‘Hindi Mukriyan’ by Bhupendra Singh Khidia
रात पड़े ही दरस दिखावै।
भोर चढ़े परदेश सिधावै॥
छुप कर खावै भोजन नोच।
ए सखि साजन, नहिं ‘कॉकरोच’॥
काले कुन्तल के छत्तरों से।
नाद उठा उतरे जोरों से॥
दिन देखे नहीं देखे रात।
ए सखि साजन, नहिं ‘बरसात’॥
झूठा-झूठा वचन सुनावै।
बात पुरानी भूल ही जावै॥
दो पल को ही वांकों प्यार।
ए सखि साजन, नहिं ‘सरकार’॥
प्रीत को छल कर अंग लगावै।
नेह चुरावै फिर उड़ि जावै॥
फिर दूजै की आतम चक्खी।
ए सखि साजन, नहिं ‘मधुमक्खी’॥
सबकी करे गजब मनुहार।
बार-बार अरुँ बारम्बार॥
कहे घर मौरे आओ राजा।
ए सखि साजन, नहीं ‘दरवाजा’॥
पास रहे हृदय के हरदम।
मान बढ़ावै करे नहीं कम॥
गर्दन से लिपटे ये ताला।
ए सखि साजन, नहिं ‘गलमाला’॥
चार-चार को प्रेम बढ़ावै।
चार-चार आपस हिं लड़ावै॥
उल्टे-सीधे भर दिए कान।
ए सखि साजन, नहिं ‘भगवान’॥
भेद-भेद कर ना पहचाने।
सबको एक सरीखा माने॥
इसमें नहीं कोई संशय।
ए सखि साजन, नहिं ‘विधालय’॥
छाती चौड़ी कर के घूमें।
फँसा हुआ है चक्करव्यूह में॥
कठिनाई से भरता पेट।
ए सखि साजन, नहिं ‘लिटरेट’॥
इक पल भी बिन रहा न जाए।
पल में क्या-क्या ना दिखलाए॥
अब तो जरूरी, का करें साईं?
ए सखि साजन, नहिं ‘वाईफाई’॥
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