भड़कने लगीं। वह बड़े गम्भीर स्वर में मोज़ील से बोला, “मैंने आज तक कभी तुम्हारे मज़हब का मज़ाक नहीं उड़ाया, तुम क्यों उड़ाती हो? देखो, किसी की धार्मिक भावना से खेलना अच्छा नहीं होता। मैं यह कभी बर्दाश्त न करता, सिर्फ़ इसलिए करता रहा कि मुझे तुमसे अथाह प्रेम है। क्या तुम्हें इसका पता नहीं?”

मोज़ील ने त्रिलोचन की दाढ़ी से खेलना बन्द कर दिया और बोली, “मुझे मालूम है।”

“फिर?” त्रिलोचन ने अपनी दाढ़ी के बाल बड़ी सफ़ाई से तह किए और मोज़ील के दाँतों से पिनें निकाल लीं।

“तुम अच्छी तरह जानती हो कि मेरा प्रेम बकवास नहीं—मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।”

“मुझे मालूम है।” बालों को एक हल्का-सा झटका देकर वह उठी और दीवार से लटकी हुई तस्वीर की तरफ़ देखने लगी।

“मैं भी लगभग यही फ़ैसला कर चुकी हूँ कि तुमसे शादी करूँगी।”

त्रिलोचन उछल पड़ा, “सच?”

मोज़ील के उन्नाबी होंठ बड़ी मोटी मुस्कराहट के साथ खुले और उसके सफ़ेद मज़बूत दाँत एक क्षण के लिए चमके।

“हाँ।”

त्रिलोचन ने अपनी आधी लिपटी दाढ़ी ही से उसको अपने सीने के साथ भींच लिया।

“तो…तो, कब?”

मोज़ील अलग हट गई।

“जब तुम अपने ये बाल कटवा दोगे।”

त्रिलोचन उस समय ‘जो हो सो हो’ बन गया। उसने कुछ न सोचा और कह दिया, “मैं कल ही कटवा दूँगा।”

मोज़ील फ़र्श पर टेप डांस करने लगी।

“तुम बकवास करते हो त्रिलोचन! तुममें इतनी हिम्मत नहीं है।” उसने त्रिलोचन के दिमाग़ से मज़हब के रहे-सहे ख़याल को बाहर निकाल फेंका।

“तुम देख लोगी।”

“देख लूँगी।” और वह तेजी से आगे बढ़ी।

त्रिलोचन की मूँछों को चूमा और ‘फूँ-फूँ’ करती बाहर निकल गई।

त्रिलोचन ने रात-भर क्या सोचा और वह किन-किन यातनाओं से गुज़रा इसकी चर्चा व्यर्थ है, इसलिए दूसरे दिन उसने फ़ोर्ट में अपने केश कटवा दिए और दाढ़ी भी मुड़वा दी। यह सब कुछ होता रहा और वह आँखें मींचे रहा। जब सारा मामला साफ़ हो गया तो उसकी आँखें खुलीं और वह देर तक अपनी शक्ल शीशे में देखता रहा, जिस पर बम्बई की सुन्दर से सुन्दर लड़की भी कुछ देर के लिए ध्यान देने पर मजबूर हो जाती। इस समय भी त्रिलोचन वही एक विचित्र ठण्डक महसूस करने लगा, जो सैलून से बाहर निकलकर उसको लगी थी। उसने टैरेस पर तेज़-तेज़ चलना शुरू कर दिया, जहाँ टंकियों और नलों की भरमार थी। वह चाहता था कि उस कहानी का शेष भाग उसके दिमाग़ में न आए, लेकिन वह आए बिना न रहा।

बाल कटवाकर वह पहले दिन घर से बाहर नहीं निकला। उसने अपने नौकर के हाथ दूसरे दिन एक चिट लिखकर मोज़ील को भेजी कि उसकी तबीयत ख़राब है, थोड़ी देर के लिए आए। मोज़ील आयी। त्रिलोचन को बालों के बग़ैर देखकर पहले वह क्षण-भर ठिठकी, फिर ‘माई डार्लिंग त्रिलोचन!’ कहकर उसके साथ लिपट गई और उसका सारा चेहरा उन्नाबी कर दिया। उसने त्रिलोचन के साफ़ और मुलायम गालों पर हाथ फेरा, उसके छोटे अंग्रेज़ी क़िस्म के कटे हुए बालों में अपनी उंगलियों से कंघी की और अरबी भाषा में नारे लगाती रही। उसने इतना शोर मचाया कि उसकी नाक से पानी बहने लगा। मोज़ील ने जब इसे महसूस किया तो उसने अपनी स्कर्ट का घेरा उठाया और उसे पोंछना शुरू कर दिया। त्रिलोचन शरमा गया। उसने जब स्कर्ट नीची की तो उसने डपटते हुए कहा, “नीचे कुछ पहन तो लिया करो।”

मोज़ील पर इसका कुछ असर नहीं हुआ। बासी और जगह-जगह से उखड़ी हुई लिपस्टिक लगे होठों से मुस्कराकर उसने केवल इतना ही कहा, “मुझे बड़ी घबराहट होती है—ऐसे ही चलता है।”

त्रिलोचन को वह पहला दिन याद आ गया, जब वह और मोज़ील दोनों टकरा गए थे और आपस में कुछ अजीब तरह गड्डमड्ड हो गए थे। मुस्कराकर उसने मोज़ील को अपने सीने से लगाया।

“शादी कल होगी?”

“ज़रूर।” मोज़ील ने त्रिलोचन की मुलायम ठोढ़ी पर अपने हाथ की पुश्त फेरी।

तय यह हुआ कि शादी पूने में हो। क्योंकि सिविल मैरिज थी, इसलिए उसको दस-पन्द्रह दिन का नोटिस देना था। अदालती कार्रवाई थी, इसलिए उचित समझा गया कि पूना बेहतर है, पास है और त्रिलोचन के वहाँ कई मित्र भी हैं। दूसरे दिन उन्हें प्रोग्राम के अनुसार पूना रवाना हो जाना था। मोज़ील फ़ोर्ट के एक स्टोर में सेल्सगर्ल थी, उससे कुछ दूरी पर टैक्सी स्टेण्ड था। बस, वहीं उसको मोज़ील ने इन्तज़ार करने के लिए कहा था।

निश्चित समय पर त्रिलोचन वहाँ पहुँच गया। डेढ़ घण्टा इन्तज़ार करता रहा, लेकिन वह न आयी। दूसरे रोज़ उसे मालूम हुआ कि वह अपने एक पुराने मित्र के साथ, जिसने नयी-नयी मोटर ख़रीदी थी, देवलाली चली गई थी और अनिश्चित समय तक वहीं रहेगी।

त्रिलोचन पर क्या गुज़री, यह एक बड़ी लम्बी कहानी है। सार इसका यह है कि उसने जी कड़ा कर लिया और उसको भूल गया।

इतने में उसकी मुलाक़ात कृपाल कौर से हो गई और वह उससे प्रेम करने लगा, और कुछ ही समय में उसने अनुभव किया कि मोज़ील बहुत वाहियात लड़की थी, जिसके दिल के साथ पत्थर लगे हुए थे, जो चिड़े के समान एक जगह से दूसरी जगह फुदकता रहता था। उसे इस बात से बड़ा सन्तोष हुआ कि वह मोज़ील से शादी करने की ग़लती न कर बैठा। लेकिन इस पर भी कभी-कभी मोज़ील की याद एक चुटकी की तरह उसके दिल को पकड़ लेती थी और फिर छोड़कर कुदकड़े लगाती ग़ायब हो जाती थी। वह बेशरम थी, बेलिहाज़ थी, उसे किसी की भावनाओं का ख़याल नहीं था, फिर भी वह त्रिलोचन को पसन्द थी। इसलिए वह कभी-कभी उसके बारे में सोचने पर मजबूर हो जाता था कि वह देवलाली में इतने दिनों से क्या कर रही है? उसी आदमी के साथ है, जिसने नयी-नयी कार ख़रीदी थी या उसे छोड़कर किसी दूसरे के पास चली गई है? उसको इस विचार से दुःख होता था कि वह उसके बजाय किसी दूसरे के पास थी, यद्यपि उसको मोज़ील की प्रकृति का पूरा-पूरा ज्ञान था।

वह उस पर सैकड़ों नहीं, हज़ारों रुपए ख़र्च कर चुका था। लेकिन अपनी इच्छा से, वरना मोज़ील महँगी नहीं थी। उसको बहुत सस्ती क़िस्म की चीज़ें पसन्द आती थीं। एक बार त्रिलोचन ने उसे सोने के टाप्स देने का इरादा किया जो उसे बहुत पसन्द थे, लेकिन उसी दुकान में मोज़ील झूठे भड़कीले और बहुत सस्ते आवेजों पर मर मिटी और सोने के टाप्स छोड़कर त्रिलोचन से मिन्नतें करने लगी कि वह उन्हें ख़रीद दे। त्रिलोचन अब तक न समझ सका कि मोज़ील किस प्रकार की लड़की है। किस मिट्टी की बनी है। वह घण्टों उसके साथ लेटी रहती थी, उसको चूमने की इजाज़त देती थी। वह सारा का सारा साबुन की तरह उसके शरीर पर फिर जाता था, लेकिन इससे आगे वह उसको एक इन्च बढ़ने नहीं देती थी। उसको चिढ़ाने के लिए इतना कह देती थी, “तुम सिख हो, मुझे तुमझे घृणा है।”

त्रिलोचन अच्छी तरह जानता था कि मोज़ील को उससे घृणा नहीं थी। यदि ऐसा होता तो वह वह उससे कभी न मिलती। सहनशक्ति उसमें तनिक भी नहीं थी। वह कभी दो वर्ष उसके साथ न गुज़ारती। दो टूक फ़ैसला कर देती। अण्डरवीयर उसको नापसन्द थे, इसलिए कि उनसे उसको उलझन होती थी। त्रिलोचन ने कई बार उसको इनकी अनिवार्यता के बारे में बताया था, शरम-हया का वास्ता दिया था, लेकिन उसने यह चीज़ कभी न पहनी। त्रिलोचन जब उससे शरम-हया की बात करता तो वह चिढ़ जाती थी।

“यह हया-वया क्या बकवास है?—अगर तुम्हें उसका कुछ ख़याल है तो आँखें बन्द कर लिया करो। तुम मुझे यह बताओ, कौन-सा ऐसा लिबास है, जिसमें आदमी नंगा नहीं हो सकता, या जिसमें से तुम्हारी नज़रें पार नहीं हो सकतीं, मुझसे ऐसी बकवास मत किया करो, तुम सिख हो—मुझे मालूम है कि तुम पतलून के नीचे एक सिली-सा अण्डरवीयर पहनते हो, जो निकर से मिलता-जुलता होता है। यह भी तुम्हारी दाढ़ी और सिर के बालों की तरह तुम्हारे मज़हब में शामिल है—शरम आनी चाहिए तुम्हें, इतने बड़े हो गए हो और अब तक यही समझते हो कि तुम्हारा मज़हब अण्डरवीयर में छिपा बैठा है।”

त्रिलोचन को शुरू-शुरू में ऐसी बातें सुनकर क्रोध आया था लेकिन बाद में सोचने-विचारने पर वह कभी-कभी लुढ़क जाता और सोचता कि मोज़ील की बातें शायद ग़लत नहीं हैं। और जब उसने अपने केशों और दाढ़ी का सफ़ाया करा दिया तो उसे सचमुच ऐसा लगा कि वह बेकार इतने दिन बालों का बोझ उठाए-उठाए फिरा, जिसका कुछ मतलब ही नहीं था।

पानी की टंकी के पास पहुँचकर त्रिलोचन रुक गया। मोज़ील को एक मोटी गाली देकर उसने उसके बारे में सोचना बन्द कर दिया। कृपाल कौर एक पवित्र लड़की थी, जिससे उसको प्रेम हो गया था, और जो ख़तरे में थी। वह ऐसे मुहल्ले में थी, जिसमें कट्‌टर क़िस्म के मुसलमान रहते थे और वहाँ दो-तीन वारदातें भी हो चुकी थीं—लेकिन मुसीबत यह थी कि उस मुहल्ले में अड़तालीस घण्टे का कर्फ़्यू था। मगर कर्फ़्यू की कौन परवाह करता है? उस चाल के मुसलमान ही अगर चाहते तो अन्दर ही अन्दर कृपाल कौर और उसकी माँ तथा उसके बाप का बड़ी आसानी से सफ़ाया कर सकते थे।

त्रिलोचन सोचता-सोचता पानी के मोटे नल पर बैठ गया। उसके सिर के बाल अब काफ़ी लम्बे हो गए थे। उसको विश्वास था कि वे एक वर्ष के अन्दर-अन्दर पूरे केशों में बदल जाएँगे। उसकी दाढ़ी तेज़ी से बढ़ रही थी, किन्तु वह उसे बढ़ाना नहीं चाहता था। फ़ोर्ट में एक बारबर था, वह इस सफ़ाई से उसे तराशता था कि तराशी हुई दिखायी नहीं देती थी। उसने अपने नरम और मुलायम बालों में उँगलियाँ फेरीं और एक ठण्डी साँस ली। उठने का इरादा कर ही रहा था कि उसे खड़ाऊँ की कर्कश आवाज़ सुनायी दी। उसने सोचा, कौन हो सकता है? बिल्डिंग में कई यहूदी औरतें थीं, जो सबकी सब घर में खड़ाऊँ पहनती थीं। आवाज़ और क़रीब आती गई। एकाएक उसने दूसरी टंकी के पास मोज़ील को देखा, जो यहूदियों के विशेष ढंग का ढीला-ढाला कुर्ता पहने बड़े ज़ोर की अंगड़ाई ले रही थी—इस ज़ोर की कि त्रिलोचन को महसूस हुआ कि उसके आस-पास की हवा चटख जाएगी। त्रिलोचन पानी के नल पर से उठा। उसने सोचा, यह एकाएक कहाँ से टपक पड़ी—और इस समय टैरेस पर क्या करने आयी है? मोज़ील ने एक और अंगड़ाई ली—अब त्रिलोचन की हड्डियाँ चटखने लगीं। ढीले-ढाले कुर्ते में उसकी मज़बूत छातियाँ धड़कीं—त्रिलोचन की आँखों के सामने कई गोल-गोल और चपटे-चपटे नील उभर आए। वह ज़ोर से खाँसा। मोज़ील ने पलटकर उसकी ओर देखा। कुछ विशेष प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह खड़ाऊँ घसीटती उसके पास आयी और उसकी नन्ही-मुन्नी दाढ़ी देखने लगी, “तुम फिर सिख बन गए, त्रिलोचन?”

दाढ़ी के बाल त्रिलोचन को चुभने लगे। मोज़ील ने आगे बढ़कर उसकी ठोढ़ी के साथ अपने हाथ की पुश्त रगड़ी और मुस्कराकर कहा, “अब यह ब्रुश इस योग्य है कि मेरी नेवी ब्ल्यू स्कर्ट साफ़ कर सके। मगर वह तो वहीं देवलाली में रह गई है।”

त्रिलोचन चुप रहा। मोज़ील ने उसकी बाँह की चुटकी ली। “बोलते क्यों नहीं सरदार साहब?”

त्रिलोचन अपनी पुरानी मूर्खताओं को दोहराना नहीं चाहता था, फिर भी उसने सुबह के धुंधले अँधेरे में देखा कि मोज़ील में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ था, सिर्फ़ वह कुछ कमज़ोर नज़र आती थी। त्रिलोचन ने उससे पूछा, “बीमार रही हो?”

“नहीं।” मोज़ील ने अपने कटे हुए बालों को एक हल्का-सा झटका दिया।

“पहले से कमज़ोर दिखायी देती हो।”

“मैं डाइटिंग कर रही हूँ।” मोज़ील पानी के मोटे नल पर बैठ गई और खड़ाऊँ फ़र्श के साथ बजाने लगी। “तुम, मतलब यह कि अब फिर नये सिरे से सिख बन रहे हो?”

त्रिलोचन ने एक प्रकार की ढिठाई से कहा, “हाँ।”

“मुबारक हो।” मोज़ील ने एक खड़ाऊँ पैर से उतार ली और पानी के नल पर बजाने लगी। “किसी और लड़की से प्रेम करना शुरू कर दिया है?”

त्रिलोचन ने धीमे से कहा, “हाँ।”

“मुबारक हो—इसी बिल्डिंग की है कोई?”

“नहीं।”

“यह बहुत बुरी बात है।” मोज़ील खड़ाऊँ अपनी उँगलियों में उड़सकर उठी। “आदमी को हमेशा अपने पड़ोसियों का ख़याल रखना चाहिए।”

त्रिलोचन चुप रहा। मोज़ील ने उसकी दाढ़ी को अपनी पाँचों उँगलियों से छेड़ा।

“क्या उसी लड़की ने तुम्हें ये बाल बढ़ाने की राय दी है?”

“नहीं।”

त्रिलोचन बड़ी उलझन में था, जैसे कंघा करते-करते उसकी दाढ़ी के बाल आपस में उलझ गए हों। जब उसने ‘नहीं’ कहा तो उसके कहने में तीखापन था। मोज़ील के होंठों पर लिपस्टिक बासी गोश्त की तरह मालूम होती थी। वह मुस्करायी तो त्रिलोचन को ऐसा लगा कि उसके गाँव में झटके की दुकान पर कसाई ने छुरी से गोश्त के दो टुकड़े कर दिए हों। मुस्कराने के बाद वह हँसी।

“तुम अब यह दाढ़ी मुंड़ा डालो तो किसी की भी क़सम ले लो, मैं तुमसे शादी कर लूँगी।”

त्रिलोचन के जी में आयी कि उससे कह दे कि वह एक बड़ी शरीफ़, सुशील और लजीली क्वांरी लड़की से प्रेम कर रहा है और उससे ही शादी करेगा। मोज़ील उसके मुक़ाबले में निर्लज्ज है, बदसूरत, बेवफ़ा और कपटी है। लेकिन वह इस तरह का ओछा आदमी नहीं था। उसने मोज़ील से केवल इतना ही कहा, “मोज़ील, मैं अपनी शादी का फ़ैसला कर चुका हूँ। मेरे गाँव की एक सीधी-सादी लड़की है, जो मज़हब की पाबन्द है। उसी के लिए मैंने बाल बढ़ाने का फ़ैसला कर लिया है।”

मोज़ील सोच-विचार की आदी नहीं थी; लेकिन उसने कुछ देर सोचा और खड़ाऊँ पर आधे दायरे में घूमकर त्रिलोचन से कहा, “अगर वह मज़हब की पाबन्द है तो वह तुम्हें कैसे स्वीकार करेगी? क्या उसे मालूम नहीं कि तुम एक बार अपने बाल कटवा चुके हो?”

“उसको अभी मालूम नहीं—दाढ़ी मैंने तुम्हारे देवलाली जाने के बाद ही बढ़ानी शुरू कर दी थी, केवल प्रायश्चित्त के रूप में। उसके बाद मेरी कृपाल कौर से मुलाक़ात हुई। लेकिन मैं पगड़ी इस तरह से बाँधता हूँ कि सौ में से एक ही आदमी मुश्किल से जान सकता है कि मेरे केश कटे हुए हैं। लेकिन अब ये बहुत जल्दी ठीक हो जाएँगे।”

त्रिलोचन ने अपने मुलायम बालों में उँगलियों से कंघी करना शुरू की।

“यह बहुत अच्छा है—लेकिन ये कम्बख़्त मच्छर यहाँ भी मौजूद हैं। देखो, किस ज़ोर से काटा है!”

त्रिलोचन ने दूसरी ओर देखना शुरू कर दिया। मोज़ील ने उस जगह, जहाँ मच्छर ने काटा था, उँगली से थूक लगाया और कुर्ता छोड़कर सीधी खड़ी हो गई।

“कब हो रही है तुम्हारी शादी?”

“अभी कुछ पता नहीं।” यह कहकर त्रिलोचन चिन्तित हो गया।

कुछ देर तक चुप्पी रही, फिर मोज़ील ने उसकी चिन्ता का अनुमान लगाकर बड़ी गम्भीरता से पूछा, “त्रिलोचन, तुम क्या सोच रहे हो?”

त्रिलोचन को उस समय किसी हितैषी की ज़रूरत थी, चाहे वह मोज़ील ही क्यों न हो। इसलिए उसने उसको सारा क़िस्सा सुना दिया। मोज़ील हँसी, “तुम अव्वल दर्जे के ईडियट हो। जाओ, उसको ले आओ, ऐसी क्या मुश्किल है?”

“मुश्किल! मोज़ील, तुम इस मामले की नज़ाकत को कभी नहीं समझ सकतीं—किसी भी मामले की नज़ाकत को समझने के लिए तुम बहुत ही छिछली लड़की हो। यही वजह है कि मेरे और तुम्हारे सम्बन्ध टूट गए, जिसका मुझे सारी उम्र अफ़सोस रहेगा।”

मोज़ील ने ज़ोर से अपनी खड़ाऊँ पानी के नल के साथ मारी, “अफ़सोस…बी डेम्ड…सिली, ईडियट! तुम यह सोचो कि तुम्हारी उसको…क्या नाम है उसका…उस मुहल्ले से बचा लाना कैसे हो…और तुम बैठ गए हो सम्बन्धों का रोना रोने… तुम्हारे-मेरे सम्बन्ध कभी बने नहीं रह सकते थे… तुम एक सिली क़िस्म के आदमी हो… और बहुत डरपोक! मुझे निडर आदमी चाहिए… लेकिन छोड़ो इन बातों को… चलो, आओ, तुम्हारी उसको ले आएँ।”

उसने त्रिलोचन की बाँह पकड़ ली। त्रिलोचन ने घबराहट में उससे पूछा, “कहाँ से?”

“वहीं से, जहाँ वह है। मैं उस मुहल्ले की एक-एक ईंट को जानती हूँ—चलो, आओ मेरे साथ।”

“मगर सुनो तो—कर्फ़्यू है।”

“मोज़ील के लिए नहीं—चलो, आओ।” व

ह त्रिलोचन को खींचती उस दरवाज़े तक ले गई, जो नीचे सीढ़ियों की ओर खुलता था। दरवाज़ा खोलकर वह उतरने वाली थी कि रुक गई और त्रिलोचन की दाढ़ी की ओर देखने लगी। त्रिलोचन ने पूछा, “क्या बात है?”

मोज़ील ने कहा, “यह तुम्हारी दाढ़ी… लेकिन, ख़ैर, ठीक है। इतनी बड़ी नहीं है—नंगे सिर चलोगे तो कोई नहीं समझेगा कि तुम सिख हो।”

“नंगे सिर?” त्रिलोचन ने कुछ बौखलाकर कहा, “मैं नंगे सिर नहीं जाऊँगा।”

मोज़ील ने बड़ी भोली सूरत बनाकर पूछा, “क्यों?”

त्रिलोचन ने अपने बालों की एक लट ठीक की और बोला, “तुम समझती नहीं हो। मेरा वहाँ पगड़ी के बिना जाना ठीक नहीं।”

“क्यों ठीक नहीं?”

“तुम समझती क्यों नहीं हो उसने अभी तक मुझे नंगे सिर नहीं देखा—वह यही समझती है कि मेरे केश हैं। मैं उसे यह भेद नहीं जानने देना चाहता।”

मोज़ील ने ज़ोर से अपनी खड़ाऊँ दरवाज़े की दहलीज पर मारी, “तुम सचमुच अव्वल दर्जे के ईडियट हो… गधे कहीं के! उसकी ज़िन्दगी का सवाल है—क्या नाम है तुम्हारी उस कौर का, जिससे तुम प्रेम करते हो?”

त्रिलोचन ने उसे समझाने की कोशिश की, “मोज़ील, वह बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति की लड़की है—अगर उसने मुझे नंगे सिर देख लिया तो मुझसे नफ़रत करने लगेगी।”

मोज़ील चिढ़ गई। “ओह, तुम्हारा प्रेम बी डेम्ड—मैं पूछती हूँ, क्या सारे सिख तुम्हारी तरह के बेवक़ूफ़ होते हैं?—उसकी जान ख़तरे में है और तुम कहते हो कि पगड़ी ज़रूर पहनोगे और शायद अपना अण्डरवीयर भी, जो निकर से मिलता-जुलता है!”

त्रिलोचन ने कहा, “वह तो मैं हर वक़्त पहने रहता हूँ।”

“बहुत अच्छा करते हो लेकिन अब तुम यह सोचो कि मामला उस मुहल्ले का है, जहाँ मियाँ भाई ही मियाँ भाई रहते हैं, और वह भी बड़े-बड़े दादा। तुम पगड़ी पहनकर गए तो वहीं क़त्ल कर दिए जाओगे?”

त्रिलोचन ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया, “मुझे उसकी परवाह नहीं। अगर मैं तुम्हारे साथ वहाँ जाऊँगा तो पगड़ी पहनकर जाऊँगा। मैं अपने प्रेम को ख़तरे में डालना नहीं चाहता।”

मोज़ील झुँझला गई। उसमें इस ज़ोर से उफ़ान आया कि उसकी छातियाँ आपस में भिड़भिड़ा गईं। “गधे कहीं के! तुम्हारा प्रेम ही कहाँ रहेगा जब तुम न रहोगे। तुम्हारी वह… क्या नाम है उस भंड़वी का… जब वह न रहेगी, उसका परिवार तक न रहेगा। तुम सिख हो… ख़ुदा की क़सम, तुम सिख हो और बड़े ईडिएट हो।”

त्रिलोचन भिन्ना गया। “बकवास न करो।”

मोज़ील ज़ोर से हँसी और उसने अपनी नरम रोएंदार बाँहें उसके गले में डाल दीं और थोड़ा-सा झूलकर बोली, “डार्लिंग, चलो, जैसी तुम्हारी मर्ज़ी। आओ, पगड़ी पहन आओ; मैं नीचे बाज़ार में खड़ी हूँ।”

यह कहकर वह नीचे जाने लगी। त्रिलोचन ने उसे रोका, “तुम कपड़े नहीं पहनोगी?”

मोज़ील ने अपने सिर को झटका दिया। “नहीं…चलेगा इसी तरह।”

यह कहकर वह खट-खट करती नीचे उतर गई। त्रिलोचन निचली मंज़िल की सीढ़ियों पर भी उसकी खड़ाऊँओं की आवाज़ सुनता रहा। फिर उसने अपने लम्बे बाल उँगलियों से पीछे की तरफ़ समेटे और नीचे उतरकर अपने फ़्लैट में चला गया। जल्दी-जल्दी उसने कपड़े बदले। पगड़ी बँधी-बँधाई रखी थी, उसे अच्छी तरह सिर पर जमाया और फ़्लैट के दरवाज़े में कुँजी घुमाकर नीचे उतर गया।

बाहर फ़ुटपाथ पर मोज़ील अपनी तगड़ी टाँगें चौड़ी किए सिगरेट पी रही थी, बिलकुल पुरुषों की तरह। जब त्रिलोचन उसके पास पहुँचा तो उसने शरारत से मुँह भरकर धुआँ उसके मुँह पर दे मारा। त्रिलोचन ने ग़ुस्से में कहा, “तुम बहुत ज़लील हो।”

मोज़ील मुस्करायी। “यह तुमने कोई नई बात नहीं कही… इससे पहले मुझे और भी कई लोग ज़लील कह चुके हैं।” फिर उसने त्रिलोचन की पगड़ी की ओर देखा। “यह पगड़ी तुमने सचमुच अच्छी तरह बाँधी है। ऐसा मालूम होता है, तुम्हारे केश हैं।”

बाज़ार बिल्कुल सुनसान था, केवल हवा चल रही थी और वह भी बहुत धीरे-धीरे, जैसे वह भी कर्फ़्यू से डरती हो। बत्तियाँ जल रही थीं, लेकिन उनका प्रकाश बीमार-सा मालूम होता था। आम तौर पर इस समय ट्रेनें चलनी शुरू हो जाती थीं और लोगों का आवागमन भी शुरू हो जाता था। अच्छी-ख़ासी चहल-पहल हो जाती थी; लेकिन अब ऐसा मालूम होता था कि सड़क पर से न कोई आदमी गुज़रा है और न गुज़रेगा। मोज़ील आगे-आगे थी। फ़ुटपाथ के पत्थरों पर उसकी खड़ाऊँ खट-खट कर रही थी। यह आवाज़ उस निस्तब्ध वातावरण में एक बहुत बड़ा शोर थी। त्रिलोचन दिल ही दिल में मोज़ील को बुरा-भला कह रहा था कि दो मिनट में और कुछ नहीं तो अपनी बेहूदा खड़ाऊँ उतारकर कोई और चीज़ पहन सकती थी। उसने चाहा कि मोज़ील से कहे, खड़ाऊँ उतार दो और नंगे पाँव चलो मगर उसे विश्वास था कि वह कभी नहीं मानेगी, इसलिए चुप रहा।

त्रिलोचन बहुत डरा हुआ था, कोई पत्ता भी खड़कता तो उसका दिल धक् से रह जाता; लेकिन मोज़ील सिगरेट का धुआँ उड़ाती बिलकुल निडरता से चली जा रही थी, मानो बेफ़िक्री से चहलक़दमी कर रही हो। चौक में पहुँचे तो पुलिस मैन की आवाज़ गरजी, “ऐ, किधर जा रहा है?”

त्रिलोचन डर गया। मोज़ील आगे बढ़ी और पुलिस मैन के पास पहुँच गई और अपने बालों को एक हल्का-सा झटका देकर कहा, “ओह, तुम, हमको पहचाना नहीं? तुमने…मोज़ील…” फिर उसने एक गली की तरफ़ इशारा किया, “उधर, उस बाजू हमारा बहन रहता है, उसकी तबीयत ख़राब है… डाक्टर लेकर जा रहा है।”

सिपाही उसे पहचानने की कोशिश कर रहा था कि उसने न जाने कहाँ से सिगरेट की डिबिया निकाली और एक सिगरेट निकालकर उसको दिया। “लो, पियो!”

सिपाही ने सिगरेट ले लिया। मोज़ील ने अपने मुँह से सुलगा हुआ सिगरेट निकाला और उसने कहा, “हीयर इज लाइट।”

सिपाही ने सिगरेट का कश लिया, मोज़ील ने दाईं आँख उसको और बाईं आँख त्रिलोचन को मारी और खट-खट करती उस गली की ओर चल दी, जिसमें से गुज़रकर उन्हें मुहल्ले में जाना था। त्रिलोचन चुप था, लेकिन वह महसूस कर रहा था कि मोज़ील कर्फ़्यू की अवज्ञा करके एक विचित्र प्रकार की प्रसन्नता का अनुभव कर रही है। ख़तरों से खेलना उसे पसन्द था। जब वह जुहू पर उसके साथ जाती थी तो उसके लिए एक मुसीबत बन जाती थी। समुद्र की बड़ी-बड़ी लहरों से टकराती-भिड़ती वह दूर तक निकल जाती थी और उसको हमेशा इस बात का धड़का रहता था कि कहीं वह डूब न जाए। जब वापस आती तो उसका शरीर नीलों और घावों से भरा होता था, और उसे इसकी कोई परवाह नहीं होती थी।

मोज़ील आगे-आगे थी और त्रिलोचन उसके पीछे-पीछे डर-डर के इधर-उधर देखता चल रहा था कि कहीं उसकी बग़ल में से कोई छुरीमार न निकल आए। सहसा मोज़ील रुक गई। जब त्रिलोचन पास आया तो उसने उसे समझाने के स्वर में कहा, “डियर त्रिलोचन, इस तरह डरना अच्छा नहीं। तुम डरोगे तो ज़रूर कुछ न कुछ होके रहेगा। सच कहती हूँ, यह मेरी आज़मायी हुई बात है।”

त्रिलोचन चुप रहा। जब वे उस गली को पार करके दूसरी गली में पहुँचे, जो उस मुहल्ले की ओर निकलती थी, जिसमें कृपाल कौर रहती थी तो मोज़ील चलते-चलते एकदम रुक गई। कुछ दूरी पर बड़े इतमीनान से एक मारवाड़ी की दुकान लूटी जा रही थी। एक क्षण के लिए उसने मामले को समझने की कोशिश की और त्रिलोचन से कहा, “कोई बात नहीं—चलो, आओ।”

दोनों चलने लगे। एक आदमी, जो सिर पर बहुत बड़ी परात उठाए चला आ रहा था, त्रिलोचन से टकरा गया। परात गिर गई। उस आदमी ने ध्यान से त्रिलोचन की ओर देखा। साफ़ मालूम होता था कि वह सिख है। उस आदमी ने जल्दी से अपने नेफ़े में हाथ डाला कि मोज़ील आ गई लड़खड़ाती हुई, मानो नशे में चूर हो। उसने ज़ोर से उस आदमी को धक्का दिया और नशीले स्वर में कहा, “ऐ, क्या करता है—अपने भाई को मारता है! हम इससे शादी बनाने को माँगता है!” फिर त्रिलोचन की ओर मुड़ी। “करीम, उठाओ यह परात और रख दो इसके सिर पर।”

उस आदमी ने नेफ़े से अपना हाथ हटा लिया और ललचायी नज़रों से मोज़ील की ओर देखा। फिर आगे बढ़कर अपनी कोहनी से उसकी छातियों में एक टहोका दिया। “ऐश कर साली, ऐश कर।” फिर उसने परात उठायी और यह जा, वह जा।

त्रिलोचन बड़बड़ाया, “हरामज़ादे ने कैसी ज़लील हरकत की!” मो

ज़ील ने अपनी छातियों पर हाथ फेरा। “कोई ज़लील हरकत नहीं, सब चलता है। आओ।” और वह तेज़-तेज़ चलने लगी।

त्रिलोचन ने भी क़दम तेज़ कर दिए। वह गली पार करके वे दोनों उस मुहल्ले में पहुँच गए, जहाँ कृपाल कौर रहती थी। मोज़ील ने पूछा, “किस गली में जाना है?”

त्रिलोचन ने धीरे-से कहा, “तीसरी गली में, नुक्कड़ वाली बिल्डिंग।”

मोज़ील ने उसी ओर चलना शुरू कर दिया। उस ओर बिलकुल निस्तब्धता थी। आसपास इतनी घनी आबादी थी, लेकिन किसी बच्चे तक के रोने की आवाज़ सुनायी नहीं देती थी। जब वे उस गली के पास पहुँचे तो कुछ गड़बड़ दिखायी दी। एक आदमी बड़ी तेज़ी से इस किनारे वाली बिल्डिंग में घुस गया। इस बिल्डिंग से थोड़ी देर के बाद तीन आदमी निकले। फ़ुटपाथ पर उन्होंने इधर-उधर देखा और बड़ी फुर्ती से दूसरी बिल्डिंग में चले गए। मोज़ील ठिठक गई। उसने त्रिलोचन को इशारा किया कि अँधरे में हो जाए, फिर उसने धीमे से कहा, “त्रिलोचन डियर, यह पगड़ी उतार दो।”

त्रिलोचन ने जवाब दिया, “मैं यह किसी सूरत में भी नहीं उतार सकता।”

मोज़ील झुंझला गई। “तुम्हारी मर्जी, लेकिन तुम देखते नहीं, सामने क्या हो रहा है?”

सामने जो कुछ हो रहा था, दोनों की आँखों के सामने था—साफ़ गड़बड़ हो रही थी और बड़ी रहस्यमय ढंग की। बाएँ हाथ की बिल्डिंग से जब दो आदमी अपनी पीठ पर बोरियाँ उठाए निकले तो मोज़ील सारी की सारी काँप गई। उनमें से कुछ गाढ़ी-गाढ़ी तरल चीज़ टपक रही थी। मोज़ील अपने होंठ काटने लगी। शायद वह कुछ सोच रही थी। जब वे दोनों आदमी गली के दूसरे सिरे पर पहुँचकर ग़ायब हो गए तो उसने त्रिलोचन से कहा, “देखो ऐसा करो—मैं भागकर नुक्कड़ वाली बिल्डिंग में जाती हूँ, तुम मेरे पीछे आना, बड़ी तेज़ी से, जैसे तुम मेरा पीछा कर रहे हो, समझे? मगर यह सब एकदम जल्दी-जल्दी में हो।”

मोज़ील ने त्रिलोचन के जवाब की प्रतीक्षा न की और नुक्कड़ वाली बिल्डिंग की ओर खड़ाऊँ खटखटाती हुई तेज़ी से भागी। त्रिलोचन भी उसके पीछे दौड़ा। कुछ ही क्षणों में वे बिल्डिंग के अन्दर थे। सीढ़ियों के पास त्रिलोचन हाँफ रहा था, मगर मोज़ील बिलकुल ठीक-ठाक थी। उसने त्रिलोचन से पूछा, “कौन-सा माला?”

त्रिलोचन ने अपने सूखे होंठ पर जीभ भेरी। “दूसरा।”

“चलो।” यह कहकर यह खट-खट सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। त्रिलोचन उसके पीछे हो लिया।

सीढ़ियों पर ख़ून के बड़े-बड़े धब्बे पड़े हुए थे। उनको देख-देखकर उसका ख़ून सूख रहा था। दूसरे माले पर पहुँचे तो कॉरीडोर में कुछ दूर जाकर त्रिलोचन ने धीमे से एक दरवाज़े को खटखटाया। मोज़ील दूर सीढ़ियों के पास खड़ी रही। त्रिलोचन ने एक बार फिर से दरवाज़ा खटखटाया और उसके साथ मुँह लगाकर आवाज़ दी, “महंगासिंह जी, महंगासिंह जी!”

अन्दर से बारीक-सी आवाज़ आयी, “कौन!”

“त्रिलोचन”

दरवाज़ा धीरे से खुला। त्रिलोचन ने मोज़ील को इशारा किया। वह लपककर आयी। दोनों अन्दर चले गए। मोज़ील ने अपनी बग़ल में एक दुबली-पतली लड़की को देखा, जो बहुत ही भयभीत थी। मोज़ील ने उसे एक क्षण के लिए ध्यान से देखा। पतले-पतले नक़्श थे। नाक बहुत ही प्यारी थी, लेकिन ज़ुकाम से ग्रस्त। मोज़ील ने उसे अपने चौड़े-चकले सीने से लगाया और अपने ढीले-ढाले कुर्ते का पल्ला उठाकर उसकी नाक पोंछी। त्रिलोचन लाल पड़ गया। मोज़ील ने कृपाल कौर से बड़े स्नेह से कहा, “डरो नहीं, त्रिलोचन तुम्हें लेने आया है।”

कृपाल कौर ने त्रिलोचन की ओर अपनी सहमी हुई आँखों से देखा और मोज़ील से अलग हो गई। त्रिलोचन ने उससे कहा, “सरदार साहब से कहो कि जल्दी तैयार हो जाएँ, और माताजी से भी, लेकिन जल्दी करो।”

इतने में ऊपर की मंज़िल से ज़ोर-ज़ोर की आवाज़ें आने लगीं, जैसे कोई चीख़-चिल्ला रहा हो और धींगा-मुश्ती हो रही हो। कृपाल कौर के मुँह से हल्की-सी चीख़ निकल गई।

“उसे पकड़ लिया उन्होंने!”

त्रिलोचन ने पूछा, “किसे?”

कृपाल कौर उत्तर देने ही वाली थी कि मोज़ील ने उसको बाँह से पकड़ा और घसीटकर एक कोने मे ले गई।

“पकड़ लिया तो अच्छा हुआ। तुम ये कपड़े उतार दो।”

कृपाल कौर अभी कुछ सोचने भी न पायी थी कि मोज़ील ने पलक झपकते में उसकी कमीज़ उतारकर एक तरफ़ रख दी। कृपाल कौर ने अपनी बाँहों में अपने नंगे शरीर को छिपा लिया तथा और भयभीत हो गई। त्रिलोचन ने मुँह दूसरी ओर फेर लिया। मोज़ील ने अपना ढीला-ढाला कुर्ता उतारकर उसे पहना दिया, और स्वयं नंग-धड़ंग हो गई। फिर जल्दी-जल्दी उसने कृपाल कौर का नाड़ा ढीला किया और उसकी सलवार उतारकर त्रिलोचन से बोली, “जाओ, इसे ले जाओ—लेकिन ठहरो!” यह कहकर उसने कृपाल कौर के बाल खोल दिए और उससे कहा, “जाओ—जल्दी निकल जाओ।”

त्रिलोचन ने उससे कहा, “आओ।” लेकिन फिर तुरन्त ही रुक गया। पलटकर उसने मोज़ील की ओर देखा, जो धुले हुए दीदे की तरह नंगी खड़ी थी। उसकी बाँहों पर महीन-महीन बाल सरदी के कारण जागे हुए थे।

“तुम जाते क्यों नहीं?” मोज़ील के स्वर में चिड़चिड़ापन था।

त्रिलोचन ने धीमे से कहा, “इसके माँ-बाप भी तो हैं।”

“जहन्नुम में जाएँ वे—तुम इसे ले जाओ।”

“और तुम?”

“मैं आ जाऊँगी।”

एकदम ऊपर की मंज़िल से कई आदमी धड़ाधड़ नीचे उरतने लगे और फिर दरवाज़े पर आकर उन्होंने उसे कूटना शुरू कर दिया, जैसे वे उसे तोड़ ही डालेंगे। कृपाल कौर की अँधी माँ और उसका अपाहिज बाप दूसरे कमरे में पड़े कराह रहे थे। मोज़ील ने कुछ सोचा और बालों को एक हल्का-सा झटका देकर त्रिलोचन से कहा, “सुनो, अब सिर्फ़ एक ही तरकीब मेरी समझ में आती है। मैं दरवाज़ा खोलती हूँ…”

कृपाल कौर के सूखे कण्ठ से चीख़ निकलते-निकलते रहे गई, “दरवाज़ा!”

मोज़ील त्रिलोचन की ओर मुँह किए कहती रही, “मैं दरवाज़ा खोलकर बाहर निकलती हूँ—तुम मेरे पीछे भागना। मैं ऊपर चढ़ जाऊँगी और तुम भी ऊपर चले आना। ये लोग जो दरवाज़ा तोड़ रहे हैं, सब कुछ भूल जाएँगे और हमारे पीछे चले आएँगे।”

त्रिलोचन ने पूछा, “फिर?”

मोज़ील ने कहा, “यह तुम्हारी—क्या नाम है इसका—मौक़ा पाकर निकल जाए। इस वेश में इसे कोई कुछ नहीं कहेगा।”

त्रिलोचन ने जल्दी-जल्दी कृपाल को सारी बात समझा दी। मोज़ील ज़ोर से चिल्लायी। दरवाज़ा खोला और धड़ाम से बाहर लोगों पर जा गिरी। सब बौखला गए। उठकर वह ऊपर सीढ़ियों की ओर लपकी। त्रिलोचन उसके पीछे भागा। सब एक ओर हट गए। मोज़ील अंधाधुंध सीढ़ियाँ चढ़ रही थी—खड़ाऊँ उसके पैरों में थी। वे लोग, जो दरवाज़ा तोड़ने की कोशिश कर रहे थे, सम्भलकर उनके पीछे दौड़े। एकाएक मोज़ील का पाँव फिसल गया और ऊपर के जीने से वह कुछ इस तरह लुढ़की कि हर पथरीले जीने से टकराती, लोहे के जंगले से उलझती नीचे आ गिरी—पथरीले फ़र्श पर। त्रिलोचन एकदम नीचे उतरा। झूलकर उसने देखा तो उसके नाक से ख़ून बह रहा था, मुँह से ख़ून बह रहा था, कानों से ख़ून निकल रहा था। वे जो दरवाज़ा तोड़ने आए थे, इर्द-गिर्द जमा हो गए। किसी ने भी नहीं पूछा कि क्या हुआ। सब चुप थे और मोज़ील के नंगे शरीर को देख रहे थे, जिस पर जगह-जगह ख़राशें पड़ी थीं। त्रिलोचन ने उसकी बाँह हिलायी और आवाज़ दी, “मोज़ील-मोज़ील!”

मोज़ील ने अपनी बड़ी-बड़ी यहूदी आँखें खोलीं, जो बीर बहूटी की तरह लाल हो रही थीं और मुस्करायी। त्रिलोचन ने अपनी पगड़ी उतारी और खोलकर उसका नंगा शरीर ढक दिया। मोज़ील फिर मुस्करायी और आँख मारकर मुँह से ख़ून के बुलबुले छोड़ती हुई त्रिलोचन से बोली, “जाओ, देखो मेरा अण्डरवीयर वहाँ है कि नहीं। मेरा मतलब है कि वह…”

त्रिलोचन उसका मतलब समझ गया, लेकिन उसने उठना न चाहा। इस पर मोज़ील ने क्रोध से कहा, “तुम सचमुच सिख हो…जाओ, देखकर आओ।”

त्रिलोचन उठकर कृपाल कौर के फ़्लैट की ओर चला गया। मोज़ील ने अपनी धुंधली आँखों से अपने आसपास खड़े लोगों की ओर देखा और कहा, “यह मियाँ भाई… लेकिन बहुत दादा क़िस्म का… मैं इसे सिख कहा करती हूँ।”

त्रिलोचन वापस आ गया। उसने आँखों ही आँखों में मोज़ील को बता दिया कि कृपाल कौर जा चुकी है। मोज़ील ने संतोष की साँस ली—लेकिन ऐसा करने से बहुत-सा ख़ून उसके मुँह से बह निकला और “डैम्इट…” यह कहकर उसने अपनी रोयेंदार कलाई से अपना मुँह पोंछा और त्रिलोचन की ओर देखकर बोली, “आल राइट डार्लिंग—बाई-बाई।”

त्रिलोचन ने कुछ कहना चाहा, लेकिन शब्द उसके कण्ठ में ही अटक गए।

मोज़ील ने अपने शरीर से त्रिलोचन की पगड़ी हटायी।

“ले जाओ इसको, अपने इस मज़हब को।” और उसकी बाँह उसकी मज़बूत छातियों पर निर्जीव होकर गिर पड़ी।

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Book by Saadat Hasan Manto:

सआदत हसन मंटो
सआदत हसन मंटो (11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955) उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए।