मैं जब उस मकान में नया पड़ोसी बना तो मकान मालिक ने हिदायत दी थी—”बस तुम नहान से बचकर रहना। उसके मुँह नहीं लगना। कुछ भी बोले तो ज़ुबान मत खोलना। नहान ज़ुबान की तेज़ है। इस मकान में कोई 18 सालों से रहती है। उसे नहाने की बीमारी है। सवेरे, दोपहर, शाम, रात। चार बार नहाती है। बाथरूम एक है। इसलिए बाक़ी पाँच किरायेदार उससे चिढ़ते हैं। उसे नहान कहकर बुलाते हैं। वैसे वह अच्छी है। बहुत साफ़-सफ़ाई से रहती है।”
मैंने मकान मालिक की बात गाँठ बाँध ली।
मैंने सोचा मुझे नहान से क्या लेना-देना! मुझे कितनी देर कमरे पर रहना है? दस बजे ट्रांसपोर्ट कम्पनी के दफ़्तर जाऊँगा फिर दस बजे रात में उधर ही से खाना खाकर लौटा करूँगा। मेरा परिवार गाँव में रहता है। वहाँ मेरे माता-पिता, पत्नी और दो बच्चे हैं। थोड़ी-सी खेती-बाड़ी है जिसके लिए हर महीने गाँव का एक चक्कर लगाता हूँ। ट्रांसपोर्ट कम्पनी में कॉमर्शियल क्लर्क की नौकरी है। दिन-भर माल लदवाओ, उतरवाओ। बिल्टी देखकर माल पार्टी के हवाले करो। छः बजे ऑफ़िस बन्द होना चाहिए। पर कमरे पर आकर करूँगा क्या? परिवार साथ रहता तो बात और थी। कमरे में अकेले पड़े रहने का क्या मतलब? इसीलिए दस बजे रात से पहले कमरे पर लौटने का सवाल ही नहीं था। कमरे में सामान जमाने के बाद मैं नहान से मिला।
इतवार को मेरी छुट्टी होती थी। उस दिन मैं अपने गंदे कपड़े धोया करता। नल या बाथरूम को लेकर ही नहान से टकराव हो सकता था। इसलिए मैं कपड़े धोने के पहले ही नहान से पूछने चला गया— “बाथरूम का कोई काम तो नहीं है? मैं अपने कपड़े धो लूँ?”
आगे भी मैं उससे नियमित अनुमति माँगता रहा। इसके चलते नहान की कृपा मुझ पर रहती। वह मुझसे कहा करती, “कभी कोई तकलीफ़ हो, कोई ज़रूरत हो तो बता देना।”
मैं कभी-कभी छोटी-मोटी चीज़ें उधार माँग लेता—जैसे किरासन तेल, मोमबत्ती, माचिस, इस्तिरी। पर मेरे अलावा कोई और पड़ोसी नहान के कमरे की तरफ़ झाँकता तक न था।
नहान उसका असली नाम नहीं था। नहान शब्द किसी स्त्री का नाम होगा, यह सोचकर ही अटपटा लगता था। लेकिन अटपटापन उत्सुकता तो पैदा कर ही देता है। मेरे मन में यह सवाल कुलबुलाता रहा। इसलिए नहान के बारे में जो सूचना सहज ही मिल जाती, मैं उसे अपनी स्मृति के ख़ज़ाने में डाल लेता। मैं चाहता तो उसके बारे में पड़ोसियों से पूछताछ कर सकता था। लेकिन मैं उस मकान में नया था। उस मकान में कुल छः बड़े-बड़े कमरे थे एक क़तार में बने। उन्हीं में से एक कमरे में नहान अपने पति सूरज के साथ रहती थी। सूरज एक ढाबे में कारीगर था। कारीगर यानि बावर्ची। दिन में दस बजे काम पर जाता तो रात में बारह बजे लौटता। सुबह में देर तक सोता रहता। उसके पास नहान के लिए फ़ुरसत नहीं थी।
नहान को भी फ़ुरसत कहाँ थी? वह भी पति के जाने के बाद चूड़ियों की टोकरी उठा सरकारी कॉलोनी चली जाती। उसकी टोकरी में रंग-बिरंगी सस्ती चूड़ियाँ होतीं। हर तरह की कलाई में फ़िट आने वाली चूड़ियाँ। काँच और प्लास्टिक की चूड़ियाँ। नहान कॉलोनी में जब पहुँचती तो वहाँ की औरतें फ़ुरसत में होतीं। पति काम पर और बच्चे स्कूल। नहान अपने महीन मगर तेज़ सुर में आवाज़ लगाती— “चूड़ियाँ… रंग-बिरंगी चूड़ियाँ।”
अगर टेर के बाद भी दरवाज़ा नहीं खुलता तो वह बेहिचक कॉलबेल दबा देती। पिछले कई सालों से वह इस कॉलोनी में फेरा लगाती थी इसलिए उसे सब जानते थे। कई औरतें नहान को ख़ुद ही बुला लेतीं। कुछ ख़रीदतीं, कुछ सिर्फ़ चूड़ियों को देखतीं, ख़रीदने की इच्छा दबातीं और महँगाई का रोना रोतीं।
नहान को मैंने अपने एक परिचित के यहाँ चूड़ी बेचते देखा था। हम बैठक में थे। गृहस्वामिनी ने दरवाज़े के पास गलियारे में नहान को बिठा रखा था। नहान गृहस्वामिनी को चूड़ियों की क़िस्में दिखलाती जा रही थी— “बुंदकी, खिरकिया, झरोखनी, चंदा—तारा, सूरजमुखी… लोकतारनी। अच्छा ये पसंद नहीं आयीं तो सादी चूड़ियाँ ले लो। आपकी गोरी कलाइयों पे ये ऊदी रंग ख़ूब फबेगा… थोड़ा लाल और थोड़ा काला मिलाकर ऊदी रंग बने बीबी जी… सात का जोड़ा डलवा लो… येल्लो! बग़ैर कंगन के कहीं सादी चूड़ियाँ फबती हैं? दोनों कलाइयों के लिए चार कंगन तो चाहिए। आगे-पीछे एक-एक कंगन तभी तो काँच की चूड़ियाँ टूटने से बचेंगी… आप पैसे की मत सोचो। पैसा नहीं है तो सिर्फ़ बोहनी कर दो। बाक़ी अगले चक्कर में दे देना। तीस रुपए होते हैं। अभी दस दे दो। बीस हम फिर ले लेंगे।”
गृहस्वामिनी ने चूड़ियाँ पहन लीं। नहान को दस रुपए देकर जब वह जाने लगी तब नहान बोली, “बीबी जी, असीस की चूड़ी तो पहनती जाओ।”
गृहस्वामिनी ने कलाई झट आगे बढ़ा दी। भूल-सुधार के लिए। नहान ने उनकी बायीं-दायीं कलाई में एक-एक और चूड़ी डाल दी। गृहस्वामिनी झुकीं, चूड़ियों की झोरी से अपने माथे को लगाया। नहान बोली, “सुहाग बना रहे बीबी जी!”
नहान आवाज़ लगाती निकल गई। लेकिन मन में सवाल कुलबुलाता रहा—असीस की जोड़ी क्या है? इन दो चूड़ी के लिए उसने पैसे क्यों नहीं लिए? शायद यह कोई रिवाज होगा। इतनी व्यवहारकुशल माला को नहान क्यों कहते हैं? इसके बाल-बच्चे हैं नहीं? इसका पति पाँच हज़ार तक कमा लेता है। इस रक़म में दो लोगों की गृहस्थी आराम से चल सकती है। फिर यह चूड़ी की टोकरी क्यों उठाए फिरती है?
इसका शरीर स्वस्थ है, मन से दमित नहीं है फिर भी यह बार-बार क्यों नहाती है? उसकी नहाने की आदत से सब परेशान थे। सबको नहाना-धोना होता था। बच्चों को नहा-धोकर स्कूल जाना था, बड़ों को काम पर। नहान के चलते सबका रूटीन बिगड़ जाता। चार बार तो वह नहाती ही थी। इसके अलावा वह कभी भी नहाने पहुँच जाती। बाथरूम में कोई होता तो वह दरवाज़ा पीट-पीटकर परेशान कर देती। लेकिन जब वह ख़ुद बाथरूम में होती और कोई दरवाज़ा पीटता तो ज़ोर-ज़ोर से गालियाँ देती बाहर निकलती और मकान झगड़े के शोरगुल से भर जाता।
मैं जितना पड़ोस में घुलता-मिलता गया, नहान के बारे में नई-नई सूचनाएँ जुड़ती गईं। नहान सुंदरी थी। उसकी चिकनी साँवली त्वचा के अंदर से गोरा रंग फूट पड़ता था। इससे उसकी साँवली त्वचा दमकती। वह कोई पैंतीस साल की होगी। लेकिन रोज़-रोज़ के शारीरिक श्रम ने देह की तराश को बनाए रखा था। बदन में फालतू चर्बी कहीं नहीं थी। बड़ी-बड़ी कनपटी तक फैली आँखें। गोल चेहरे पर छोटी-सी नाक बेडौल लगती थी पर पूरे चेहरे का अक्स ऐसा था कि उसे भूलना असम्भव था। जूड़े को लटकाने के बजाय वह ऊपर की ओर बाँधकर हेयरपिन लगाती जिससे उसकी सुतवाँ गर्दन और उजागर हो जाती। वह सजने-सँवरने के लिए वैसा जूड़ा नहीं बाँधती। बस माथे पर टोकरी उठाने में सुभीता रहे। हाँ, उसके होंठों पर पान की लाली हमेशा रहती। पान खाने का शौक़ उसे अपने पति से मिला था। भट्ठी के पास खड़े-खड़े उसका गला सूखता इसलिए उसने पान खाने की आदत डाल ली थी।
नहान अपने पति को साँवरे कहकर बुलाया करती। साँवरे यानि साँवरे कृष्ण। कृष्ण जैसा प्रेमी पाने की चाहत लोक जीवन में कई प्रकार से अभिव्यक्त होती रही है। इसी तरह पति को साँवरे कहकर बुलाने का चलन निकाला होगा। उसका पति सूरज साँवला तो था पर कृष्ण वाली कोई चमक उसमें नहीं थी। उलटे वह मनहूस था। काम से लौटता, दारू पीकर सो जाता। पड़ोसी बताते थे कि नहान भी पीने में उसका साथ देती है। ख़ैर हम पड़ोसी महीने-महीने बाद सूरज का चेहरा देख पाते थे। उस निहायत ही सादे मर्द में एक ख़ास बात थी। नहान के कोई बच्चा नहीं था, फिर भी सूरज ने उसे कभी इसका ताना नहीं दिया, न दूसरी शादी की बात चलायी। और तो और उसने कोई बच्चा भी गोद नहीं लिया।
एक पड़ोसी ने सूरज से बच्चा गोद लेने की बात छेड़ी तो उसने पान चबाते हुए कहा था, “अभी तो हम दोनों कमाते हैं। पोस्ट ऑफ़िस के खाते में काफ़ी कुछ जोड़कर रखा है। एक बीमार भी हो गया तो दूसरे की कमाई से काम चल जाएगा। चिड़िया के बच्चे उसके पास हमेशा कहाँ रहते हैं? बच्चा गोद लेकर क्या होगा? दूसरी शादी मैं क्यों करूँ? ऐसी बीवी मुझे सात जनम न मिलेगी…”
एक दिन एक तांत्रिक आया। उसके काले चोग़े की आस्तीन का कपड़ा हाथ के ऊपर उठाते ही लहराने लगता और उसकी मुट्ठी में कभी चॉकलेट तो कभी काजू प्रकट हो जाता। इस हाथ की सफ़ाई का जादू हमारे मकान की औरतों पर चल गया। मुरादों की गठरी तांत्रिक के सामने खोली जाने लगी। नहान चूड़ी बेचकर लौटी थी। एक पड़ोसन ने तांत्रिक से कह दिया, “इसका कोई जतन कर दो महाराज! इसकी कोख हरियाती नहीं। जे बाँझ है।”
बाँझ शब्द सुनते ही नहान बिफर पड़ी और पड़ोसन को एक झापड़ लगा दिया।
“जो मुझे फिर बाँझ कहा तो तेरी ज़बान कतर दूँगी। मैं जनम से बाँझ नहीं हूँ।”
पड़ोसनों को साँप सूँघ गया। वे अब तक नहान को बाँझ समझ रही थीं। बाँझ न होने की बात जानकर क़िस्म-क़िस्म के संदेह और अनुमान का सिलसिला चल निकला। बहरहाल, निष्कर्ष यह निकला कि खोट सूरज में है, वरना नहान के गर्भ क्यों नहीं ठहरता?
पड़ोस में सब नहान की पीठ पीछे उसके बारे में सूचना देने को उत्सुक रहते थे। बस नंदू ड्राइवर नहान का नाम लेते ही मुँह सी लिया करता। नंदू क्रेन चलाता था। हाइवे पर कोई ट्रक, कार पलटती तो नंदू क्रेन ले जाकर उसे खींचता और गैराज तक पहुँचा देता। उसके काम का कोई समय बँधा न था। अकेला रहता था। उसका कोई परिवार नहीं था। नंदू रात में दारू चढ़ा, खाना खाकर कमरे पर लौटता था। उसका कमरा मेरे बग़ल में था। अगर मैं जाग रहा होता तो वह दुआ सलाम करता, वरना सो जाता। नंदू कपड़े धोने का काम शाम के तीन-चार बजे करता। तब नल ख़ाली रहता। नहान उसी समय फेरी लगाकर लौटती थी। टकराव का कोई अवसर न होता, फिर भी वह नंदू से उलझती। कभी अलगनी पर लटके गीले कपड़े बदन से सट जाने की शिकायत करती, कभी रास्ते पर पानी छलकाने के लिए कोसती। लगे हाथ नंदू को दो-चार गालियाँ सुना देती। नंदू यों तो गबरू था पर वह नहान की गालियाँ चुपचाप सुन लेता। कभी सिर उठाकर दीनहीन याचक वाली मुद्रा में देख लेता। इस पर नहान और बमकती फिर पैर पटकती अपने कमरे में चली जाती। उसके बाद नंदू जैसे ही नल से हिलता, नहान बाथरूम में घुस जाती मानो वह नंदू की छाया से अपवित्र हो गई हो।
अजीब यह कि नंदू कोई सोलह साल से नहान की गालियाँ बर्दाश्त कर रहा था। नंदू की क्रेन मेरे ऑफ़िस के पास ही खड़ी रहती थी। उसके मालिक का ऑफ़िस भी वहीं था। इसलिए मैं धीरे-धीरे जान गया था कि नंदू सहनशील नहीं है। ट्रक, क्रेन जैसे सड़कछाप धंधे में दयनीय बने रहने से काम नहीं चलता। फिर वह इतने सालों से नहान को क्यों झेल रहा है? वह चाहता तो किसी और मकान में कमरा ले लेता।
तांत्रिक के आगमन से स्थिति विस्फोटक हो उठी थी। मेरे तीनों पड़ोसियों ने मिलकर नहान को पीट दिया। रोती-कलपती नहान सूरज के ढाबे पर पहुँची। उस दिन मनहूस सूरज ताव खा गया। वह हाथों में लम्बा करछुल लिए रिक्शे पर नहान के साथ आया। सूरज और पड़ोसियों में घमासान हो गया। दो पड़ोसियों के सर फूटे। एक का हाथ टूटा। इस घटना के बाद सूरज तो भाग गया पर नहान अपने कमरे में ही थी। आख़िर पुलिस आयी और नहान को गिरफ़्तार करके ले गई। नहान पर हिंसा का नहीं, हाँ एक पड़ोसन को झापड़ मारने का इलज़ाम था।
मैं रात कमरे पर पहुँचा तो उस घटना के बारे में मुझे पता चला। तभी मैंने देखा कि नहान रिक्शे से उतर रही है। नंदू उसे उतरने में सहारा दे रहा था। नहान अपने कमरे में चली गई। नंदू अपने कमरे में। घंटे भर बाद मैंने देखा कि नंदू के कमरे की बत्ती अभी भी जल रही है तो मैंने उसका दरवाज़ा खटखटाया। इस बीच मुझे कुछ और जानकारी मिल गई थी। नंदू नशे में था फिर भी मैंने पूछ लिया, “तुमने नहान की ज़मानत क्यों दी?”
नंदू रहस्यमय तरीके से हँस पड़ा, “सूरज के बाद मेरे अलावा उसका है ही कौन? बाबू तुम्हें हैरत हो रही है न? रोज़ गरियाने और दुतकारने वाली औरत की ज़मानत मैंने क्यों दी? मैं तो उस पर जान भी दे दूँ। बड़ी ज़िद्दी औरत है। बच्चा न होगा, फिर भी रहेगी सूरज के ही साथ। उसकी ज़िद तो मेरी भी ज़िद।… मैं सूरज और माला के साथ नशा पानी किया करता। एक रात नशे का फ़ायदा उठाकर मैं माला के साथ ग़लत काम कर बैठा। गर्भ भी रहा। मैंने सोचा अब इसकी ज़िन्दगी बन जाएगी। पर उस ज़िद्दी ने गर्भाघात कर लिया। बस यही ज़िद—ये कोख तो साँवरे की है।”
मैंने हैरत भरे स्वर में उससे पूछा, “नहान उस मनहूस सूरज को इतना प्यार क्यों करती है?”
नंदू लडखड़ाती आवाज़ और बिखरे शब्दों में कहने लगा, “प्यार नहीं, एहसान। बाबू, वह एहसान चुका रही है। माला का बाप नहान को एक बूढ़े के साथ बाँध रहा था। तब यही सूरज रोती-कलपती माला को छिपाकर यहाँ ले आया था। इसी एहसान को पगली प्यार समझती है और साथ रहने को शादी।”
“क्या? इनकी शादी नहीं हुई?”
नंदू मुझ पर ही तंज़ करने लगा, “तुम भी बौड़म हो बाबू! दोनों जात एक होती तभी तो शादी होती इसलिए मैं उससे कहता हूँ—सूरज को छोड़। मेरे साथ सगाई कर ले। हमारी तो जात भी एक है।”
नंदू मुझे और रहस्यमय लगने लगा था। नहान, नंदू और सूरज के सम्बन्धों में रहस्य की इतनी परतें होंगी, यह मैंने सोचा नहीं था। इतनी मामूली ज़िन्दगी और इतनी गहराई। अब तक मैं इन लोगों से ख़ुद को श्रेष्ठ समझता था। अब मुझे ख़ुद पर शर्म आ रही थी।
मैं बमुश्किल बोल सका, “बहुत ऊँची औरत है, मगर इतना नहाती क्यों है?”
मेरे सवाल पर नंदू ज़ोर से हँसा, “मेरे छूने से वह जूठी हो गई सो नहाती रहती है। मैं उसका रास्ता भी लाँघ दूँ तो नहाने पर ही उसे चैन आएगा।”
“लेकिन थोड़ी देर पहले तो तुमने उसको सहारा देकर रिक्शे से नीचे उतारा था। क्या वह अभी नहाएगी?”
नंदू हँसने लगा। उसे हँसता छोड़ मैं कमरे से बाहर निकला तो देखा कि नहान बाथरूम से नहाकर निकल रही थी। नहान का रहस्य मेरी समझ में आ गया था।
लेकिन नहान के लिए नंदू का इंतज़ार मुझे और रहस्यमय लगने लगा।
मन्नू भण्डारी की कहानी 'अकेली'