मुमकिन है,
मैं सदा इतना पागल ना रहूँ,
तुम ना रहो इतनी बावरी

मुमकिन है,
मैं हो जाऊँ थोड़ा दुनियादार,
तुम हो जाओ थोड़ी सयानी,
थोड़ी होशियार

मुमकिन है,
मुझको रहें याद
शहर के सारे रस्ते
और लगूँ भूलने,
गीतों के अंतरे
मुमकिन है,
तुमको रहें याद
सारे ज़रूरी नाम,
और लगो भूलने
इंशा का क़लाम

मुमकिन है,
किसी दिन
सुबह-सुबह
बिन बोसे
तुम छोड़ दो घर,
चंद पैसे औ’ काम के ख़ातिर
शाम वाली इक जाम के ख़ातिर
मैं भी भटकूँ,
होऊँ दर-बदर

मुमकिन है,
किसी शब, तुम मेरे गले लगो
और, पहले वाली बात ना हो,
तुमने लाया हो कोई सुंदर वास
और गुलाब लाना मुझे याद ना हो,
गुमाँ हो, गुरूर हो या कुछ भी हो
हफ़्तेभर हम दोनों में बात ना हो

तब भी, क्या तुम यूँ ही
खिड़की से झाँक-झाँक
मेरा इंतज़ार करोगी?
तब भी, क्या तुम यूँ ही,
कसके, बाँहों में भरके
अपने प्यार का इज़हार करोगी?
क्या सचमुच ही तुम ताउम्र
इतना प्यार करोगी?

कुशाग्र अद्वैत
कुशाग्र अद्वैत बनारस में रहते हैं, इक्कीस बरस के हैं, कविताएँ लिखते हैं। इतिहास, मिथक और सिनेेमा में विशेष रुचि रखते हैं। अभी बनारस हिन्दू विश्विद्यालय से राजनीति विज्ञान में ऑनर्स कर रहे हैं।