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दिसम्बर, 2021
‘एकाकीपन के सौ वर्ष’ – गाब्रिएल मार्सिया मार्केस
‘एकाकीपन के सौ वर्ष’ की कहानी आपको विस्मित करती है; इसकी अतिरंजनाएँ आपको अवाक् और हास्य के आवेग में विह्वल छोड़ देती हैं; आप एक विराट स्मृति-गाथा के अतिमानवीय मायाजाल में धीरे-धीरे यथार्थ और वास्तविकता के कठोर पत्थरों पर पैर रखते हुए आगे बढ़ते हैं; और इस तरह मानव नियति के साथ बिंधे अनन्त अकेलेपन की एक सामूहिक गाथा के दूसरे छोर तक जाते हैं।
‘प्लेग’ – अल्बैर कामू
‘प्लेग’ में एक जनसमूह पर महामारी के रूप में आयी भीषण विपत्ति का और उससे आक्रान्त लोगों की वैयक्तिक और सामूहिक प्रतिक्रियाओं का चरम यथार्थवादी अंकन किया गया है, साथ ही सर्वग्रासी भय, आतंक, मृत्यु और तबाही के बीच अजेय मानवीय साहस की मार्मिक संघर्षगाथा भी प्रस्तुत की गई है।
अगस्त, 2021
ली मिन-युंग ताइवान के प्रमुख साहित्यकारों में शुमार हैं। वे कवि, आलोचक, निबन्धकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कविताओं का अंग्रेज़ी सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद होता रहा है। भारतीय भाषाओं में उनका अनुवाद हिन्दी और पंजाबी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है। वे प्रमुख कविता केंद्रित पत्रिका ‘ली पोएट्री’ के सम्पादक रह चुके हैं। ली मिन-युंग ‘नेशनल आर्ट्स अवार्ड इन लिट्रेचर’, ‘वू युंग-फू’ आलोचना सम्मान, ‘वू चो लिउ’ कविता सम्मान एवं ‘लाई हो’ साहित्य सम्मान सहित अन्य पुरस्कारों द्वारा नवाज़े जा चुके हैं।
ली मिन-युंग के इस काव्य संग्रह ‘हक़ीक़त के बीच दरार’ का अनुवाद युवा रचनाकार देवेश पथ सारिया ने किया है, जो मूलतः अलवर जिले के राजगढ़ निवासी हैं और खगोल-शास्त्र में पीएचडी करने के पश्चात अगस्त 2015 से ताइवान में पोस्टडॉक्ट्रल फ़ेलो के रूप में कार्यरत हैं। देवेश प्राथमिक तौर पर कवि हैं। कथेतर गद्य लेखन और कविताओं के अनुवाद में भी उनकी रुचि देखी जा सकती है। देश की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं एवं वेब माध्यमों पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित एवं प्रसारित होती रहती हैं।
जून, 2021
फ़रवरी, 2021
‘वक़्त का अजायबघर’ – निर्मल गुप्त
निर्मल जी का कवि रूप उनके व्यंग्यकार रूप से सर्वथा अलग है। कवि ने अपने कविता जगत को बड़े ही क़रीने और मितव्ययिता के साथ सजाया है। इनके यहाँ भाषा अपनी अर्थवत्ता के प्रति अतिरिक्त सजग रही है। हर कविता अपने विषय के निर्वाह के साथ अपने सुहृद पाठक के लिए बड़े आयाम का नया दरवाज़ा खोलती नज़र आती है। इसलिए इस संग्रह की छोटी-छोटी कविताएँ अपने में बड़ी गहराई लिए हुए हैं। विसंगतियों से भरे हुए इस त्रासद समय में भी कवि जीवन की सम्भावनाओं को बड़ी उम्मीद के साथ देखता है। जहाँ एक ओर उसके पास हमारे समय के तमाम ज़रूरी सवाल भी हैं और सूक्ष्म सौंदर्य की पहचान का हुनर भी। कवि की ‘उड़ान’ जैसी कविता उसको एक नए नज़रिए और ऊर्जा से भर देती हैं। – राहुल देव
‘पहाड़ से परे’ – रमेश पठानिया
प्रकृति के बीच से कंकरीट के जंगल तक की यात्रा में कवि ने अपने अनुभवों, अपनी दृष्टि को और अपनी सम्वेदनात्मक अनुभूतियों को इस संग्रह में समेटते हुए ‘ड्रांइगरूम वाली बौद्धिकता’ से हटकर यथार्थवादी चेतना से जुड़ने का प्रयास तो किया ही है, साथ ही अपनी वाग्मिता और अर्थवत्ता को भी विस्तार दिया है। कवि का आग्रह शिल्प विशेष पर न होकर साध्य पर रहा है, जिसके लिए भाषा और बिम्बों के चमत्कार से परहेज़ रखते हुए अपने कथ्य की स्पष्टता और सहजता पर शत-प्रतिशत फ़ोकस इन कविताओं की विशेषता है। इस संग्रह की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता इसकी सहज-सरल भाषा है, जो कविताओं की सम्प्रेषणीयता में पाठक और कवि के बीच कोई दीवार खड़ी नहीं करती। रमेश जी की कविताएँ ऐसी अभिव्यक्ति हैं जो आपको उद्वेलित करती हैं और जिन्हें पढ़ते हुए कभी आप आनंदित हो सकते हैं तो कभी क्षुब्ध! वास्तव में इन कविताओं का साध्य यथार्थ का तलस्पर्श, सुंदर और प्रेषणीय चित्रण है जो उन्होंने पहाड़ की वादियों से लेकर महानगर तक में निवास करते हुए देखा, समझा और जाना।
‘कौन हैं भारत माता’ – पुरुषोत्तम अग्रवाल
‘यह भारतमाता कौन है, जिसकी जय आप देखना चाहते हैं?’ 1936 की एक सार्वजनिक सभा में जवाहरलाल नेहरू ने लोगों से यह सवाल पूछा। फिर उन्होंने कहा—बेशक ये पहाड़ और नदियाँ, जंगल और मैदान सबको बहुत प्यारे हैं, लेकिन जो बात जानना सबसे ज़रूरी है वह यह कि इस विशाल भूमि में फैले भारतवासी सबसे ज़्यादा मायने रखते हैं। भारतमाता यही करोड़ों-करोड़ जनता है और भारतमाता की जय उसकी भूमि पर रहने वाले इन सब की जय है।’
यह किताब इस सच्ची लोकतांत्रिक भावना और समावेशी दृष्टिकोण को धारण करने वाले शानदार दिमाग़ को हमारे सामने रखती है। यह पुस्तक आज के समय में ख़ासतौर से प्रासंगिक है जब ‘राष्ट्रवाद’ और ‘भारतमाता की जय’ के नारे का इस्तेमाल भारत के विचार को एक आक्रामक चोग़ा पहनाने के लिए किया जा रहा है जिसमें यहाँ रहनेवाले करोड़ों निवासियों और नागरिकों को छोड़ दिया गया है।
‘कौन हैं भारतमाता?’ में नेहरू की क्लासिक किताबों—‘आत्मकथा’, ‘विश्व इतिहास की झलक’ और ‘भारत की खोज’—से लेख और अंश लिये गए हैं। उनके भाषण, निबन्ध और पत्र, उनके कुछ बहुत प्रासंगिक साक्षात्कार भी इसमें हैं। संकलन के दूसरे भाग में नेहरू का मूल्यांकन करते हुए अन्य लेखकों के अलावा महात्मा गांधी, भगत सिंह, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद समेत अनेक महत्त्वपूर्ण हस्तियों के आलेख शामिल हैं। इसकी विरासत आज भी महत्त्वपूर्ण बनी हुई है!
जनवरी, 2021
‘स्त्री का पुरुषार्थ’ – डॉ. सांत्वना श्रीकांत
अजनबियों में भी अपनापन तलाश लेने वाली स्त्री के सफ़रनाने का ही दूसरा नाम है स्त्री का पुरुषार्थ। एक ऐसी स्त्री जो सपनों की उड़ान तो भरती है, मगर ज़मीनी सच्चाइयों के साथ भी वह जुड़ी है। इसलिए उसकी अनंत यात्रा लौकिकता से अलौकिकता की ओर बढ़ती दिखायी देती है। कोई दो राय नहीं कि सांत्वना श्रीकांत का काव्य संग्रह एक नई भाव-यात्रा पर ले जाता है, जहाँ से आप स्त्री के मन को ही नहीं, उसके पुरुषार्थ को भी बख़ूबी समझेंगे। – संजय स्वतंत्र
‘ठाकरे भाऊ – उद्धव, राज और उनकी सेनाओं की छाया’ – धवल कुलकर्णी
चचेरे और मौसेरे भाई—राज और उद्धव। सगे लेकिन राजनीतिक सोच में बिल्कुल अलग। एक बाल ठाकरे की चारित्रिक विशेषताओं को फलीभूत करने वाला, उनकी आक्रामकता को पोसनेवाला, दूसरा कुछ अन्तर्मुखी जिसकी रणनीतियाँ सड़क के बजाय काग़ज़ पर ज़्यादा अच्छी उभरती हैं। शिवसेना की राजनीति को आगे बढ़ाने के दोनों के ढंग अलग थे। बाल ठाकरे की ही तरह कार्टूनिस्ट के रूप में कैरियर की शुरुआत करनेवाले राज ने पार्टी के विस्तार के लिए चाचा की मुखर शैली अपनायी। दूसरी तरफ़ उद्धव अपने पिता की छत्रछाया में आगे बढ़ते रहे। राज ठाकरे ने अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का गठन किया, वहीं उद्धव महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी व्यावहारिक सूझ-बूझ के चलते आज महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं। यह पुस्तक इन दोनों भाइयों के राजनीतिक उतार-चढ़ाव का विश्लेषण है। पहचान की महाराष्ट्रीय राजनीति और शिवसेना तथा उससे बनी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के उद्भव की जटिल सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि का विश्लेषण करते हुए इस पुस्तक में उद्धव सरकार के गद्दीनशीन होने के पूरे घटनाक्रम और उसके अब तक के, एक साल के शासनकाल की चुनौतियों और उपलब्धियों का पूरा ब्यौरा भी दिया गया है। दो ठाकरे बंधुओं—राज और उद्धव के वैचारिक राजनीतिक टकराव और अलगाव की बेहद दिलचस्प कहानी। महाराष्ट्र के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य और उठापटक का प्रामाणिक चित्रण। महाराष्ट्र की राजनीति का दिलचस्प ऐतिहासिक ब्योरा।
‘अमेरिका 2020 – एक बँटा हुआ देश’ – अविनाश कल्ला
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का आँखों-देखा हाल बयान करती यह किताब दुनिया के सबसे विकसित और शक्तिशाली देश के उस चेहरे का साक्षात्कार कराती है जो उसकी बहुप्रचारित छवि से अब तक प्रायः ढँका रहा है। 42 दिनों की यात्रा में लेखक ने कोविड-19 के बढ़ते संक्रमण के दौर में लगभग 18 हज़ार किलोमीटर का ज़मीनी सफ़र तय किया। नतीजा यह किताब है जिसमें लेखक ने उस अमेरिका पर रौशनी डाली है जो हमारी कल्पनाओं से मेल नहीं खाता, लेकिन जो वास्तविक है और काफ़ी हद तक भारत के अधिसंख्य लोगों की तरह रोज़ी-रोटी और सेहत की चिन्ताओं से बावस्ता है। यह किताब एक ओर अमेरिका और उसके राष्ट्रपति के सर्वशक्तिमान होने के मिथक को उघाड़ती है तो दूसरी ओर उन संकटों और दुविधाओं को भी उजागर करती है जिनसे ‘दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र’ आज जूझ रहा है। यह अमेरिका के बहाने आगाह करती है कि लोकतंत्र सिर्फ़ हार-जीत या व्यवस्था का मसला नहीं है, बल्कि मानवीय उसूलों और साझे भविष्य के लिए किया जाने वाला सतत प्रयास है। इसके प्रति कोई भी उदासीनता किसी भी देश और उसके नागरिकों को आपस में बाँट सकती है।
दिसम्बर, 2020
नवम्बर, 2020
अक्टूबर, 2020
सितम्बर, 2020
अगस्त, 2020
जुलाई, 2020
जून, 2020
फ़रवरी 2020
जनवरी 2020
दिसम्बर, 2020
‘अपेक्षाओं के बियाबान’ – निधि अग्रवाल (कहानी संग्रह)
निधि अग्रवाल गहन जीवनावलोकन की अप्रतिम कथाकार हैं। उन्होंने जहाँ अपनी निजी कथा शैली का विकास किया है, वहीं वे लम्बे समय तक याद की जाने वाली कहानियों की सतत रचना में संलग्न हैं।
—विजय राय, प्रधान सम्पादक, ‘लमही’ पत्रिका
निधि अग्रवाल की कहानियों में एक नए प्रकार की रचनात्मकता का संचार होता है। उनकी कहानियों के पात्र अपनी सम्वेदनशीलता के कारण हमारे मन के किसी कोने में अपनी जगह लम्बे समय तक बनाए रखते हैं। एक सफल रचनाकार की सारी विशेषताएँ इनकी कहानियों में मौजूद हैं।
—जाबिर हुसेन, सम्पादक, दोआबा
“जब भी कोई पूछता है कि संग्रह में कैसी कहानियाँ हैं? क्या शिक्षा देती हैं? मैं सोच में पड़ जाती हूँ। देने को हर पल कोई शिक्षा दे रहा है, न लेने को हम पूरा जीवन बिना कुछ ग्रहण किए निकाल देते हैं। बहुत सम्भव है जो मैंने लिखा, वह कोई न पढ़े, शब्द वही रहेंगे, भाव पाठक के पूर्व अनुभव और अनुभूतियों से निर्धारित होंगे। इतना ही कह सकती हूँ कि कहानियाँ बौद्धिक रूप से कुछ और समृद्ध करेंगी, भावनात्मक स्तर पर तरल करेंगी। उन सभी मित्रों का आभार जिन्होंने मेरे लेखन पर भरोसा कर न केवल स्वयं किताब ख़रीदी बल्कि अपने मित्रों से भी लिंक साझा किया। जो स्नेह और साथ आप लोगों ने दिया है। अभिभूत हूँ।” —निधि अग्रवाल
‘अंतिमा’ – मानव कौल
कभी लगता था कि लम्बी यात्राओं के लिए मेरे पैरों को अभी कई और साल का संयम चाहिए। वह एक उम्र होगी जिसमें किसी लम्बी यात्रा पर निकला जाएगा। इसलिए अब तक मैं छोटी यात्राएँ ही करता रहा था। यूँ किन्हीं छोटी यात्राओं के बीच मैं भटक गया था और मुझे लगने लगा था कि यह छोटी यात्रा मेरे भटकने की वजह से एक लम्बी यात्रा में तब्दील हो सकती है। पर इस उत्सुकता के आते ही अगले मोड़ पर ही मुझे उस यात्रा के अंत का रास्ता मिल जाता और मैं फिर उपन्यास के बजाय एक कहानी लेकर घर आ जाता। हर कहानी, उपन्यास हो जाने का सपना अपने भीतर पाले रहती है। तभी इस महामारी ने सारे बाहर को रोक दिया और सारा भीतर बिखरने लगा। हम तैयार नहीं थे और किसी भी तरह की तैयारी काम नहीं आ रही थी। जब हमारे, एक तरीक़े के इंतज़ार ने दम तोड़ दिया और इस महामारी को हमने जीने का हिस्सा मान लिया तब मैंने ख़ुद को संयम के दरवाज़े के सामने खड़ा पाया। इस बार भटकने के सारे रास्ते बंद थे। इस बार छोटी यात्रा में लम्बी यात्रा का छलावा भी नहीं था। इस बार भीतर घने जंगल का विस्तार था और उस जंगल में हिरन के दिखते रहने का सुख था। मैंने बिना झिझके संयम का दरवाज़ा खटखटाया और ‘अंतिमा’ ने अपने खंडहर का दरवाज़ा मेरे लिए खोल दिया।
‘इंदिरा’ – देवप्रिया रॉय
दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की कक्षा में, इंदिरा थापा को उसकी फ़ेवरेट टीचर द्वारा एक नवीनतम काम दिया जाता है—अपने नाम पर निबंध लिखो। कौन थीं इंदिरा प्रियदर्शिनी, जिनके नाम पर उसके दादा जी ने उसे ये नाम दिया था? और क्यों? भारत की प्रथम और इकलौती महिला प्रधानमंत्री के रूप में उनकी विरासत क्या है?
और इस तरह, गर्मी की लम्बी छुट्टियों और श्रीमती गाँधी की जीवनी पर काम कर रही एक आर्टिस्ट से एक अनूठी मित्रता के चलते, युवा इंदिरा थापा अपनी यादगार हमनाम की ज़िन्दगी और उनके राजनैतिक सफ़र से उलझ जाती है। और उसका परिणाम है यह अद्भुत पुस्तक।
नवम्बर, 2020
‘बोसकीयाना’ – गुलज़ार से बातें-मुलाक़ातें
गुलज़ार से बातें… ‘माचिस’ के, ‘हू-तू’ के, ‘ख़ुशबू’, ‘मीरा’ और ‘आंधी’ के बहुरंगी लेकिन सादा गुलज़ार से बातें… फ़िल्मों में अहसास को एक किरदार की तरह उतारनेवाले और गीतों-नज़्मों में, ज़िंदगी के जटिल सीधेपन को अपनी विलक्षण उपमाओं और बिम्बों में खोलनेवाले गुलज़ार से उनकी फ़िल्मों, उनकी शायरी, उनकी कहानियों और उस मुअम्मे के बारे में बातें जिसे गुलज़ार कहा जाता है। उनके रहन-सहन, उनके घर, उनकी पसंद-नापसंद और वे इस दुनिया को कैसे देखते हैं और कैसे देखना चाहते हैं, इस पर बातें… यह बातों का एक लम्बा सिलसिला है जो एक मुलायम आबोहवा में हमें समूचे गुलज़ार से रू-ब-रू कराता है। यशवंत व्यास गुलज़ार-तत्त्व के अन्वेषी रहे हैं। वे उस लय को पकड़ पाते हैं जिसमें गुलज़ार रहते और रचते हैं। इस लम्बी बातचीत से आप उनके ही शब्दों में कहें तो ‘गुलज़ार से नहाकर’ निकलते हैं।
अक्टूबर, 2020
‘आज़ादी’ – अरुंधति रॉय
आज़ादी—कश्मीर में आज़ादी के संघर्ष का नारा है, जिससे कश्मीरी उस चीज़ की मुख़ालफ़त करते हैं जिसे वे भारतीय क़ब्ज़े के रूप में देखते हैं। विडम्बना ही है कि यह भारत की सड़कों पर हिन्दू राष्ट्रवाद की परियोजना की मुख़ालफ़त करनेवाले लाखों अवाम का नारा भी बन गया।
आज़ादी की इन दोनों पुकारों के बीच क्या है–क्या यह एक दरार है या एक पुल है? इस सवाल के जवाब पर ग़ौर करने का वक़्त अभी आया ही था कि सड़कें ख़ामोश हो गईं। सिर्फ़ भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की सड़कें। कोविड–19 के साथ आई आज़ादी की एक और समझ, जो कहीं ख़ौफ़नाक थी। इसने मुल्कों के बीच सरहदों को बेमानी बना दिया, सारी की सारी आबादियों को क़ैद कर दिया और आधुनिक दुनिया को इस तरह ठहराव पर ला दिया जैसा कभी नहीं देखा गया था।
रोमांचित कर देनेवाले इन लेखों में अरुंधति रॉय एक चुनौती देती हैं कि हम दुनिया में बढ़ती जा रही तानाशाही के दौर में आज़ादी के मायनों पर ग़ौर करें।
इन लेखों में, हमारे बेचैन कर देनेवाले इस वक़्त में निजी और सार्वजनिक ज़ुबानों पर बात की गई है, बात की गई है क़िस्सागोई और नए सपनों की ज़रूरत की। रॉय के मुताबिक़, महामारी एक नई दुनिया की दहलीज़ है। जहाँ आज यह महामारी बीमारियाँ और तबाही लेकर आई है, वहीं यह एक नई क़िस्म की इंसानियत के लिए दावत भी है। यह एक मौक़ा है कि हम एक नई दुनिया का सपना देख सकें।
लेखक : अरुंधति रॉय
अरुंधति रॉय ने वास्तुकला का अध्ययन किया है। आप द गॉड ऑफ़ स्माल थिग्स—जिसके लिए आपको 1997 का बुकर पुरस्कार प्राप्त हुआ—और द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस की लेखिका हैं। दुनियाभर में इन दोनों उपन्यासों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। आपकी पुस्तकें मामूली चीज़ों का देवता, अपार खुशी का घराना, बेपनाह शादमानी की ममलिकत (उर्दू में), न्याय का गणित, आहत देश, भूमकाल : कॉमरेडों के साथ, कठघरे में लोकतंत्र, एक था डॉक्टर एक था संत राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं। माय सीडिशियस हार्ट आपकी समग्र कथेतर रचनाओं का संकलन है। आप 2002 के लनन कल्चरल फ्रीडम पुरस्कार, 2015 के आंबेडकर सुदार पुरस्कार और महात्मा जोतिबा फुले पुरस्कार से सम्मानित हैं।
सितम्बर, 2020
‘उसने गांधी को क्यों मारा’ – अशोक कुमार पाण्डेय
यह किताब आज़ादी की लड़ाई में विकसित हुए अहिंसा और हिंसा के दर्शनों के बीच कशमकश की सामाजिक-राजनैतिक वजहों की तलाश करते हुए उन कारणों को सामने लाती है जो गांधी की हत्या के ज़िम्मेदार बने। साथ ही, गांधी हत्या को सही ठहराने वाले आरोपों की तह में जाकर उनकी तथ्यपरक पड़ताल करते हुए न केवल उस गहरी साज़िश के अनछुए पहलुओं का पर्दाफ़ाश करती है बल्कि उस वैचारिक षड्यंत्र को भी खोलकर रख देती है जो अंतत: गांधी हत्या का कारण बना।
लेखक : अशोक कुमार पांडेय
अशोक कुमार पांडेय कश्मीर के इतिहास और समकाल के विशेषज्ञ के रूप में सशक्त पहचान बना चुके हैं। इनका जन्म 24 जनवरी, 1975 को पूर्वी उत्तर प्रदेश के मऊ ज़िले के सुग्गी चौरी गाँव में हुआ। ये गोरखपुर विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में परास्नातक हैं। कविता, कहानी और अन्य कई विधाओं में लेखन के साथ-साथ अनुवाद कार्य भी करते हैं। कथेतर विधा में इनकी पहली शोधपरक पुस्तक ‘कश्मीरनामा’ बहुत चर्चा में रही। इसी साल राजकमल से प्रकाशित किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ के अब तक तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
‘खुलती रस्सियों के सपने’ – राग रंजन
सामाजिक और राजनैतिक परिदृश्य और घटना क्रम का शब्दांकन राग की कविताओं का एक अलहिदा स्वर हैं और ख़ुद राग के शब्दों में – ‘कुछ सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ अगर मैं क़लमबद्ध न कर देता तो शायद चैन की नींद न सो पाता’। इन शब्दों में कवि का यथार्थ से जुड़ाव भी उतना ही सघन है जितने उसके अपने भीतर के संसार से। यथार्थ की गम्भीर करुणा और क्षोभ की दॄष्टि से पड़ताल करता पैना स्वर है, एक रुंधती आवाज़ है जो कुरूप यथार्थ और इसके कई स्तरों को सहज उद्घाटित करती झकझोरती चलती है।
आज के संवेदनहीन समय में जब साहित्य और कलाएँ हाशिये पर धकेली जा रहीं है, जब बाज़ारवाद अपने चरम पर है और इंसान कई स्तरों पर बिंधा जा रहा है, ये कविताएँ रुककर सोचने को, ठहरकर समय की आहट सुनने को बाध्य करती है। निश्चित ही इस संकलन की कविताएँ पाठकों को कई बेहतर कविताओं और एक अनूठे कवि तक ले जाएँगी, पाठकों का संवेदन संसार समृद्ध करेंगी।
हिंदी साहित्य संसार अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद खेमेबाज़ी और गुटबंदी का लम्बे समय से शिकार है और सम्भवतः अन्य भारतीय भाषाओं की भी यही स्थिति है। ऐसे समय में केवल कविता की प्रतिबद्धता विरल है और ऐसे कवियों की उपस्थिति सुखद जो कविता कर्म को महत्वाकांक्षा से जोड़कर नहीं देखते। यह कविता के लिए शुभ है।
आशा है ये कविताएँ हिंदी कविता की दुनिया में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज़ कराने में कामयाब होंगी।
आने वाले समय में राग रंजन सिर्फ़ साहित्यकारों के दरवाज़े की घंटी बजाकर न भाग खड़े होंगे ऐसी आशा है। उनसे सतत सार्थक रचनाशीलता की अपेक्षा है, क्योंकि उन्हें यह न भूलना चाहिए कि कवि समाज के होते हैं और दुरूह समय में अच्छे कवियों की उपस्थिति गहरी आश्वस्ति का बोध कराती है।
— रंजना मिश्र
अगस्त, 2020
‘विश्वास और अन्धविश्वास’ – नरेन्द्र दाभोलकर
विश्वास क्या है? कब वह अंधविश्वास का रूप ले लेता है? हमारे संस्कार हमारे विचारों और विश्वासों पर क्या असर डालते हैं? समाज में प्रचलित धारणाएँ कैसे धीरे-धीरे सामूहिक श्रद्धा और विश्वास का रूप ले लेती हैं। टेलीविजन जैसे आधुनिक आविष्कार के सामने मोबाइल साथ में लेकर बैठा व्यक्ति भी चमत्कारों, भविष्यवाणियों और भूत-प्रेतों से सम्बन्धित कहानियों पर क्यों विश्वास करता रहता है? क्यों कोई समाज लौट-लौटकर धार्मिक जड़तावाद और प्रतिक्रियावादी-पश्चमुखी राजनीतिक और सामाजिक धारणाओं की तरफ़ जाता रहता है? क्या यह संसार किसी ईश्वर द्वारा की गई रचना है? या अपने कार्य-कारण के नियमों से चलनेवाला एक यंत्र है? ईश्वर के होने या न होने से हमारी सोच तथा जीवन-शैली पर क्या असर पड़ेगा? वह हमारे लिए क्या करता है और क्या नहीं करता? क्या वह ख़ुद ही हमारी रचना है? मन क्या है, उसके रहस्य हमें कैसे प्रकाशित या दिग्भ्रमित करते हैं? फल-ज्योतिष और भूत-प्रेत हमारे मन के किस ख़ाली और असहाय कोने में सहारा बनकर आते हैं? क्या अंधविश्वासों का विरोध नैतिकता का विरोध है? क्या धार्मिक जड़ताओं पर कुठाराघात करना सामाजिक व्यक्ति को नीति से स्खलित करता है? या इससे वह ज़्यादा स्वनिर्भर, स्वायत्त, स्वतंत्र और सुखी होता है? स्त्रियों के जीवन में अंधविश्वासों और अंधश्रद्धा की क्या भूमिका होती है? वे ही क्यों अनेक अंधविश्वासों की कर्ता और विषय दोनों हो जाती हैं? इस पुस्तक की रचना इन तथा इन जैसे ही अनेक प्रश्नों को लेकर की गई है। नरेंद्र दाभोलकर के अंधविश्वास या अंधश्रद्धा आंदोलन की वैचारिक-सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक पृष्ठभूमि इस पुस्तक में स्पष्ट तौर पर आ गई है जिसकी रचना उन्होंने आंदोलन के दौरान उठाए जानेवाले प्रश्नों और आशंकाओं का जवाब देने के लिए की।
जुलाई, 2020
‘इब्नेबतूती’ – दिव्य प्रकाश दुबे
होता तो यह है कि बच्चे जब बड़े हो जाते है तो उनके माँ-बाप उनकी शादी कराते हैं लेकिन इस कहानी में थोड़ा-सा उल्टा है, या यूँ कह लीजिए कि पूरी कहानी ही उल्टी है। राघव अवस्थी के मन में एक बार एक उड़ता हुआ ख़याल आया कि अपनी सिंगल मम्मी के लिए एक बढ़िया-सा टिकाऊ बॉयफ़्रेंड या पति खोजा जाए। राघव को यह काम जितना आसान लग रहा था, असल में वह उतना ही मुश्किल निकला। इब्नेबतूती आज की कहानी होते हुए भी एक खोए हुए, ठहरे हुए समय की कहानी है। एक लापता हुए रिश्ते की कहानी है। कुछ सुंदर शब्द कभी किसी शब्दकोश में जगह नहीं बना पाते। कुछ सुंदर लोग किसी कहानी का हिस्सा नहीं हो पाते। कुछ बातें किसी जगह दर्ज नहीं हो पातीं। कुछ रास्ते मंज़िल नहीं हो पाते। इब्नेबतूती-उन सभी अधूरी चीज़ों, चिट्ठियों, बातों, मुलाक़ातों, भावनाओं, विचारों, लोगों की कहानी है।
‘सच्ची रामायण’ – पेरियार ई. वी. रामासामी
सच्ची रामायण ई.वी. रामासामी नायकर ‘पेरियार’ की बहुचर्चित और सबसे विवादस्पद कृति रही है। पेरियार रामायण को एक राजनीतिक ग्रन्थ मानते थे। उनका कहना था कि इसे दक्षिणवासी अनार्यों पर उत्तर के आर्यों की विजय और प्रभुत्व को जायज़ ठहराने के लिए लिखा गया और यह ग़ैर-ब्राह्मणों पर ब्राह्मणों तथा महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व का उपकरण है। रामायण की मूल अन्तर्वस्तु को उजागर करने के लिए पेरियार ने ‘वाल्मीकि रामायण’ के अनुवादों सहित; अन्य राम कथाओं, जैसे—’कम्ब रामायण’, ‘तुलसीदास की रामायण’ (रामचरित मानस), ‘बौद्ध रामायण’, ‘जैन रामायण’ आदि के अनुवादों तथा उनसे सम्बन्धित ग्रन्थों का चालीस वर्षों तक अध्ययन किया और ‘रामायण पादीरंगल’ (रामायण के पात्र) में उसका निचोड़ प्रस्तुत किया। यह पुस्तक 1944 में तमिल भाषा में प्रकाशित हुई। इसका अंग्रेज़ी ‘द रामायण: अपन ट्रू रीडिंग’ नाम से 1959 में प्रकाशित हुआ। यह किताब हिन्दी में 1968 में ‘सच्ची रामायण’ नाम से प्रकाशित हुई थी, जिसके प्रकाशक लोकप्रिय बहुजन कार्यकर्ता ललई सिंह थे। 9 दिसम्बर, 1969 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया और पुस्तक की सभी प्रतियों को ज़ब्त कर लिया। ललई सिंह यादव ने इस प्रतिबन्ध और ज़ब्ती को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। वे हाईकोर्ट में मुक़दमा जीत गए। सरकार ने हाईकोर्ट के निर्णय के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की। 16 सितम्बर 1976 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सर्वसम्मति से फ़ैसला देते हुए राज्य सरकार की अपील को ख़ारिज कर दिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में निर्णय दिया। प्रस्तुत किताब में ‘द रामायण: अपन ट्रू रीडिंग’ का नया, सटीक, सुपाठ् य और अविकल हिन्दी अनुवाद दिया गया है। साथ ही इसमें ‘सच्ची रामायण’ पर केन्द्रित लेख व पेरियार का जीवनचरित भी दिया गया है, जिससे इसकी महत्ता बहुत बढ़ गई है। यह भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के इतिहास को समझने के इच्छुक हर व्यक्ति के लिए एक आवश्यक पुस्तक है। राम कथा को केंद्र में रखकर पेरियार की लिखी यह किताब मूल रूप से तमिल में छपी थी। हिंदी में यह ‘सच्ची रामायण’ शीर्षक के साथ आयी। इस किताब को लेकर तरह-तरह के विवाद हुए। हिन्दुओं की धार्मिक भावना आहत करने के आरोप में इस किताब पर प्रतिबन्ध भी लगाए गए। उत्तर प्रदेश की राजनीति में भयानक उथल-पुथल मची। पेरियार द्वारा राम की कथा का यह मूल्यांकन और पाठ एक नई दृष्टि से उस कथा को समझने का प्रयास है। ख़ासकर तब जबकि हिंदी में पेरियार पर सामग्री की सर्वाधिक कमी है, उत्तर भारत के पाठकों के लिए यह पुस्तक किसी ख़ज़ाने से कम नहीं।
‘धर्म और विश्वदृष्टि’ – पेरियार पेरियार ई. वी. रामासामी
यह किताब ई.वी. रामासामी नायकर ‘पेरियार’ (17 सितम्बर, 1879—24 दिसम्बर, 1973) के दार्शनिक व्यक्तित्व से परिचित कराती है। धर्म, ईश्वर और मानव समाज का भविष्य उनके दार्शनिक चिन्तन का केन्द्रीय पहलू रहा है। उन्होंने मानव समाज के सन्दर्भ में धर्म और ईश्वर की भूमिका पर गहन चिन्तन-मनन किया है। इस चिन्तन-मनन के निष्कर्षों को इस किताब के विविध लेखों में प्रस्तुत किया गया है। ये लेख पेरियार के दार्शनिक व्यक्तित्व के विविध आयामों को पाठकों के सामने रखते हैं। इनको पढ़ते हुए कोई भी सहज ही समझ सकता है कि पेरियार जैसे दार्शनिक-चिन्तक को महज़ नास्तिक कहना उनके गहन और बहुआयामी चिन्तन को नकारना है। यह किताब दो खंडों में विभाजित है। पहले हिस्से में समाहित वी. गीता और ब्रजरंजन मणि के लेख पेरियार के चिन्तन के विविध आयामों को पाठकों सामने प्रस्तुत करते हैं। इसी खंड में पेरियार के ईश्वर और धर्म सम्बन्धी मूल लेख भी समाहित हैं जो पेरियार की ईश्वर और धर्म सम्बन्धी अवधारणा को स्पष्ट करते हैं। दूसरे खंड में पेरियार की विश्वदृष्टि से सम्बन्धित लेखों को संग्रहीत किया गया है जिसमें उन्होंने दर्शन, वर्चस्ववादी साहित्य और भविष्य की दुनिया कैसी होगी जैसे सवालों पर विचार किया है। इन लेखों में पेरियार विस्तार से बताते हैं कि दर्शन क्या है और समाज में उसकी भूमिका क्या है? इस खंड में वह ऐतिहासिक लेख भी शामिल है जिसमें पेरियार ने विस्तार से विचार भी किया है कि भविष्य की दुनिया कैसी होगी?
यह किताब क्यों ख़रीदें? दक्षिण भारत के महान दार्शनिक, विचारक और चिन्तक पेरियार के नाम से तो सब परिचित हैं लेकिन उत्तर भारत के हिन्दी क्षेत्र में उनके बारे में गम्भीर और गहरी जानकारी की कमी दिखायी देती है। पेरियार पर हिन्दी में लिखित सामग्री की कमी भी इसका एक कारण है। यही वजह है कि अक्सर उनके बारे में एकांगी रवैया भी दिखायी देता है। उत्तर भारत या पूरी हिन्दी पट्टी के लिए यह पुस्तक पेरियार के सामाजिक, दार्शनिक योगदान को, उनके नज़रिए को समझने के लिए ज़रूरी है।
‘चलता फिरता प्रेत’ – मानव कौल
बहुत वक़्त से सोच रहा था कि अपनी कहानियों में मृत्यु के इर्द-गिर्द का संसार बुनूँ। ख़त्म कितना हुआ है और कितना बचाकर रख पाया हूँ, इसका लेखा-जोखा कई साल खा चुका था। लिखना कभी पूरा नहीं होता… कुछ वक़्त बाद बस आपको मान लेना होता है कि यह घर अपनी सारी कहानियों के कमरे लिए पूरा है और उसे त्यागने का वक़्त आ चुका है। त्यागने के ठीक पहले, जब अंतिम बार आप उस घर को पलटकर देखते हैं तो वो मृत्यु के बजाय जीवन से भरा हुआ दिखता है। मृत्यु की तरफ़ बढ़ता हुआ, उसके सामने समर्पित-सा और मृत्यु के बाद ख़ाली पड़े गलियारे की नमी-सा जीवन, जिसमें चलते-फिरते प्रेत-सा कोई टहलता हुआ दिखायी देने लगता है और आप पलट जाते हैं। — मानव कौल
‘हर तरफ़ युद्ध की दुर्गन्ध है’ – मेटिन जेंगिज़ की कविताएँ [अनुवाद: मणि मोहन]
जून, 2020
‘यह पृथ्वी का प्रेमकाल’ – अरविन्द श्रीवास्तव
फ़रवरी, 2020
‘लम्हे लौट आते हैं’ – सम्पादन व चयन: उज्जवल भट्टाचार्य
जाने माने अनुवादक और कवि उज्ज्वल भट्टाचार्य ने दुनिया भर के 22 कवियों की 100 कविताओं का यह अनुवाद प्रस्तुत किया है। इसमें बैरतोल्त ब्रेष्ट, एरिष फ़्रीड, ग्युंटर ग्रास, पाब्लो नेरूदा, निकोनार पार्रा, ओक्टोवियो पाज़, नाज़िम हिकमत, बिस्लावा चिम्बोर्सका, बेई दाओ, ख़ालिक अनवर, फ़ारूख़ फ़ारोख़ज़ाद आदि शामिल हैं।
जनवरी, 2020
‘ज़रा सा नोस्टेल्जिया’ – अभिज्ञात
व्यवस्था में परिवर्तन की आकाँक्षा जब मन और विचार से नहीं, बल्कि प्राण से उठती हो तो व्यक्ति अपना सब कुछ दाँव पर लगाने पर आमादा हो जाता है। उसकी बाह्य प्रतिक्रिया व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन को उकसाती है और आंतरिक प्रतिक्रिया उसे संतत्व की ओर उन्मुख करती है। इस द्वंद्वात्मक स्थिति में कविताएँ विकल अंतरव्यथा की अध्यात्म व संतत्व की ओर उर्ध्वगामी यात्राएँ बन जाती हैं।