नदी के दोनों पाट लहरते हैं
आग की लपटों में
दो दिवालिए सूदखोरों का सीना
जैसे फुँक रहा हो
शाम हुई
कि रंग धूप तापने लगे
अपनी यादों की
और नींद में डूब गई वह नदी
वह आग
वह दोनों पाट, सब कुछ समेत
क्योंकि जो सहते हैं जागरण
जिसका कि नाम दुनिया है
वह तो नींद के ही अधिकारी हैं
और यह भी कौन जाने
उन्हें सचमुच नींद आती भी है या नहीं!