‘Nanhi Bachchiyaan’, a poem by Nirmal Gupt
दो नन्ही बच्चियाँ घर की चौखट पर बैठीं
पत्थर उछालती, खेलती हैं कोई खेल
वे कहती हैं इसे- गिट्टक!
इसमें न कोई जीतता है, न कोई हारता है
बतकही और खिलखिलाहट में गुज़रता है वक़्त
दो नटखट सहेलियाँ देखते ही देखते
सयानी हुई जाती हैं
उनके पास देखने लायक कोई ढंग का सपना तक नहीं
सिर्फ़ है लिया-दिया सा बेरंग बचपना
बाहर मेह बरसता न होता
वे देर तक कीचड़ में इक्क्ल-दुक्कल खेलतीं
एक राजकुमारी है, दूसरी नसीबन
कतरे हुए कच्चे आम पर नमक बुरककर
सी-सी करते हुए खाना उन्हें ख़ूब भाता है
वे जानती हैं अपना धर्म, अपना मज़हब
ईद की राम-राम और दिवाली की मुबारकबाद
बेरोकटोक पहुँच जाती है एक-दूजे के पास
फ़िलहाल माहौल ज़रा तनी हुई रस्सी-सा है
गाँठ ही गाँठ लगी हैं चारों ओर
लोग सिर जोड़कर बतियाने की जगह
रगड़ रहे अपने नाख़ून खुरदरे समय के सान पर
बच्चियाँ मन मसोसे बन्द दरवाज़ों के पीछे से
तिरा रही हैं अदृश्य बोसों के कनकौए बड़ी उम्मीद के साथ
बच्चियाँ कहती हैं ऊपर वाले से
अपनी दुआओं में, हे परवरदिगार!
हमें संग-संग गिट्टक खेलने का थोड़ा-सा मौक़ा
फुदकने लायक ज़रा-सा सपाट आँगन दे दे
और फिर कुछ दे या न ही दे
बात-बात पर किलकने की सोहबत तो दे ही दे…
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