असफलता के क्रूर प्रहारों ने इतनी चोट कभी नहीं पहुंचाई थी जितनी नैना के चले जाने ने। निशांत के निःसार जीवन की सरसता शहरों की गर्म सड़कों पर बन-मरीचिका की भाँति ओझल हो चुकी थी। सोशल मीडिया के जमाने में उसने अब तक कितने खाते बनाये और मिटाये थे, ये अब उसे याद भी नहीं है। उपन्यासों को पढ़-पढ़ कर उनके चरित्रों जैसे जीवन की कामना शायद सच हो रही थी।

नैना की आँखों से रूमानी जीवन चित्रों को देखे जाने वाले सपने चूर-चूर हो चुके थे। निशांत ने अपने जीवन में अर्थ की सम्भावना हमेशा परीक्षा-जनित सफलताओं में ही देखी थी जिनका दूर-दूर तक कोई निशान नहीं था। हाँ, नैना के गाहे-बेगाहे आने वाले सन्देश कुछ कुरेद जाते थे।

कितना क्षणिक था सब!

शायद, प्रेम क्षणिक ही होता है। हम सब अपनी नश्वरता को छिपाने के लिये प्रेम में अमरत्व का भाव भरते हैं, पर जो शरीर से जुड़ा है वो निश्छल हो सकता है, पर अमर नहीं। गुनाहों का देवता वाला चन्दर या असली जीवन का साहिर बनने की तमन्ना निशांत को काफी भारी पड़ गयी थी। आज की सुबह भी बिना नींद वाली रात के कारण काली ही थी। मन में किसी प्रकार का उत्साह नहीं था। साँस चल रही है इसलिये जीने का उपक्रम भी चल रहा है। तभी नीचे से एक चिंतित आवाज़ आयी।

“निशांत, नौ बज गये हैं, अभी तक नहीं उठे क्या?” माँ के प्रश्न में जल्दबाज़ी, चिंता और खीझ का मिश्रण था। उनके अनुसार उनका लाडला बेटा बहुत परेशान है और वो कुछ कर नहीं पा रही हैं।

व्हाट्सऐप पर नैना के पुराने संदेशों को पढ़ रहे निशांत ने अनमने मन से जवाब दिया, “बस उठ रहा हूँ माँ। रात में देर तक पढ़ने के बाद सुबह तीन बजे सोया हूँ। बस पंद्रह मिनट और।” सच्चाई यह थी कि निशांत चाह रहा था कि माँ के ऑफिस जाने के बाद नीचे उतरे। सच्चे सवालों के झूठे उत्तर देने का इस से अच्छा और कोई तरीका उसे नहीं आता था।

थोड़ी देर बाद नीचे उतरते हुये निशांत ने अधखुली आँखों से घर से सबको विदा करते हुये घर के दरवाज़े बंद कर लिये। दोपहर कैसे बीतेगी इसी उधेड़बुन में उसने टूथब्रश मसूड़े पर घिस लिया। पूरा मुंह अंदर से झनझना उठा और स्वतः ही अश्रुधारा बह पड़ी। ना जाने क्यों, निशांत फूट-फूट कर रो पड़ा। इस छोटी सी चोट ने रोने का बहाना दे दिया। वो जहाँ था बस वहीं बैठ कर सिसकने लगा।

बहते आंसुओं की निरर्थकता मोहल्ले के कोने में लगे नल से बहते पानी से अधिक न थी। जानते सब हैं कि पानी कीमती है पर नल कोई बंद नहीं करता। और नल में जब स्वयं ही दोष हो तो पानी का लगातार टपकना कोई अनोखी बात नहीं है।

निशान्त एक बिगड़ा हुआ नल है जिससे हमदर्दी सबको है पर उसके दर्द का इलाज किसी के पास नहीं है। इंसान अपने मर्ज़ का इलाज खुद ही होता है, पर जब तक यह समझ आता है तब तक बहुत पानी बह चुका होता है। आंसू नदी का रूप ले रहे थे पर निशांत की आँखें सूख रही थीं। सपने सूख रहे थे। बस जीवन चल रहा था।