‘रिश्ता और अन्य कहानियाँ’ से

आँगन में वह बाँस की कुर्सी पर पाँव उठाए बैठा था। अगर कुर्ता-पाजामा न पहने होता तो सामने से आदिम नज़र आता। चूँकि शाम हो गयी थी और धुँधलका उतर आया था, उसकी नज़र बार-बार आसमान पर जा रही थी। वक़्त ऐसा था आसमान उससे ज़्यादा साफ़ नहींं हो सकता था। शायद उसे असुविधा हो रही थी। उसने पाँव कुर्सी से नीचे उतार लिए और एक पाँव दूसरे घुटने पर चढ़ा लिया। इतने ही से उसके आदिमपन में कमी आ गई और चेहरा सम्भ्रान्त निकल आया। उसने दोनों हाथों को पीछे झुकाकर अंगड़ाई ली और मुँह से आवाज़ निकाली। वह उठ जाना चाहता था। पर वह उठा नहींं, बल्कि और जम गया।

शाम पूरी तरह से हो आयी। उसने पत्नी को पुकारा। पुकारने के दौरान उसे जम्भाई आ गई और आवाज़ छितरा गई। उसे फिर पुकारना पड़ा। लेकिन पत्नी के आने में बहुत उत्सुकता या दौड़ना शामिल नहींं था। ठंडापन था। वह आकर कुर्सी के पास खड़ी हो गई। उसने पत्नी की तरफ़ देखा और बोला, “अब तो काफ़ी अँधेरा हो गया।”

“हाँ तुम भी काफ़ी देर से बैठे हो!”

“देर से? हाँ, बैठा तो हूँ।”

वह चुपचाप उसे देखती रही।

“तुम बोली नहींं?”

“आ रही थी।”

“शायद दोनों काम साथ न हो पाते?”

“हो तो सकते थे, आने का काम ज़्यादा ज़रूरी था।”

“तो तुम आ रही थीं?” कुछ देर ख़ामोश रहकर कहा, “इसीलिए तुम नहींं बोलीं? यह भी ठीक है। यह भी एक एप्रोच हो सकती है।”

वह चुप रही।

उसने अपने आप ही कहा, “शायद तुम बैठना चाहो, बैठो। कुर्सी पर इत्तिफ़ाक़ से मैं बैठा हूँ।”

वह सीढ़ियों के नीचे पड़ी खटिया पर बैठे गई। उसने फिर आसमान की तरफ़ देखा और कहा, “इसका मज़ा तो दिन में है। रात चिपट-सी जाती है।”

वह भी ऊपर देखने लगी। चेहरे पर कोई ख़ास बात नज़र नहींं आयी। गर्दन नीचे करके बोली, “हूँ!”

“आजकल शाम वैसी नहींं गुज़रती।” वह ख़ामोश रही।

“काम नहींं होता।” उसी ने फिर कहा।

“किया करो।”

“अब पहली वाली बात नहींं।”

“अब कौन-सी बात है?”

उसने पत्नी के सवाल का जवाब नहींं दिया।

“जब मैं आयी-आयी थी तब तो तुम करते थे।”

“अब ऊबता रहता हूँ।”

उसकी पत्नी के बैठने में उठना शामिल होने लगा था।

उसने ही पूछा, “तुम भी तो ऊबती होंगीं?”

पत्नी एकाएक नहींं बोल सकी। उसी ने सुझाव दिया, तुम्हें इससे बचना चाहिए।

“और तुम्हें?”

“मेरे लिए मुश्किल है। मुझे लोग समझ नहींं पाते?”

“शायद मुझे भी लोग न समझते हों।”

“औरतों को समझने में कोई मुश्किल नहींं होती, सिर्फ़ असुविधा हो सकती है।”

“अच्छा, मैं चलती हूँ। काम…”

उसने बीच में ही कहा, “हाँ, काम… काम तो अच्छी चीज़ है।” फिर रुककर बोला, “मैंने रज्जु से कहा था, आ जाए। तुम्हारी थोड़ी बदल हो जाएगी। बदल करते रहना चाहिए।”

वह उठकर जाने लगी।

“मुझे लड़का पसन्द है।”

उसकी इस बात पर वह चुप लगा गई। वह ख़ुद ही बोला, “लड़कियों की पसन्द के लिए ऐसे लड़के मुनासिब होते हैं।”

“हाँ, वह इस तरह का है।”

“यह अच्छी बात है, तुम मेरी राय से सहमत हो। वह एक चुलबुला लड़का है। आँखें चमकती हैं। दरअसल उसमें एक ढंग भी है। फैलने वाली आँखें अच्छी होती हैं। लेकिन आवाज़…?”

वह बोली, “ख़राब है।”

“नहींं, ऐसी कोई ख़राब नहींं, कुछ हो सकती है।”

इस बात का कोई जवाब न देकर उसने पूछा, “तुम कहीं जाओगे?”

“चाहता था।”

वह ‘हूँ’ करके चुप हो गई। वह बोला, “जाना तुम्हें भी चाहिए।”

“कहाँ?”

“यह सोचने की बात है।” वह कुछ देर बाद बोला, “लड़कियाँ दोस्ती के बारे में शंकालु होती हैं। दोस्ती कोई मूल्य नहींं, वक़्त गुज़ारने का तरीक़ा है। दूसरे मुल्कों में इससे शारीरिक ज़रूरतें भी पूरी हो जाती हैं। चेंज के लिए दोस्ती नायाब चीज़ है।”

“चेंज!” पत्नी ने दोहरा दिया!

“मैं समझता हूँ औरतों को इसकी ज़्यादा ज़रूरत होती है।”

“तुम ऊब की बात कर रहे थे। ऊब पैरों से चढ़नी शुरू होती है और दिमाग़ तक पहुँचती है।”

‘हूँ’ करके वह रह गया। पत्नी उठकर जाने लगी। उसके जाने को वह देखता रहा। उसकी यह आदत बन गई थी। जाती हुई पत्नी की एक-एक चीज़ पर निगाह गड़ाकर परखा करता था। उसके कूल्हों के बारे में वह ज़्यादा सोचना चाहता था। उनके बारे में उसका ख़याल कभी अच्छा नहींं रहा। उनका हल्कापन उसकी देह के प्रभाव को हल्का कर देता है। दरअसल जो अहसास होना चाहिए, वह नहींं हो पाता।

उसने पुकारा, “सुनो!”

“क्या?” वह वहीं खड़ी हो गई।

उसने नज़दीक आने का इशारा किया। नजदीक आने पर उसने पूछा, “तुम कभी अपनी देह के बारे में सोचती हो?”

वह जवाब नहींं दे पायी।

उसने फिर पूछा, “मैं यह जानना चाहता हूँ कभी तुमने सोचा है, एक अच्छी क़िस्म की औरत के जिस्म में क्या-क्या होना चाहिए?”

“मुझे सोचने के लिए आदमी ज़्यादा मज़ेदार लगता है।”

“रज्जु के बारे में तुम क्या कहोगी?”

“अभी तक बड़े सिर का एक सुडौल लड़का है।”

“मैं तुम्हारे कूल्हों के बारे में जानना चाहता हूँ, तुम्हारी क्या राय है?”

“तुम मुझे अपनी राय बता चुके हो। तब भी मेरे हिप्स की वजह से तुम्हें परेशानी हुई थी। गोश्त ज़्यादा न होने की वजह से किसी बीमारी का एहसास हुआ था। तुम्हारी राय से मैं सहमत हूँ। गोश्त एक महत्वपूर्ण चीज़ होती है! लेकिन अब आता जा रहा है।”

“आदमियों के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है?” पूछने के बाद वह मुस्कराया।

“कोई ख़ास नहींं, वज़न कम होना चहिए।” पत्नी ने जम्भाई ली।

वह कुछ हतप्रभ होकर बोला, “तुम मेरे बारे में अपनी राय साफ़ तौर से बता सकती हो।”

“मैं कई बार बता चुकी हूँ। तुम्हारे शरीर से कभी-कभी गन्ध आती है। वैसे तुम मज़बूत आदमी हो।”

“मज़बूती के बारे में ज़्यादा जानना चाहूँगा।”

“मजबूती…? यानी स्ट्राँग!”

“अच्छा, अब तुम जाओ, तुम्हें काम करना है।”

लेकिन वह बैठ गई। उसके इस तरह बैठ जाने ने उसे थोड़ा डिस्टर्ब कर दिया। उसने फिर दोनों पाँव उठाकर कुर्सी पर रख लिए। वह बोली, “तुम इस तरह क्योंं बैठते हो? मेरा ख़याल है मर्दों में बुनियादी तौर पर बेपर्दगी होती है।”

उसने सिर्फ़ कहा, ‘मैं मानता हूँ।’ और उसी तरह पाँव किए बैठा रहा। दोनों के बीच कुछ देर ख़ामोशी रही।

पत्नी ने अपना पाँव घुटने पर रख लिया। घुटने और टाँग के बीच एक साफ़-सुथरा कोण स्थित था। अगर उसकी साड़ी बहुत ज़्यादा बीच में आ गई होती तो शायद ऐसा न होता।

वह अचानक बोला, “मैं रज्जु के बारे में सोच रहा हूँ। तुम्हारा क्या ख़याल है? तुम्हारे ख़याल पर मेरा सोचना काफ़ी निर्भर करता है!”

वह चुप रही। वह फिर बोला, “मेरा ख़याल है उसके पास औरतों के बारे में एक सहनशील और मुलायम दृष्टिकोण है।”

“औरतों के अलावा भी उसके पास दृष्टिकोण हो सकते हैं।”

“दरअसल औरतों के प्रति आदमी का दृष्टिकोण ही उसके और दृष्टिकोणों को बनाता है।”

उसने धीरे से कहा, “उसका दृष्टिकोण मुलायम है।”

पत्नी की बात से वह चौंका नहींं। थोड़े धीमे स्वर में कहा, “मेरा ख़याल है तुम उसे जान गईं। फ़्री होना अच्छा होता है।”

“तुम इसे ज़रूरी समझते हो?”

“दोनों के लिए। ज़िन्दगी में सिर्फ़ एक आदमी को जान लेना काफ़ी नहींं होता। एक बहुत कम होता है। मैं इसीलिए एक से अधिक औरतों को जानना चाहता हूँ। हर एक का अनुभव और प्रतिक्रिया अलग होती है। मैंने तुम्हें कभी उतना एक्साइटेड नहींं देखा। तुममें बहुत ठंडापन है। वैसे लड़कियाँ काफ़ी पगला जाती हैं। तुम्हें देखकर लगता है पानी के टब में लेटी हो।”

उसने सिर्फ़ गर्दन हिला दी।

वह फिर बोला, “आदमी भी शायद अलग-अलग तरह बीहेव करते हैं। मसलन मैं और रज्जु ज़रूर अलग तरह बीहेव करेंगे। हो सकता है रज्जु पहले शर्माए, तब आवेश में आए। तुम्हारा क्या ख़याल है?”

“मेरे ख़याल से वह काफ़ी फुर्तीला है।”

“तुम्हें उसे स्टडी करना चाहिए, ही इज़ ए कैरेक्टर।”

“उसे स्टडी करने का मेरा कोई इरादा नहींं।”

“यह मैं समझ सकता हूँ।”

वह कुछ देर ख़ामोश रहा, फिर बोला, “मैंने रज्जु से आने के लिए कहा था। क्योंंकि मुझे जाना होगा। उसे यहीं रहना चाहिए। तुम्हें अकेलापन शायद अच्छा न लगे।”

“नहींं, मैं अधिक खुलेपन से सो सकती हूँ। हर बार किसी को छोड़कर जाना सम्भव नहींं हो सकता। ज़रूरत समझने पर मैं किसी को भी आमंत्रित कर सकती हूँ।”

“मैं आज पीकर सड़क पर चलते रहना चाहता हूँ। ऐसा करना थ्रिल पैदा करता है। सड़क झूला मालूम पड़ती है। बत्तियों में दूरी बढ़ जाती है। सन्नाटा कानों तक खिंच जाता है, किसी तरह नहींं टूटता। तुम भी पी सकती हो।”

“मुझे तुमने पिलायी थी, कई दिन तक मुँह में कड़वापन घुला रहा।”

“सिवाय थोड़ी-सी उत्तेजना के और कोई परिवर्तन नहीं हुआ था।”

“वह काफ़ी था।”

“मैं अब चलना चाहूँगा। हो सकता है मेरे तैयार होने तक रज्जु आ जाए। इससे तुम्हारी मोनोट्नी भी टूटेगी।”

“मुझे लगता है तुम्हारे जाते ही मैं सो जाऊँगी। सोना भी मोनोट्नी को तोड़ता है। रज्जु के आ जाने पर मुझे कुछ और जागना पड़ सकता है।”

“मैं चाहूँगा सोने की तरफ़ तुम कम ध्यान दो।”

“कपड़े और रुपये अलमारी में है। इस बीच तुम थोड़ा-बहुत खा-पी भी सकते हो। वैसे पीने के साथ भी तुम्हें कुछ खाना होगा। शायद तुम सेन्डविचेज़ ज़्यादा पसन्द करते हो।”

वह अन्दर चला गया। उसकी पत्नी खाट से उठकर कुर्सी पर बैठ गई।

2

अन्दर से लौटने पर उसके चेहरे पर बाहर जाने की ताज़गी थी। बैठे-ही-बैठे पत्नी ने पूछा, “तुम कुछ खाओगे?”

“नहीं, वही ठीक रहेगा। हो सकता है वह भूखा आए।”

“उसके लिए मेरे पास काफ़ी बचेगा।”

वह कुछ दूर तक जाकर लौट आया और बोला, “अगर तुम चाहो तो मैं उसके घर की तरफ़ से निकल सकता हूँ।”

“तुम्हें सीधे जाना चाहिए। मैंने पहले ही कहा है उसके आने पर मुझे जगते रहना पड़ सकता है।”

“तुम शायद नहीं जानतीं ऊब कितनी अजीब चीज़ होती है। मैं भी इसलिए जा रहा हूँ। तुम्हें भी कोई रास्ता निकालना चाहिए।”

“रात में शायद तुम नहींं आ सकोगे।”

“पीने के बाद ऐसा करना मुश्किल होगा। पीने से ही समरसता ख़त्म नहीं होती। उसके बाद की और स्थितियों से भी गुज़रना ज़रूरी हो जाता है।”

“शायद दरवाज़ा बोल रहा है। दरवाज़ा खुलता है तो एक लकीर-सी खिंचती जाती है।”

सिर्फ़ ‘हूँ’ करके उसने अपनी पत्नी की बात का जवाब दिया।

“रज्जु भी हो सकता है!” कहकर उसने पति की तरफ़ देखा। वह चुप रहा।

वह कुछ देर बाद फिर बोली, “शायद नहींं है!”

उसने भी गर्दन हिला दी।

पत्नी ने बिना इधर-उधर देखे कहा, “अब तुम्हें जाना चाहिए। मैं दरवाज़ा बन्द करके लेट जाना चाहती हूँ।”

वह दो-चार क़दम जाकर लौट आया, “मैंने कुछ रुपये तुम्हारे लिए छोड़ दिए हैं।”

उसकी आवाज़ दरवाज़े तक खिंचती चली गई। दरवाज़ा खुलने और बन्द होने के कारण दो लकीरें खिंचती मालूम हुईं। उसने अपने दोनों पाँव ज़मीन से रगड़े।

3

बाहर ठंड थी। इस तरह का ठंडापन मज़ेदार होता है; गरमाई बनाए रखता है। लेकिन वह उसे महसूस कर रहा था। मफ़लर उसके दिमाग़ में बराबर बना था। चौराहे के क़रीब उसे रुकना पड़ा। वहाँ भीड़ तो बहुत कम थी। लेकिन वह दिशा निर्धारित नहींं कर पाया था। उसने वहाँ खड़े होकर उबासी ली। चौराहा और भी ठंडा महसूस हुआ। पान वाले की दूकान दूर थी। उसका ख़याल था शायद कुछ लोग वहाँ पान खाते हुए अभी भी मिल सकते हैं। पानवाला टाईम ऑफ़िस का काम अच्छा करता है। यह सुविधा विलायतों को प्राप्त नहीं है।

चौराहे से आगे बढ़ते हुए उसे रज्जु का ख़याल आया। बाएँ घूमकर रज्जु के कमरे पर पहुँचा जा सकता था। वह मोड़ पर रुका और कमरे के हर दरबे का अंदाज़ लगाने लगा। लगभग पचास क़दम पर उसका घर बिजली के खम्भे की परछाई से ढका था। उस कमरे से उसे कोई बाहर आता हुआ महसूस हुआ। वह तेज़ी से आगे बढ़ गया।

रज्जू उसे पसन्द है। वह भी अच्छी है। बस उसमें एक वही कमी है। अगर वह न होती तो उसकी पत्नी का जवाब न होता। वह हमेशा जवाब न होने की टर्म्स में ही सोचने का आदि है। जवाब हो भी तो क्या उखड़ता है।

वह पानवाले की दुकान पर पहुँचा। पानवाला व्यस्त था। इस मख़लूक़ को कभी कोई ख़ाली नहीं देखता था। ग्राहक हो या न हो। वैसे उसे पान लगाने की कला पसन्द है। ज़िन्दगी की ऊब हमेशा उसे पान की दुकान की तरफ़ खींचती है।

दो आदमियों के साथ एक औरत स्कार्फ़ बाँधे खड़ी थी। वे लोग ज़ोर-ज़ोर से हँस रहे थे। उस औरत का शरीर काफ़ी सुडौल लगा। चेहरा उतना अच्छा नहीं था। लेकिन अच्छा शरीर बिना अपनी तरफ़ खींचे बाज़ नहीं आता।

उनमें से एक आदमी ने कहा, “एक्सचेंज इज़ नो रॉबरी।”

वह महिला तुरन्त बोली, “यह तो व्यवसाय का प्राचीनतम सिद्धान्त है।”

दूसरे ने हँसकर कहा, “ठीक है, मैं जल्दी से जल्दी इसका प्रबन्ध करूँगा। उसके बिना एक्सचेंज मुमकिन नहीं।”

महिला ने दूसरे की तरफ़ देखकर आँख का कोना दबा दिया।

उन लोगों के पान तैयार थे। पानवाले ने उन लोगोंं के हाथ में थमाकर पैसे वसूल लिए। पैसों के गुल्लक से टकराने की आवाज़ उसे बहुत नज़दीक सुनायी पड़ी!

वह धीरे से बुदबुदाया, “इनमें से दूसरा आदमी क्वारा और चालू है।”

उन लोगों के चले जाने पर वह पानवाले के बिल्कुल सामने जा खड़ा हुआ। बिना दुआ-सलाम के पानवाला बोला, “रज्जु भैया कई बार पूछ चुके हैं।”

वह एक मिनट रुका, फिर बोला, “उसे तो मैंने घर बुलाया था।”

“हो सकता है वहीं गए हों।” पानवाले की बात से वह चौंका तो नहीं लेकिन उसकी शक्ल की तरफ़ ज़रूर देखा। फिर कहा, “सुना है कत्था-चूना ठीक मिक़दार से मिल जाने पर खानेवाला पसीने से तरबतर नज़र आने लगता है। तुम्हारा पान लगाया तो देखकर पसीने आने लगता है।”

पानवाला हँस दिया। हँसी का प्रभाव उसके चेहरे पर काफ़ी देर तक बना रहा। उसने पान को तीन-चार जगह से झटका देकर मोड़ा और करारेपन को परखा, फिर बोला, “ज़रा खाकर देखो, ऐसा ही पान रज्जु बाबू को खिलाया है। नसों में पानी उतर आया था। बाबू, पान मुँह रंगने के लिए नहीं खाया जाता। लोग आजकल अपनी औरतों को भी खिलाने लगे हैं। यह औरत खड़ी थी, एक फुलपावर का पान लगाकर दे देता तो इन दोनों से भी काम न चलता।” वह हँस दिया।

उसे अपनी पत्नी का ख़याल आया। पान का इसे शौक़ है। उसका इरादा पूछने का हुआ, कहीं रज्जु तो पान नहीं ले गया? लेकिन यह सोचकर टाल गया, ‘क्या फ़र्क़ पड़ता है’। वह अपने ही वाक्य से चौंक गया। हमेशा से उसका ख़याल है ऐसा कहने वाले को ही ज़्यादा फ़र्क़ पड़ता है। लेकिन उसके साथ ऐसी बात नहींं थी।

उसने दूसरा सवाल किया, “कोई और तो नहीं पूछ रहा था?”

पानवाले ने क्षण-भर सोचकर पूछा, “पहले जो लड़की तुम्हारे साथ आया करती थी, उसकी शादी हो गई?”

“क्यों?”, उसने आवाज़ को काफ़ी मोटी करके पूछा।

“वह आज आयी थी, पान खाकर गयी है। साथ में शायद उसका आदमी ही था।”

“हूँ!” फिर बोला, “रायज़ादा के बारे में तो आज कोई नहीं होगा?”

“नहींं, मंगल है न!”

“तो?”

“रायज़ादा कृष्णा मेडिकल स्टोर में बैठा होगा, निकालकर दे देगा। मंगल वाले दिन दस बजे तक वहीं बैठकर ग्राहकों का इंतज़ार करता है।”

उसने उसकी बात का जवाब न देकर कहा, “अच्छा, चार और बाँध दो। वैसे ही गरमा-गरम।”

पानवाले ने जल्दी-जल्दी चार पान घसीट दिए। उसने पानों को उलट-पुलटकर देखा और बोला, “वैसे नहीं लगे!”

“किसी लड़की को खिलाकर मज़ा देखो। पीछा छुड़ाते नहीं बनेगा। एक-एक पाँच-पाँच रुपये का है।”

उसके मुड़ते ही पानवाले ने रोज़नामचा उठाया, खोलकर देखा, फिर रख दिया।

4

कृष्णा मेडिकल स्टोर के पास उसने पैसे निकालकर गिने। रायज़ादा वहाँ नहींं था। उसे वहाँ चक्कर काटना अच्छा नहीं लगा। आगे बढ़ गया। वह कहीं बैठकर रायज़ादा का इंतज़ार करना चाहता था। लेकिन बैठकर इंतज़ार करने के लिए जगह नहींं थी। इसीलिए उसे चलते रहना पड़ा।

अगर रज्जु नहीं पहुँचा होगा तो वह सो गई होगी। वह स्वयं भी इस बात से सहमत था, सो जाना भी मोनोट्नी को ख़त्म करता है, बशर्ते आदमी अकेला हो। उसकी पत्नी के संदर्भ में यह शर्त पूरी हो सकती थी। यह बात दूसरी है रज्जू आ गया हो और वे लोग बातें करते लगे हों। अगर वह सो गई होगी तो उसे उठाना मुश्किल होगा। सोने पर उसका कई बार फ़्री शो हो जाता है। लेकिन वह ऐसा नहींं करेगी।

रज्जू आएगा भी तो बात ही करेगा। जिस लड़की का पानवाला ज़िक्र कर रहा था, उसके साथ वह स्वयं भी शुरू में बस बातें ही किया करता था। शुरू की बातें कोई मायने नहींं रखतीं। रज्जु उसकी पत्नी से बात भी क्या कर सकता है। विवाहित लड़कियों से बात करने में कोई स्कोप नहीं रहता। वह लड़की अविवाहित थी तो भी उसका बाप बीच में बना रहता था। औरतों के साथ बात करने में यही परेशानी रहती है, कभी बाप, कभी मियाँ, कोई न कोई बना ही रहता है। इस तरह की मौजूदगी थोड़ी परेशानी पैदा कर देती है। सब काम जल्दी-जल्दी करने पड़ते हैं।

उनके साथ ऐसी कोई बात नहीं होगी। ज़्यादा इत्मीनान से बात कर सकेंगे। रज्जु उतना डैशिंग नहींं। वह बात पर बात करता चला जाएगा। वह ज़्यादा लम्बी बातों और ख़ामोशी दोनों से ही ऊबती है। वह ज़रूर ऊबने लगेगी। कहीं उबास दिया तो भाई का नशा काफ़ूर हो जाएगा। मर्द के साथ हमेशा ऐसा होता है। औरत का उबासना आदमी को कहीं का नहीं छोड़ता।

वह काफ़ी दूर निकल आया था। पान उसकी मुट्ठी में दबे थे। जेब में रखने से शर्ट ख़राब हो सकती थी। उस पानवाले की बात पर हँसी आ गई। अगर वैसा ही फुलपावर का पान रज्जु ने उसकी पत्नी को खिला दिया होगा? वह ज़रूर खा जाएगी। इससे पहले भी रज्जु पान कई बार ले गया है और खिलाया है। वह चबाकर खाती है और थूक देती है। कभी कोई असर नहीं हुआ। वह इस बात पर फिर हँस दिया। अगर उत्तेजित होना होता है तो उसके लिए पान-वान की ज़रूरत नहीं होती।

वह ख़ुद कम बात करता है। इसी वजह से वह ठंडी पड़ जाती है। उसके साथ वह दो-चार बार ही उत्तेजित हुई है। बातों का भी बहुत बड़ा हिस्सा होता है। रज्जु हो सकता है उससे दूसरी तरह की बातें करे। बात में भी एक तरह का स्लायवा होता है। रज्जु ज़्यादा से ज़्यादा उसका हाथ अपने हाथ में ले सकता है। उसके मन में भय बना रहता है, कहीं नाराज़ न हो जाए। इस तरह का भय कुछ करने नहीं देता। जब तक आदमी ख़तरा उठाने को मूल्य नहींं मानता, उसे कुछ मिलता-मिलाता नहीं। नये लड़कों का यही हाल है। इंतज़ार में बैठे रहते हैं, टपके तो वे गुप लें।

लौटने पर रायज़ादा कृष्णा मेडिकल स्टोर के बाहर ही मिला। वह अपनी दुकान की तरफ़ जा रहा था। उसके चेहरे पर चौकन्नेपन के साथ-साथ तेज़ी भी थी। उसे देखकर वह ठिठक गया और बोला, “आपको भी चाहिए?”

“वन क्वार्टर दे सकेंगे?”

“दे देंगे।”

“कितना होगा?”

“दो ज़्यादा, मंगल है न! पूरी खोलनी पड़ेगी।”

“ठीक है।”

उसने मुट्ठी की मुट्ठी उसकी हथेली पर खोल दी। उसने नज़र से उन्हें गिना और हँसकर बोला, “इसके अलावा दो उबले अंडे भी हैं। वे तुम्हें दोस्ती में दे दूँगा।”

“हाँ, मैं यही सोच रहा था, सब तो आपको दे दिए। साथ में खाऊँगा क्या?”

“मैं समझ गया था, समझ गया था…।” वह हँसता हुआ पीछे की तरफ़ से दुकान में घुस गया।

वह दुकान के बाहर बरांडे में रह गया था। दोनों हाथ बग़लों में दबा लिए थे। बायीं मुट्ठी में पान दबा होने से दाहिनी बग़ल फूल आयी थी।

उसे उस लड़की की याद आयी। हालाँकि उसकी शादी हो गई है लेकिन उसकी मूल प्रवृत्ति में ज़्यादा अन्तर नहीं हुआ होगा। जल्दी उत्तेजित होती होगी। प्रेम-काल में उसे दो-चार घूँट पिला दी थी। वह काफ़ी मज़े में आ गई थी। उसने कोई एतराज़ नहीं किया था, बल्कि बड़ी मज़ेदार बात कही थी—

‘अपने शरीर के बारे में मैं ख़ुदमुख़्तार हूँ, किसी भी हिस्से का कुछ भी इस्तेमाल कर सकती हूँ।’

उस दिन जैसा मज़ा देखने में नहींं आया।

लेकिन पत्नी को केवल उफ़ान-सा आकर रह गया था। आँखें ज़रूर चमकने लगी थीं लेकिन वह टुकुर-टुकुर उसकी तरफ़ देखती रही थी और फिर उसी के ऊपर लेट गई थी। उसे बड़ा गिलगिला लगा था। उसके पास लिपटकर सो जाने के सिवाय कोई और रास्ता नहींं बचा था।

5

रायज़ादा ने काग़ज़ में लिपटी हुई बोतल उसे पकड़ा दी। उसने काग़ज़ हटाकर देखा—चौथाई से थोड़ी कम थी। रायज़ादा अपने ही आप हँसकर बोला, “कबाब रखा है। यह भी ले जाओ, मज़ा देगा।”

उसे कबाब पाना अच्छा लगा। उसके दोनों हाथ भर गए थे। इसलिए शीशी उसे जेब में सरका लेनी पड़ी। अंडे और कबाब दूसरे हाथ में पकड़ लिए।

रायज़ादा ने पूछा, “कहाँ पियोगे? चाहो तो कहीं इंतज़ाम कर दूँ?”

“आज अकेले ही मूड है।”

“ठीक है, बहुत ज़ोर की किक देगी। नायाब चीज़ है। एकदम सोलह साल की लड़की की तरह। आधी थी, चौथाई तुम्हें दे दी, बाक़ी मैं पी गया। किक दे गई साली। अब जा रहा हूँ। चाहो तो इंतज़ाम तुम्हारा भी कर सकता हूँ।”

वह कुछ नहीं बोला, सिर्फ़ हँस दिया।

वह जेब में बोतल महसूस कर रहा था। हल्का-सा पसीना था। उसका ख़याल था वह एक ऐसी जगह बैठे जहाँ वह अकेला बना रहे। पार्क के बाहर पेड़ की दायीं तरफ़ बैंच पर बैठ गया। बैंच काफ़ी ठंडी थी। पतलून की तली पर भीगापन-सा लगा। उसने जेब से बोतल निकलकर रौशनी में देखी। बोतल की रंगीनी के कारण वह आर-पार नहीं देख सका। चुपचाप बराबर में रखा अंडा तोड़ने लगा। वह खाते हुए बराबर सोचता रहा, कहीं किक न दे जाए और वह वहीं लौट जाए। रायज़ादा शायद उतना ईमानदार नहीं है।

रज्जु शायद अभी भी बैठा हो। हो सकता है पत्नी उसकी बातों से ऊबकर लेट गई हो। पलंग पर लेटी हुई बिल्कुल खपटा-सी लगती है। उसकी एक बड़ी अजीब आदत है, वह हाथ पकड़कर अपने कूल्हों पर रख लेती है। कई बार पूछ चुकी है, कुछ इम्प्रूव्ड लगे? रज्जु से शायद ऐसा न कहे। वह कहा करती है विदेशों में मोटे हिप्स को ज़्यादा तरजीह दी जाती है। यह उसने रज्जू से ही सुना है। वह विदेशी पत्रिकाएँ पढ़ता रहता है। अगर वह पूछेगी भी तो भी रज्जु तारीफ़ ही करेगा। तारीफ़ काफ़ी दिक़्क़त पैदा करती है।

उसे दूसरा अंडा अच्छा नहींं लगा। बिना नमक के बकबकापन महसूस हुआ। उसने बोतल मुँह से लगा ली। काफ़ी सर्द थी। उसे फिर मफ़लर का ध्यान आ गया। हालाँकि ध्यान आना एकदम बेतुका था। बोतल के मुँह पर मफ़लर लगाकर नहीं पिया जा सकता था। शायद कान ढँके जा सकते थे। उसकी पत्नी के कान ढँके नहीं रहते। रज्जु भी इस बात पर काफ़ी हँसता है। रज्जु ने कहा था औरतों को कान पर सर्दी नहीं लगती। इस पर वह बहुत हँसी थी। उसे उस बार काफ़ी आश्चर्य हुआ था। आश्चर्य की बात भी थी। लेकिन वह काफ़ी समय तक नहीं समझ पाया उसका संकेत किधर था। उसे कैसे पता औरतों को कहाँ ठंड लगती है।

दो-चार घूँट पी लेने पर भी उसे तल्ख़ी महसूस नहीं हुई। मुँह का स्वाद वैसा ही सीठा-सीठा बना रहा। ऐसा स्वाद ऊब का होता है। यह वह बरदाश्त नहीं करना चाहता था। एक साँस में वह कुल पी गया। कोई अन्तर न पड़ने के कारण वह उत्तेजित हो गया और बोतल फेंक दी। अंडे के छिलकों को उसने बुरी तरह कुचल दिया।

यह बात एकदम ग़लत थी, वह पान खाकर उत्तेजित हो जाएगी। हो भी जाएगी तो रज्जु ज़्यादा देर नहीं रुक सकेगा। उसके शरीर में दम ज़रूर है लेकिन आदमी को पहली बार दहशत लगती है। उसी दहशत की वजह से वह कुछ नहीं कर पाता।

उसने हाथ का पान मुँह में रखकर उसे चबाया, दो-चार बार में ही थूक दिया। पान जैसी चीज़ से उत्तेजित होना नामर्दी है। पान खाकर उत्तेजित रज्जु हो सकता है। अगर वह पान खाकर उत्तेजित हुआ होगा तो उस पर कुछ नहीं होगा।

उसकी पत्नी के उत्तेजित होने का तरीक़ा बिल्कुल दूसरा है। स्टेजेज़ में उत्तेजित होती है। आँखों से बढ़नी शुरू होती है। कई जगह टटोलना पड़ता है। ऐसी बात औरत अपने आप नहीं बताती। यह वही जानता है जो जानता रहता है।

सड़क पर आकर उसे उतनी सर्दी नहींं लगी। बल्कि कानों पर गर्माहट महसूस होने लगी। सड़क ख़ाली थी। यह ख़ालीपन उसे अपने साथ बने रहने में काफ़ी सहायता कर रहा था। सड़क के दूसरी तरफ़ गुज़रते हुए लोगों की हँसी ने उसे उखाड़ दिया। लोगों को घर से हँसकर चलना चाहिए या घर जाकर हँसना चाहिए। नाराज़गी के कारण उसके क़दम कुछ तेज़ हो गए। इस सबके बावजूद काफ़ी देर तक उन लोगोंं की हँसने की आवाज़ सुनायी पड़ती रही। अन्ततः वह ख़ामोश हो गया और चाल ढीली कर दी।

पेशाब के कारण उसे चुनचुनाहट महसूस हो रही थी। रुककर एक चहारदीवारी के पास खड़े हो जाना पड़ा। उसका ख़याल था वह अपने घर के पास पहुँच गया है। रज्जु और पत्नी उसे एक साथ मिल सकेंगे। पत्नी ज़रूर सो गई होगी या सोने की तैयारी में होगी। हो सकता है रज्जु ने उसकी ग़ैरहाज़िरी में उसी के कपड़े पहन लिए हों और वह भी सोने की तैयारी में हो। वह कौन से कपड़े पहन सकता है? हो सकता हैं न भी पहने। ऐसे में पहनने की कोई बन्दिश नहीं होती। वह बिना पेशाब किए लौट पड़ा। चुनचुनाहट के बारे में वह ज़्यादा सचेत नहींं रहा था।

उसे ख़याल हुआ रज्जु और पत्नी सड़क पर टहल रहे हैं। महिला का पिछला हिस्सा उसे लगभग सपाट लगा। चाल में भी वैसी ही लहक नज़र आयी। आदमी की लम्बाई रज्जु जैसी ही थी। थोड़ी दूर पीछे चलकर वह रुक गया। पीछे जाना निहायत बेवक़ूफ़ी है। वह लौट पड़ा और पीछे वाले चौराहे पर जाकर खड़ा हो गया।

पत्नी का शरीर काफ़ी गोरा है। रज्जु के शरीर के हिस्से स्याही लिए हुए हैं। अगर वह उसके शरीर के किसी हिस्से पर भी हाथ रखेगा तो कितना अन्तर मालूम पड़ेगा। ऐसे वक़्त ज़रा-ज़रा-सी बातों की ओर कोई ध्यान नहींं देता। यह सब बेतुकापन और बकवास है।

अपनी प्रेमिका लड़की का ख़याल आया। उसका घर यहाँ से काफ़ी नज़दीक है। वह पुष्ट देहवाली मज़ेदार लड़की है। उसका पति निहायत बेवक़ूफ़ है। उस लड़की को मारे डाल रहा है। उसे यहाँ नहींं होना चाहिए था। यह उसका पीहर है। इस तरह का व्यवहार ज़बरदस्ती और निकम्मेपन की हद में आता है।

उस लड़की का घर दूर से दिख रहा था। खिड़कियाँ बन्द थीं और आँगन में बत्ती जल रही थीं। उसे अपने घर का ख़याल आया। घर में खिड़कियाँ और रोशनदान कम हैं। हो सकता है इस समय वे भी बन्द हों।

Book by Giriraj Kishore: