भीमकाय चट्टान टूट कर बन गए है रेत
रेत का ज़र्रा-ज़र्रा फिसल रहा है
मेरी भींची मुट्ठी से
जैसे फिसलता है कदम
जमी काई पर…
किसी रोज मैंने उसे ये बताया था
पर वक़्त आज दिखा रहा है
मुझे सच…
हर मोड़ पर पूछते हैं मेरा गुमनाम पता
उन संकरी गलियों के घरों की खिड़कियों को बन्द करके
कि कहीं खुल न जाये उनके
गुप्त राज़…
वो छुप कर आते हैं
मेरी ओट में
तलबगार बनकर…
निर्लज्जता के ऊपर लज्जा की चादर ओढ़कर
और मैं कर लेती हूँ
अपनी बेजान चमड़ी पर शृंगार
मेरा कोई दुःख नहीं दिखता
दिखती है तो बस लालायित करती हुई मेरी निराश नज़रें
जिसने मुझे और पुख़्ता कर दिया है
आख़िर हूँ तो मैं एक ‘फिनिक्स’
मैं तलाशती हूँ ख़ुद को
होने, न होने के बीच
कहीं दलदल में धँसी
तो कहीं इस सभ्य समाज के थपेड़े खाती हुई
मेरा पेशा भी नहीं दे पाता
मुझे सार्वजनिक पहचान…
अंधेरे और उजाले का फ़र्क तभी दिखता है मुझे
उस बंद कोठरी में
रिरियाता, बेचैन, अकुलाहट से भरा हुआ
मेरी आत्मा ख़ुद में विचरण करती है
उसे कहीं और ठावँ नहीं…
उस रात भी यही हुआ था
वो आये थे नक़ाब की ओट लेकर
और गए भी नक़ाब की ओट में
बड़ा दर्द है
विशेषणों के दुखने का…
मेरी देह चित्कारती है
करती है बार-बार प्रश्न कहाँ है मेरा अल्हड़पन?
मैं केवल एक भोग्या और पण्य-क्रोता स्त्री
जीवन-मरण में
मेरा कोई आँकड़ा नहीं…
हद की पीड़ा होती मुझमें
व्यवसाय भाव से कातर मैं
मैं तवायफ़…
शिक्षित वर्ग बड़ा ज्ञानी
आध्यत्मिक चिंतन शून्य उनका
मेरी ओर कोई न ढरका
मेरी पीड़ित आँखें कोई न पढ़ सका
मैं वैश्या, गणिका, लोकांगना, वारवधू
मैं पत्नी, बेटी, बहन नहीं, मैं नगरवधू!