वर्ष 1971 के, बसन्त के दिनों में,
बंगाल के किसी कोने में,
आरिफ़ अपने बच्चे को खिलाता है
मटन की एक बोटी।
ये बकरा मर गया था मुठभेड़ के दौरान,
बकरे के दाएँ कान से छूकर निकली थी,
एक सर्विस रिवॉल्वर की गोली।
उसकी बीवी ने रोटियाँ बनाते हुए
सुनी थी,
अपनी खोली के चद्दर वाले दरवाजे के
गिरने की आवाज़।
दो सैनिक घुसे थे घर के अन्दर,
उनके कमाण्डरों ने कहा था-
बस काफ़िरों पर करना अत्याचार।
…
उन्होंने उस दिन कोई पक्षपात नहीं किया,
और उसके जिस्म से खेलकर
वो चले गए,
रोटियों को जलता
और उसे मरता छोड़।
वो बच्चा गोलियों की आवाज़ के बीच
सोते हुए देख रहा था,
गर्म-गर्म रोटियों के सपने।
उन दिनों और भी लोगों ने सोचा होगा
सिर्फ़ रोटियों के बारे में,
पर उन्हें सिर्फ़ गोलियाँ मिलीं।
औरतों और युद्ध में जन्मे बच्चों ने नहीं सोचा होगा,
मटन के बारे में।
ऐसे बच्चों, औरतों और उनके पतियों की ग़लती
बस इतनी थी कि उन्होंने धर्म से पहले,
भूख के बारे में सोचा।
भुखमरी के दौरान,
औरतों पर टूट पड़ने वाले नापाक सैनिकों ने नहीं सोचा होगा
रोटियों और मटन के बारे में,
उनके सपनों वाले राष्ट्रवाद की परिभाषा में,
इंसान नहीं थे।
इस बात को सोचकर,
मैं, अपने घर के बिस्तर पर,
रज़ाई में बैठकर,
अंग्रेज़ी अख़बार के ऊपर,
स्टील की थाली में,
गरमा-गर्म रोटियों के साथ मटन खाकर,
हमारी राष्ट्रवाद की परिभाषा पर सवाल करता हूँ।