स्त्री होना
या
होना नदी!
क्या फ़र्क़ पड़ता है?
दोनों ही उठतीं, गिरतीं
बहतीं, रुकतीं
एक बदलती धारा
एक बदलती नियति।
एक सोच
एक धार
मिल जाती है
किसी न किसी
सागर से
और हो जाती है
एकाकार
सागर में
अपने अस्तित्व को खोती।
सागर भी कर लेता है
आत्मसात
उन नदियों को
अपने पौरुष का
अभिमान लिए।
पर किसी दिन न बदले
नदियाँ अपनी धार तो?
क्या सह पाएगा सागर
नदियों का यह दम्भ?
हो जाएँगी सारी नदियाँ, बलवती
अपने बनाए मार्ग पर,
सारी नदियाँ बन जाएँगी
स्वयं में एक सागर
जहाँ मर्ज़ी से अपने
रुकेंगी, बहेंगी
उठेंगी और गिरेंगी भी
परन्तु
इस उलाहने से रहेंगी दूर—
‘स्त्री ही स्त्री की होती है दुश्मन’
जिसे बड़ी ख़ूबसूरती से
बैठा दिया गया
मन में
और किया गया
मन पर, मन का मतभेद
और बहा दी गयी मति
नदियों में नियति के साथ
अपनी धार बहने को…
अनुपमा झा की कविता 'मौन का वजूद'