‘Namurad Aurat’, a poem by Asad Zaidi
नामुराद औरत
रोटी जला देती है
बीस साल पहले किसी ने
इसकी लुटिया डुबो दी थी
प्यार में
नामुराद औरत के पास
उस वक़्त
दो जोड़ी कपड़े थे
नामुराद औरत भूल गई थी
दुपट्टा ओढ़ने का सलीक़ा
नामुराद औरत की
फटी थी घुटनों पर से शलवार
इतने बरस बीत गए
बेशरम उतनी ही है
बेशऊर उतनी ही है
अब तो देखो इसकी
एक आँख भी जा रही है!
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