‘Nadi Aur Sagar’, a poem by Rupam Mishra

एक दिन शरद की सुहानी-सी रात थी
प्रकृति ने ज्योत्स्ना के साथ जैसे
प्रणय भी बिखेर दिया था वातावरण में

एक शीतल-सी नीरवता
अपूर्व शुभता संगीत गा रही थी
एक संसर्गित पल में नदी और सागर
राह चलते हुए टकरा जाते हैं

दोनों एक-दूसरे के आकर्षण में बंधे
ढेरों बातें करते हैं
बातें कुछ औपचारिक
कुछ शिष्टाचार की
कुछ परिहास की
कुछ सुख-दुःख की भी

नदी ठहरी नदी ही
कुछ अंतरंग तथ्य भी
छलका ही देती है जीवन के

जिसका शायद निषेध था नदी को
सुनकर सागर कुछ अनमना भी हुआ

फिर गहरी आत्मीयता में डूबकर
नदी अपनी मर्यादा भूलकर
सागर से गले लगने को बाहें बढ़ाती है
प्रेम का एक प्रबल आवेग
दोनों को सर्वांग आकर्षित करता है!

तभी झटके से सागर को भान होता है
अपनी अबाधता का
वो झटक देता है हाथ नदी का
क्या कर रही हो?!

जिस तरह मैं अपना विस्तार सहता हूँ,
उसी प्रकार तुम भी अपनी परधि सहो!

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