चाहे हिन्दू नारी की गौरव-गाथा से आकाश गूँज रहा हो, चाहे उसके पतन से पाताल काँप उठा हो परन्तु उसके लिए ‘न सावन सूखे न भादों हरे’ की कहावत ही चरितार्थ होती रही है। उसे अपने हिमालय को लजा देने वाले उत्कर्ष तथा समुद्रतल की गहराई से स्पर्धा करने वाले अपकर्ष दोनों का इतिहास आँसुओं से लिखना पड़ा है और सम्भव है भविष्य में भी लिखना पड़े। प्राचीन से प्राचीनतम काल में जब उसने त्याग, संयम तथा आत्मदान की आग में अपना सारा व्यक्तित्व, सारी सजीवता और मनुष्य-स्वभावोचित इच्छाएँ तिल-तिल गलाकर उन्हें कठोर आदर्श के साँचे में ढालकर एक देवता की मूर्ति गढ़ डाली, तब भी क्या संसार विस्मित हुए या मनुष्यता कातर हुई? क्या नारी के बड़े से बड़े त्याग को, आत्म-निवेदन को, संसार ने अपना अधिकार नहीं किन्तु उसका अद्भुत दान समझकर नम्रता से स्वीकार किया है? कम से कम इतिहास तो नहीं बताता कि उसके किसी बलिदान को पुरुष ने उसकी दुर्बलता के अतिरिक्त कुछ और समझने का प्रयत्न किया।
अग्नि में बैठकर अपने आपको पतिप्राणा प्रमाणित करने वाली स्फटिक-सी स्वच्छ सीता में नारी की अनन्त युगों की वेदना साकार हो गई है। कौन कह सकता है, उस भागते हुए युग ने अपनी उस अलौकिक कृति, अपने मनुष्यत्व की क्षुद्र सीमा में बँधे विशाल देवत्व की ओर एक बार मुड़कर देखने का भी कष्ट सहा! मनुष्य की साधारण दुर्बलता से युक्त दीन माता का वध करते हुए न पराक्रमी परशुराम का हृदय पिघला, न मनुष्यता की असाधारण गरिमा से गुरु सीता को पृथ्वी में समाहित करते हुए राम का हृदय विदीर्ण हुआ। मानो पुरुष-समाज के निकट दोनों जीवनों का एक ही मूल्य था। एक जीवित व्यक्ति का इतना कठोर त्याग, इतना निर्मम बलिदान दूसरा हृदयवान व्यक्ति इतने अकातर भाव से स्वीकार कर सकता है, यह कल्पना में भी क्लेश देती है, वास्तविकता का तो कहना ही क्या!
इस विषमता का युगान्तरदीर्घ कारण केवल एक ही कहा जा सकता है—दुर्बलता, जिसका प्रायः कोमलता के नाम से नामकरण किया जाता है। नारी के स्वभाव में कोमलता के आवरण में जो दुर्बलता छिप गई है, वही उसके शरीर में सुकुमारता बन गई। यह सत्य नहीं है कि वह इस दुर्बलता पर विजय नहीं पा सकती, पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि वह अनादि काल से उसे अपना अलंकार समझती रहने के कारण त्यागने पर उद्यत ही नहीं होती। उसके विचार में इसके बिना नारीत्व अधूरा है। दुर्बलता मनुष्य-जीवन का अभिशाप रही है और रहेगी। परन्तु शरीर और मन दोनों से सम्बन्ध रखने वाली दुर्बलताओं में कौन घोरतर अभिशाप है, यह कहना कठिन है। समयविशेष तथा अवस्थाविशेष के अनुसार हम पशुबल तथा मानसिक बल का प्रयोग करने पर विवश होते हैं और समय तथा अवस्था के अनुसार ही हमारे लिए मानसिक और शारीरिक दुर्बलताएँ अभिशाप सिद्ध होती रही हैं। जीवन में इन दोनों शक्तियों का समन्वय ही सफलता का विधायक रहा है अवश्य, परन्तु यह कहना असत्य न होगा कि प्रायः एक शक्ति की न्यूनता दूसरी की अधिकता से भर जाती है। विशेषकर नारी के लिए पशुबल की न्यूनता को आत्मबल से पूर्ण कर लेना स्वभावसिद्ध है। वह यदि सम्मुख युद्ध में अस्त्र-सञ्चालन-द्वारा प्रतिद्वन्द्वियों को विस्मित कर सकी है तो बिना अस्त्र के या बलदर्शन के असंख्य विपक्षियों से घिरी रहकर भी अपने सम्मान की रक्षा कर चुकी है।
नारी ने अपनी शक्ति को कभी जाना और कभी नहीं जाना। वर्तमान युग तो उसके न जानने की ही करुण कहानी है। नारीत्व की कोमलता नाम से पुकारी जाने वाली दुर्बलता के साथ सदा से बँधी हुई वेदना और तज्जनित आपत्ति प्रत्येक युग तथा प्रत्येक परिस्थिति में नवीन रूप में आती रही है, परन्तु उसकी वर्तमान दशा करुणतम है। उसके आज के और अतीत के बलिदानों में उतना ही अन्तर है जितना स्वेच्छा से स्वीकृत नारीत्व की गरिमा से गौरववती के जौहर-व्रत और बलात् लाठियों से घेर-घारकर बलिपशु के समान झोंकी जाने वाली नारी के अग्निप्रवेश में। आज की मातृशक्ति की वेदना भार से जर्जर परन्तु अपने कष्ट के कारण या निराकरण के साधनों से एकदम अनभिज्ञ मूक पशु के करुण नेत्रों से बहती हुई अश्रुधारा के समान ही निरन्तर प्रवाहित हो रही है। वह स्वयं अपनी वेदना के कारण नहीं जानती और न अपने असह्य कष्ट के प्रतिकार की भावना से परिचित है। जिन कष्टों से उसके जीवन का एक बार भी संस्पर्श हो जाता है, उन्हें वह अपने कर्त्तव्य की परिधि में रख लेती है। कष्ट सहते-सहते उसमें क्लेश की तीव्रता के अनुभव करने की चेतना भी नहीं रही, उसकी उपयुक्तता, अनुपयुक्तता पर विचार करना तो दूर की बात है। हमारे समाज ने उसे पाषाणप्रतिमा के समान सर्वदा एकरूप, एकरस, जीवित मनुष्य के स्पन्दन, कम्पन और विकार से रहित होकर जीने की आज्ञा दी है, अतः युगों से इसी प्रकार जीवित रहने का प्रयास करते-करते यदि वह निर्जीव-सी हो उठी तो आश्चर्य ही क्या है! हम जब बहुत समय तक अपने किसी अंग से उसकी शक्ति से अधिक कार्य लेते रहते हैं तो वह शिथिल और संज्ञाहीन-सा हुए बिना नहीं रहता। नारी जाति भी समाज को अपनी शक्ति से अधिक देकर, अपनी सहन-शक्ति से अधिक त्याग स्वीकार करके संज्ञाहीन-सी हो गई है, नहीं तो क्या बलिष्ठ से बलिष्ठ व्यक्ति को दहला देने वाली, कठोर से कठोर व्यक्ति को रुला देने वाली यन्त्रणाएँ वह इतने मूक भाव से सहती रह सकती!
हिन्दू नारी का, घर और समाज इन्हीं दो से विशेष सम्पर्क रहता है। परन्तु इन दोनों ही स्थानों में उसकी स्थिति कितनी करुण है, इसके विचारमात्र से ही किसी भी सहृदय का हृदय काँपे बिना नहीं रहता। अपने पितृगृह में उसे वैसा ही स्थान मिलता है जैसा किसी दुकान में उस वस्तु को प्राप्त होता है जिसके रखने और बेचने दोनों ही में दुकानदार को हानि की सम्भावना रहती है। जिस घर में उसके जीवन को ढलकर बनना पड़ता है, उसके चरित्र को एक विशेष रूप-रेखा धारण करनी पड़ती है, जिस पर वह अपने शैशव का सारा स्नेह ढुलकाकर भी तृप्त नहीं होती, उसी घर में वह भिक्षुक के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। दुःख के समय अपने आहत हृदय और शिथिल शरीर को लेकर वह उसमें विश्राम नहीं पाती, भूल के समय वह अपना लज्जित मुख उसके स्नेहाँचल में नहीं छिपा सकती और आपत्ति के समय एक मुट्ठी अन्न की भी उस घर से आशा नहीं रख सकती। ऐसी ही है उसकी वह अभागी जन्मभूमि, जो जीवित रहने के अतिरिक्त और कोई अधिकार नहीं देती! पतिगृह, जहाँ इस उपेक्षित प्राणी को जीवन का शेष भाग व्यतीत करना पड़ता है, अधिकार में उससे कुछ अधिक परन्तु सहानुभूति में उससे बहुत कम है, इसमें संदेह नहीं। यहाँ उसकी स्थिति पल-भर भी आशंका से रहित नहीं। यदि वह विद्वान पति की इच्छानुकूल विदुषी नहीं है तो उसका स्थान दूसरी को दिया जा सकता है, यदि वह सौन्दर्योपासक पति की कल्पना के अनुरूप अप्सरा नहीं है तो उसे अपना स्थान रिक्त कर देने का आदेश दिया जा सकता है, यदि वह पति-कामना का विचार करके सन्तान या पुत्रों की सेना नहीं दे सकती, यदि वह रुग्ण है या दोषों का नितान्त अभाव होने पर भी पति की अप्रसन्नता की दोषी है तो भी उसे उस घर में दासत्व स्वीकार करना पड़ेगा।
इस विषय में उसके ‘क्यों’ का उत्तर देने को गृहस्वामी बाध्य नहीं, समाज बाध्य नहीं और धर्म भी बाध्य नहीं। परन्तु यदि स्त्री ऐसे घर को, ऐसी अस्थायी स्थिति को, संतोषजनक न समझे तो उसे इन सबके निकट दोषी होना पड़ेगा। उसे अपने विषय में कुछ सोचने-समझने का अधिकार नहीं, क्योंकि उसका जीवन ‘वृद्ध रोगवश जड़ धनहीना’ में से जो पिता का बोझ हल्का करने में समर्थ हो गया, उसी को जन्म-जन्मान्तर के लिए निवेदित हो गया। चाहे वह स्वर्णपिंजर की बन्दिनी हो चाहे लौहपिंजर की, परन्तु बन्दिनी तो वह है ही और ऐसी कि जिसके निकट स्वतन्त्रता का विचार तक पाप कहा जाएगा। ‘स्त्री न स्वातंत्र्यम् अर्हति’ शास्त्र ने कहा है न! जिसके चरणों में उसका जीवन निवेदित है, यदि वह उसे सन्दूक़ में बन्द बालक की गुड़िया के समान संसार की दृष्टि से, सूर्य की धूप और पवन के स्पर्श से बचाकर रखना चाहता है तो भी सब इस कार्य के लिए उसे साधुवाद ही देना उचित समझेंगे। उनके विचार में नारी मानवी नहीं, देवी है और देवताओं को मनुष्य के लिए आवश्यक सुविधाओं का करना ही क्या है! नारी के देवत्व की कैसी विडम्बना है!
यदि दुर्भाग्य से स्त्री के मस्तक का सिन्दूर धुल गया तब तो उसके लिए संसार ही नष्ट हो गया। यह ऐसा अपराध है जिसके कारण उसे मृत्यु-दण्ड से भी भीषणतर दण्ड भोगते हुए तिल-तिल घुलकर जीवन के शेष, युग बन जानेवाले क्षण व्यतीत करने होते हैं। ऐसी परिस्थिति में यदि दीर्घकाल तक गुड़िया बनी रहने वाली स्त्री मातृत्व के उत्तरदायित्व से युक्त होती है तो उसे अपने अभिशापमय जीवन के साथ अनेक दुधमुँहे बालकों को लेकर ऐसे अन्धकार में मार्ग ढूँढना पड़ता है जिसमें प्रत्येक यात्री दूसरे को भ्रान्ति में डाल देना अपराध ही नहीं समझता। यदि वह अबोध बालिका है तो भी समाज और परिवार, सनातन नियम के पालन में अपने आपको राजा हरिश्चन्द्र से अधिक दृढ़प्रतिज्ञ प्रमाणित करने में पीछे न रहेंगे। जिन मानवीय दुर्बलताओं को वे स्वयं अविरत संयम और अटूट साधना से भी जीवन के अन्तिम क्षणों तक न जीत सकेंगे, उन्हीं दुर्बलताओं को, किसी भूली हुई अस्पष्ट सुधि द्वारा जीत लेने का आदेश वे उन अबोध बालिकाओं को दे डालेंगे जो जीवन से अपरिचित हैं। उनकी आज्ञा है, उनके शास्त्रों की आज्ञा है और कदाचित् उनके निर्मम ईश्वर की भी आज्ञा है कि वे जीवन की प्रथम अँगड़ाई को अन्तिम प्राणायाम में परिवर्तित कर दें, आशा की पहली सुनहली किरण को विषाद के निविड़ अन्धकार में समाहित कर दें और सुख के मधुर पुलक को आँसुओं में बहा डालें। इस विराग की साधना के लिए उन्हें अनन्त प्रलोभनों से भरे हुए, वैभव से सजे हुए और बधिकों से पूर्ण स्थान के अतिरिक्त कोई एकांत स्थान भी मिल नहीं पाता।
इतने प्रकार के शारीरिक और मानसिक कष्टों को देकर भी स्त्री के दुर्भाग्य को सन्तोष नहीं हुआ, इसका प्रमाण आज की नारी-अपहरण की समस्या है। नारी-जीवन की उस करुण कहानी का इससे घोरतर उपसंहार और हो भी क्या सकता था? जिस रूप से, जिन साधनों के द्वारा इस लोमहर्षक कार्य का सम्पादन हो रहा है, उसे सुनकर निर्जीव भी जाग जाते, परन्तु हमारी निद्रा तो मृत्यु की महानिद्रा को भी लजा देनेवाली हो गई है, बिना सर्वनाश के उसका टूटना सम्भव नहीं। अपहृत हिन्दू स्त्रियों में कुछ तो ऐसी रहती हैं जिनका जीवन गृह और समाज की अमानुषिक यातनाओं से इतना दुर्वह हो जाता है कि छुटकारे का कोई भी द्वार उन्हें बुरा नहीं लगता और वे बहकावे में आकर एक नरक से बचने के लिए दूसरे नरक की शरण लेने को उद्यत हो जाती हैं! उनका आहत हृदय इतना चेतनाशून्य हो उठता है कि उसमें मानापमान का अनुभव करने की शक्ति ही नहीं रह जाती है। उन्हें तो घायल के समान क्षण-भर के लिए ऐसा स्थान चाहिए जहाँ उनके शीर्ण शरीर को कुछ विश्राम मिल सके, अतः सहानुभूति के—चाहे वह सच्ची हो या झूठी—दो शब्द उन्हें बेदाम ख़रीद सकते हैं। यदि ऐसे हृदयों को समय पर हमीं से आश्वासन तथा सान्त्वना मिल सकती, यदि हमीं इन्हें मनुष्य समझ सकते, वर्षों से जम-जमकर इनके जीवन को पाषाण बनाने वाली आँसुओं की करुण कहानी सुन लेते और इनके असह्य दुःख-भार को अपनी सहानुभूति से हल्का करने का प्रयत्न कर सकते तो आज का इतिहास कुछ और ही हो जाता। परन्तु हम पशु-पक्षियों को, पाषाणों को, अपनी सहानुभूति बाँट सकते हैं; नारी को निर्मम आदेश के अतिरिक्त और कुछ नहीं दे पाते। देवता की भूख हम समझते हैं, परन्तु मानवी की नहीं! इसके अतिरिक्त ऐसी महिलाओं की संख्या भी कम नहीं, जिनका बलात् अपहरण किए जाने पर भी खोज के लिए विशेष प्रयत्न नहीं होता। पत्रों में प्रकाशित ऐसी घटनाओं की संख्या भी कम नहीं, अप्रकाशित अपहरण कहानियों के विषय में तो कुछ कहना ही व्यर्थ है। इन अभागिनियों के उद्धार के लिए जो उपाय किया जा रहा है, वह तो बहुत सराहनीय नहीं जान पड़ता। जिस समाज में ऐसी घटनाएँ 12-13 की संख्या में प्रतिदिन घटित होती हों, उसके युवकों को सुख की नींद आना संसार का आठवाँ आश्चर्य है।
कुछ अधिक तर्कशील पुरुषों का कहना है कि स्त्रियों को स्वयं अपनी रक्षा करने से कौन रोकता है? इस कथन पर हँसना चाहिए या रोना, यह नहीं कहा जा सकता। युगों की कठोर यातना और निर्मम दासत्व ने स्त्रियों को अपनापन भी भुला देने पर विवश न किया होता तो क्या आज ये अपने सम्मान की रक्षा में समर्थ न हो सकतीं? आज विवश पशु के समान इन्हें हाँक ले जाना इसलिए सहज है कि ये पशुओं की श्रेणी में बैठा दी गई हैं और ज्ञानशून्य कर्म के अतिरिक्त और किसी वस्तु का इन्हें बोध नहीं है। आज भी इनमें जो मनुष्य कहलाने की अधिकारी हैं, उन्हें अपनी रक्षा के लिए शस्त्र या सैनिक नहीं रखने पड़ते! पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक उनकी गति अबाध है। उनके जीवन में साहस की शक्ति और आत्मसम्मान की गरिमा, प्राणों में आशा और सुनहली कल्पना है। परन्तु ऐसी सजीव नारियाँ उँगलियों पर गिनने योग्य हैं। इच्छा और प्रयत्न से अन्य बहिनें भी अपनी रक्षा में स्वयं समर्थ हो सकती हैं इसमें सन्देह नहीं, परन्तु इस इच्छा और प्रयत्न का जन्म उनके हृदय में सहज ही न हो सकेगा। वे तो आत्मनिर्भरता भूल ही चुकी हैं फिर उसकी उपयोगिता कैसे समझ सकेंगी; उनके जीवन को सुव्यवस्थित करने तथा उन्हें मनुष्यता की परिधि में लौटा लाने का प्रयत्न कुछ विदुषी बहिनें तथा पुरुष समाज ही कर सकता है। परन्तु यह न भूलना चाहिए कि जिस समय घर में आग लगती है, उसी समय कुआँ खोदनेवाले को राख के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता, इसी से आपत्ति का धर्म सम्पत्ति के धर्म से भिन्न कहा गया है। इस समय आवश्यकता है एक ऐसे देशव्यापी आन्दोलन की, जो सबको सजग कर दे, उन्हें इस दिशा में प्रयत्नशीलता दे और नारी की वेदना का यथार्थ अनुभव करने के लिए उनके हृदय को सम्वेदनशील बना दे जिससे मनुष्य जाति के कलंक के समान लगने वाले इन अत्याचारों का तुरन्त अन्त हो जाए, अन्यथा नारी के लिए नारीत्व अभिशाप तो है ही।
महादेवी वर्मा का लेख 'स्त्री के अर्थ-स्वातन्त्रय का प्रश्न'