आज, ज़िन्दगी
मसीहा बनना चाहती है
कब्रें खोद-खोद
गड़े मुर्दे उखाड़
हरेक को
तर्क वितर्क की सीमाओं में
कायर और भ्रष्ट
सिद्ध करना चाहती है।
आज, जिन्दगी
मसीहा बनना चाहती है।
क्रॉस पर टंगे ईसा
सुजाता की खीर पाते बुद्ध
वैष्णव जन गाते गांधी
अहिंसक उपदेशों वाले महावीर
इन्तकाम पिपासी नारी की
सेवा सुश्रुषा करते मुहम्मद से
आज हम
किस कदर कम हैं
कितनी दौड़
कितने भाषण-संभाषण
फूल मालाओं के अम्बार
कोटि करतल ध्वनि के अलावा
दुनिया
हमसे और कौन सा
प्रमाण पत्र चाहती है।
आज, जिन्दगी
मसीहा बनना चाहती है।
हमने लिखी हैं
टीकाएँ
हम प्रतिपादित कर चुके
पूर्ववर्ती सरकारों के गुणगान
(वीरगाथा काल के समान)
परिवर्तित सरकारों के ‘मान’
हमने हृदय परिवर्तन किया
अब और दुनिया
कौन सा परिवर्तन चाहती है
आज, ज़िन्दगी
मसीहा बनना चाहती है।