‘Mujhmein Kuchh Nasha Sa Behta Hai’, a poem by Bhupendra Singh Khidia
बहता है, हवा सा बहता है
मुझमें कुछ नशा सा बहता है
अंदर है समंदर अंत तलक
दरिया तो ज़रा सा बहता है
भटकी-भटकी आँखों में तो
सपना भी बड़ा सा बहता है
साँसें भी सुनायी दे जातीं
अब मौन नवा सा बहता है
दुःख की बीमारी मरती है
यूँ मौज दवा सा बहता है
छम-छम मस्ती लो मुझसे
अंदर ही चौमासा बहता है
अहं ब्रम्हास्मि! कौन खुदा?
ये शोर हवा सा बहता है
जब से अपने पर मुग्ध हुए
तब से, झरना सा बहता है
रसना पर है आंनद ‘समय’
रस भी जमना सा बहता है