जीवन की नीरवता को भरने को
क्या-क्या किये हे मनुज जतन
माया, मोह का जाल बिछाया
रहे सदा ही मुग्ध स्वयं
क्या ये नीरवता क्षणिक ही है
नीरव धरती, नीरव आकाश
नीरव जल है और थल नीरव
नीरव पतझड़, नीरव बहार
नित नीरवता के भरने को
क्या सोच रहा हे मनुज जतन
नीरव जो है भरेगा वह सम्पूर्ण
जब आत्म खण्ड से मिलकर
वह बनेगा प्रकाशपुंज।