‘Nahi Ho Tum Khoobsurat’, a poem by Pallavi Vinod
हाँ! नहीं हो तुम,
ख़ूबसूरत कोमलांगी
श्वेत साड़ी में लिपटी
भीगती नायिका-सी
तुम तो गमक हो सोंधी माटी की
जिसको महसूस कर रोमांचित हो जाता हूँ मैं।
औ जब तुम, चीरती हो विकृत भीड़, क़दम बढ़ाकर
तुम्हारी कोमलता का नव रूप देख पाता हूँ मैं।
हाँ! नहीं हो तुम,
वक्ष, कमर व नितम्ब के
मानक अनुपातों में बँटी
पर जब मेरी गृहस्थी का गणित
अनुपातों में रखकर जोड़ती हो
मन ही मन अपने भाग पर इतराता हूँ मैं।
हाँ! नहीं हो तुम
तीखे नैन, उभरे होंठ की
कृत्रिमता में पुती
नायिका-सी
पर जब रसोई की गंध ले,
थकी-उलझी लटें खोल, हो मुझमें सिमटती
तुम्हारी चंचल आँखों की मादकता में मदहोश हो जाता हूँ मैं।
हाँ! नहीं हो तुम
किसी फिल्मी माँ सी कमसिन
पर जब सींचती हो
मेरा अंश अपने स्नेह से
स्थूलता भुला इस देह की
जब उसपर रीझती हो
तुम्हारी मातृ शक्ति के परिचय से सम्मोहित हो जाता हूँ मैं।
हाँ! नहीं हो तुम
किसी अप्सरा सी
शोभना सी
तारिका सी
पर जब-जब तुम्हारे विविध रूप से
टकराता हूँ मैं,
हर रूप के सौंदर्य से सँवर जाता हूँ मैं।