‘Muhabbat Ka Hafta’, a poem by Manoj Meek
प्रेम ऋतुओं के देश में
मुहब्बत का हफ़्ता?!
हैरान हैं अप्सराएँ
राधा, मीरा
श्याम और सुदामा
परम के चरम तक
काष्ठा से कल्प तक
सती से सावित्री तक
प्रेम गाढ़ा होता रहा
सौन्दर्य के गान का
रसों की खान का
संयोग से, वियोग से
शृंगार किया रसखान ने
प्रीत के काव्यकाल में
रति के स्थायी सवाल में
आलम्बन और अनुभाव में
संचारी रहा संसार में
समय प्रेम को
बाँध नहीं पाया
जग सीमाएँ
माप नहीं पाया
घृणा इसे लाँघ नहीं पायी
प्रेम अबाध था
असीमित है और
अविरल बहता रहेगा
हमारे मूक मन की
आकाशगंगा से प्रतिपल
तुम्हारे वाचाल तन की
सूक्ष्म शिरा से
अन्तहीन अनन्त के
आनन्दित तलों पर..!
〽️
© मनोज मीक
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