Saadat Hasan Manto’s Letter to Jawaharlal Nehru
उर्दू से अनुवाद : डॉ. जानकी प्रसाद शर्मा

पंडित जी,

अस्‍सलाम अलैकुम।

यह मेरा पहला ख़त है जो मैं आपको भेज रहा हूँ। आप माशा अल्‍लाह अमरीकनों में बड़े हसीन माने जाते हैं। लेकिन मैं समझता हूँ कि मेरे नाक-नक्श भी कुछ ऐसे बुरे नहीं हैं। अगर मैं अमरीका जाऊँ तो शायद मुझे हुस्‍न का रुतबा अता हो जाए। लेकिन आप भारत के प्रधानमंत्री हैं और मैं पाकिस्‍तान का महान कथाकार। इन दोनों में बड़ा अंतर है। बहरहाल हम दोनों में एक चीज़ साझा है कि आप कश्‍मीरी हैं और मैं भी। आप नेहरू हैं, मैं मंटो… कश्‍मीरी होने का दूसरा मतलब ख़ूबसूरती और ख़ूबसूरती का मतलब, जो अभी तक मैंने नहीं देखा।

मुद्दत से मेरी इच्‍छा थी कि मैं आपसे मिलूँ (शायद बशर्ते ज़िन्दगी मुलाक़ात हो भी जाए)। मेरे बुज़ुर्ग तो आपके बुज़ुर्गों से अक्सर मिलते-जुलते रहे हैं लेकिन यहाँ कोई ऐसी सूरत न निकली कि आपसे मुलाक़ात हो सके।

यह कैसी ट्रेजडी है कि मैंने आपको देखा तक नहीं। आवाज़ रेडियो पर अल‍बत्ता ज़रूर सुनी है, वह भी एक बार।

जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि मुद्दत से मेरी इच्‍छा थी कि आपसे मिलूँ, इसलिए कि आपसे मेरा कश्‍मीर का रिश्‍ता है, लेकिन अब सोचता हूँ इसकी ज़रूरत ही क्‍या है? कश्‍मीरी किसी न किसी रास्‍ते से, किसी न किसी चौराहे पर दूसरे कश्‍मीरी से मिल ही जाता है।

आप किसी नहर के क़रीब आबाद हुए और नेहरू हो गये और मैं अब तक सोचता हूँ कि मंटो कैसे हो गया? आपने तो ख़ैर लाखों बार कश्‍मीर देखा होगा। मुझे सिर्फ़ बानिहाल तक जाना नसीब हुआ है। मेरे कश्‍मीरी दोस्‍त जो कश्‍मीरी ज़बान जानते हैं, मुझे बताते हैं कि मंटो का मतलब ‘मंट’ है यानी डेढ़ सेर का बट्टा। आप यक़ीनन कश्‍मीरी ज़बान जानते होंगे। इसका जवाब लिखने की अगर आप ज़हमत फ़रमाएँगे तो मुझे ज़रूर लिखिए कि ‘मंटो’ नामकरण की वजह क्‍या है?

अगर मैं सिर्फ़ डेढ़ सेर हूँ तो मेरा आपका मुक़ाबला नहीं। आप पूरी नहर हैं और मैं सिर्फ़ डेढ़ सेर। आपसे मैं कैसे टक्‍कर ले सकता हूँ? लेकिन हम दोनों ऐसी बंदूकें हैं जो कश्‍मीरियों के बारे में प्रचलित कहावत के अनुसार ‘धूप में ठस करती हैं…’

मुआफ़ कीजिएगा, आप इसका बुरा न मानिएगा। मैंने भी यह फ़र्जी कहावत सुनी तो कश्‍मीरी होने की वजह से मेरा तन-बदन जल गया। चूँकि यह दिलचस्‍प है, इसलिए मैंने इसका ज़िक्र तफ़रीह के लिए कर दिया है। हालाँकि मैं आप दोनों अच्‍छी तरह जानते हैं कि हम कश्‍मीरी किसी मैदान में आज तक नहीं हारे।

राजनीति में आपका नाम मैं बड़े गर्व के साथ ले सकता हूँ क्‍योंकि बात कह कर फ़ौरन खंडन करना आप ख़ूब जानते हैं। पहलवानी में हम कश्‍मीरियों को आज तक किसने हराया है, शाइरी में हमसे कौन बाज़ी ले सका है। लेकिन मुझे यह सुनकर हैरत हुई है कि आप हमारा दरिया बंद कर रहे हैं। लेकिन पंडित जी, आप तो सिर्फ़ नेहरू हैं। अफ़सोस कि मैं डेढ़ सेर का बट्टा हूँ। अगर मैं तीस-चालीस हज़ार मन का पत्‍थर होता तो ख़ुद को इस दरिया में लुढ़ा देता कि आप कुछ देर के लिए इसको निकालने के लिए अपने इंजीनियरों से मशविरा करते रहते।

पंडित जी, इसमें कोई शक नहीं कि आप बहुत बड़े आदमी हैं, आप भारत के प्रधान मंत्री हैं। उस पर मुल्‍क, जिससे हमारा संबंध रहा है, आपकी हुक्‍मरानी है। आप सब कुछ हैं लेकिन गुस्ताख़ी मुआफ़ कि आपने इस ख़ाकसार (जो कश्मीरी है) की किसी बात की परवाह नहीं की।

देखिए, मैं आपसे एक दिलचस्‍प बात का ज़िक्र करता हूँ। मेरे वालिद साहब (स्‍वर्गीय), जो ज़ाहिर है कि कश्‍मीरी थे, जब किसी हातो को देखते तो घर ले आते, ड्योढ़ी में बिठाकर उसे नमकीन चाय पिलाते साथ कुलचा भी होता। इसके बाद वे बड़े गर्व से उस हातो से कहते, “मैं भी काशर हूँ।”

पंडित जी, आप काशर हैं… ख़ुदा की क़सम अगर आप मेरी जान लेना चाहें तो हर वक़्त हाज़िर है। मैं जानता हूँ बल्कि समझता हूँ कि आप सिर्फ़ इसलिए कश्‍मीर के साथ चिमटे हुए हैं कि आपको कश्‍मीरी होने के कारण कश्‍मीर से चुम्बकीय क़िस्म का प्‍यार है। यह हर कश्‍मीरी को चाहे उसने कश्‍मीर कभी देखा भी हो या न देखा हो, होना चाहिए।

जैसा कि मैं इस ख़त में पहले लिख चुका हूँ। मैं सिर्फ़ बानिहाल तक गया हूँ। कद, बटौत, किश्‍तबार ये सब इलाके मैंने देखे हैं लेकिन हुस्‍न के साथ मैंने दरिद्रता देखी। अगर आपने दरिद्रता को दूर कर दिया है तो आप कश्‍मीर अपने पास रखिए। मगर मुझे यक़ीन है कि आप कश्‍मीरी होने के बावजूद उसे दूर नहीं कर सकते, इसलिए कि आपको इतनी फुरसत ही नहीं।

आप ऐसा क्‍यों नहीं करते… मैं आपका पंडित भाई हूँ, मुझे बुला लीजिए। मैं पहले आपके घर शलजम की शब देग खाऊँगा। इसके बाद कश्‍मीर का सारा काम सम्भाल लूँगा। ये बख़्शी वगैरह अब बख़्श देने के क़ाबिल है… अव्वल दर्जे के चार सौ बीस हैं। इन्‍हें आपने ख़्वाहमख़्वाह अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ आला रुतबा बख़्श रखा है… आख़िर क्‍यों? मैं समझता हूँ कि आप राजनेता हैं जो कि मैं नहीं हूँ। लेकिन यह मतलब नहीं कि मैं कोई बात समझ न सकूँ।

आप अंग्रेज़ी ज़बान के लेखक हैं। मैं भी यहाँ उर्दू में कहानियाँ लिखता हूँ… उस ज़बान में जिसको आपके हिंदुस्‍तान में मिटाने की कोशिश की जा रही है। पंडित जी, मैं आपके बयान पढ़ता रहता हूँ। इनसे मैंने यह नतीजा निकाला है कि आपको उर्दू से प्‍यार है। लेकिन मैंने आपकी एक तक़रीर रेडियो पर, जब हिंदुस्‍तान के दो टुकड़े हुए थे, सुनी… आपकी अंग्रेज़ी के तो सब क़ायल हैं लेकिन जब आपने नाम निहाद उर्दू में बोलना शुरू किया तो ऐसा मालूम होता था कि आपकी अंग्रेज़ी तक़रीर का तर्जुमा किसी ने ऐसा किया है जिसे पढ़ते वक़्त आपकी ज़बान का ज़ायक़ा दुरुस्त नहीं था। आप हर फ़िक्रे पर उबकाइयाँ ले रहे थे।

मेरी समझ में नहीं आता कि आपने ऐसी तहरीर पढ़ना क़ुबूल कैसे किया… यह उस ज़माने की बात है जब रैडक्लिफ़ ने हिंदुस्‍तान की डबल रोटी के दो तोश बना कर रख दिए थे लेकिन अफ़सोस है अभी तक वे सेंके नहीं गए। उधर आप सेंक रहे हैं और इधर हम। लेकिन आपकी हमारी अंगीठियों में आग बाहर से आ रही है।

पं‍डित जी, आजकल बगू गोशों का मौसम है… गोशे तो ख़ैर मैंने बेशुमार देखे हैं लेकिन बगू गोशे खाने को जी बहुत चाहता है। यह आपने क्‍या जुल्‍म किया कि बख़्शी को सारा हक़ बख़्श दिया कि वह बख़्शीश में भी मुझे थोड़े से बगू गोशे नहीं भेजता।

बख़्शी जाए जहन्‍नुम में और बगू गोशे… नहीं, वे जहाँ हैं सलामत रहें। मुझे दरअसल आपसे कहना यह था, आप मेरी किताबें क्‍यों नहीं पढ़ते? आपने अगर पढ़ी हैं तो मुझे अफ़सोस है कि आपने दाद नहीं दी। और अगर नहीं पढ़ी हैं तो और भी ज़्यादा अफ़सोस का मुक़ाम है, इसलिए कि आप एक लेखक हैं।

अश्‍लील लेखन के आरोप में मुझ पर कई मुक़दमे चल चुके हैं मगर यह कितनी बड़ी ज़्यादती है कि दिल्‍ली में, आपकी नाक के ऐन नीचे वहाँ का एक पब्लिशर मेरी कहानियों का संग्रह ‘मंटो के फ़ोह्श अफसाने’ के नाम से प्रकाशित करता है।

मैंने किताब लिखी है। इसकी भूमिका यही ख़त है जो मैंने आपके नाम लिखा है… अगर यह किताब भी आपके यहाँ नाजायज़ तौर पर छप गई तो ख़ुदा की क़सम मैं किसी न किसी तरह दिल्‍ली पहुँच कर आपको पकड़ लूँगा। फिर छोड़ूँगा नहीं आपको… आपके साथ ऐसा चिमटूँगा कि आप सारी उम्र याद रखेंगे। हर रोज़ सुबह को आपसे कहूँगा कि नमकीन चाय पिलाएँ। साथ में कुलचा भी हो। शलजमों की शबदेग तो ख़ैर हर हफ़्ते के बाद ज़रूर होगी।

यह किताब छप जाए तो मैं इसकी प्रति आपको भेजूँगा। उम्‍मीद है कि आप मुझे इसकी प्राप्ति सूचना ज़रूर देंगे और मेरी तहरीर के बारे में अपनी राय से ज़रूर आगाह करेंगे।

आपको मेरे इस ख़त से जले हुए गोश्‍त की बू आएगी… आपको मालूम है, हमारे वतन कश्‍मीर में एक शाइर ‘गनी’ रहता था जो गनी काश्‍मीरी के नाम से मशहूर है। उसके पास ईरान से एक शाइर आया। उसके घर के दरवाज़े खुले थे, इसलिए कि वह घर में नहीं था। वह लोगों से कहा करता था कि मेरे घर में क्‍या है जो मैं दरवाज़े बंद रखूँ? अलबत्ता जब मैं घर में होता हूँ, दरवाजे बंद कर देता हूँ। इसलिए कि मैं ही तो इसकी इकलौती दौलत हूँ। ईरानी शाइर उसके सूने घर में अपनी बयाज़ छोड़ गया। इसमें एक शेर नामुकम्‍मल था। मिसरा सानी हो गया था, मगर मिसरा ऊला उस शाइर से नहीं कहा गया था। मिसरा सानी यह था :

कि अज लिबास तो बू-ए-कबाब भी आयद

जब वह ईरानी शाइर कुछ देर के बाद वापस आया, उसने अपनी बयाज़ देखी। मिसरा ऊला मौजूद था:

कदाम सोख्‍ता जाँ दस्‍त जो बदामानत

पंडित जी, मैं भी एक सोख्‍ताजाँ (दग्‍ध-हृदय) हूँ। मैंने आपके दामन पर अपना हाथ दिया है, इसलिए कि मैं यह किताब आपको समर्पित कर रहा हूँ।

27 अगस्‍त, 1954
सआदत हसन मंटो

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सआदत हसन मंटो
सआदत हसन मंटो (11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955) उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए।