मेरा माँ मैला कमाती थी
बाप बेगार करता था
और मैं मेहनताने में मिली जूठन को
इकट्ठा करता था, खाता था।
आज बदलाव इतना आया है कि
जोरू मैला कमाने गई है।
बेटा स्कूल गया है और
मैं कविता लिख रहा हूँ।
इस तथ्य को बचपन में ही
जान लिया था मैंने कि
पढ़ने-लिखने से कुजात
सुजात नहीं हो जाता,
कि पेट और पूँछ में
एक गहरा सम्बन्ध है,
कि पेट के लिए रोटी ज़रूरी है
और रोटी के लिए पूँछ हिलाना
उतना ही ज़रूरी है।
इसीलिए जब किसी बात पर बेटे को
पूँछ तान ग़ुर्राते देखता हूँ
मुझे ग़ुस्सा आता है
साथ ही साथ डर भी लगता है
क्योंकि ग़ुर्राने का सीधा-सपाट अर्थ
बग़ावत है।
और बग़ावत
महाजन की रखैल नहीं
जिसे जी चाहा नाम दे दो, रंग दे दो
और न ही हथेली का पूआ
जिसे मुँह खोलो, गप्प खा लो
आज
आज़ादी की आधी सदी के बाद भी
हम ग़ुलाम हैं
पैदायशी ग़ुलाम
जिनका धर्म चाकरी है
और बेअदबी पर
कँटीले डंडे की चोट
थूथड़ पर खाना है या
भूखा मरना है।
मेरी ख़ुद की थूथड़ पर
अनगिनत चोटों के निशान हैं
जिन्हें अपने बेटे के चेहरे पर
नहीं देखना चाहता
बस इसीलिए उसकी ग़ुर्राहट पर
मुझे ग़ुस्सा आता है
साथ ही साथ डर भी लगता है।
मरते समय बाप ने
डबडबाई आँखों से कहा था कि बेटे
इज़्ज़त, इंसाफ़ और बुनियादी हक़ूक़
सबके सब आदमी के आभूषण हैं
हम ग़ुलामों के नहीं
मेरी बात मानो—
अपने वंश के हित में
आदमी बनने का ख़्वाब छोड़ दो
और चुप रहो।
तब से लेकर आज तक
मैं चुप हूँ
सुलगते बुत की तरह चुप।
लेकिन जब किसी कुठौर चोट पर
बेटे को फफकते देखता हूँ तो
सूखे घाव दुसियाने लगते हैं
बूढ़ा ख़ून हरकत में आ जाता है
और मन किसी बिगड़ैल भैंसे-सा
जूआ तोड़ने को फुँकार उठता है।
मलखान सिंह की कविता 'सुनो ब्राह्मण'