‘Nindiya Lagi’, a story by Bhagwati Prasad Vajpeyi
कॉलेज से लौटते समय मैं अकसर अपने नये बंगले को देखता हुआ घर आया करता। उन दिनों वह (बंगला) तैयार हो रहा था। एक ओवरसियर साहब रोज़ाना, सुबह-शाम, देख-रेख के लिए आ जाते थे। वे मझले भैया के सहपाठी मित्रों में से थे। लम्बा क़द, गौरवर्ण, लम्बी नाक — ख़ूबसूरत और मुख पर उल्लास का अभिनव आलोक। गम्भीर भी होते, तो प्रायः मालूम यही होता कि मुसकरा रहे हों। नाम उनका बेनीमाधव था और अवस्था उनकी अब पैंतालीस वर्ष के ऊपर जान पड़ती थी। मिस्त्री और मज़दूर, सब मिलाकर, कोई पच्चीस-तीस व्यक्ति काम कर रहे थे। मज़दूरों में कुछ स्त्रियाँ भी थीं।
एक दिन मैंने देखा, छत कूटी जा रही है। कूटने वालों में स्त्रियाँ ही हैं, अधिकांश रूप से। दो पुरुष भी हैं, लेकिन वे ज़रा हटकर, एक कोने में हैं। स्त्रियाँ छत कूटती हुई एक गाना गा रही हैं। यों उनका गायन कुछ विशेष मधुर नहीं है, किन्तु अनेक सम्मिलित स्वरों के बीच में एक अत्यन्त कोमल स्वर भी है। तभी मैं उसके पास जाने को तत्पर हो गया। मझे देखना था कि वह जो गाना गा रही है और जिसका कण्ठ इतना मधुर है, उसका रूप भी कुछ है या नहीं। मैं मानता हूँ कि यह मेरी दुर्बलता थी, किन्तु उन दिनों मेरी समझ में यह बात कैसे आती?
एकाएक पहले तो ओवरसियर साहब सामने आ गये। बोले — “आ गये छोटे भैया।”
मैंने उनकी ओर देखकर ज़रा-सा मुसकरा दिया और कहा — “जान तो मुझे भी ऐसा पड़ता है।”
हंसते हुए उन्होंने तब कहा — “लेकिन दरअसल आप आये नहीं। आप समझते हैं कि दुनिया की नज़रों में जो यहाँ मौजूद हैं, इतने से ही मैं यह मान लूं कि आप पूरे सोलह आने भर आ गये हैं? और जो कहीं आप अपना ‘कुछ’ छोड़ आये हों, तो?”
वह इतना कहते-कहते मेरे निकट — बिल्कुल निकट — आ गये। बोले — “जब मैं अपने इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ता था, तब मैं कैसा था, सच जानिये, आपको देखकर जब मुझे उसकी याद आती है, तो जी मसोसने लगता है। तबीयत चाहती है कि अपने को क्या कर डालें, जिससे कुछ शान्ति मिले। लेकिन फिर यही सोचकर सन्तोष कर लेता हूँ कि मनुष्य की तृष्णा का अन्त नहीं है। न आकाश में, न महासागर के अतल में, न गिरि-गह्वर में — संसार में कहीं भी, कोई ऐसा स्थान नहीं मिल सकता, जहाँ पहुँचकर मनुष्य कामना से मुक्त हो सके।”
बेनी बाबू के मुख पर अगमनीय गम्भीरता की छाया थी, यद्यपि अपने विमल हास में वह उसे छिपाना चाहते थे।
मैंने कहा — “आप मेरे अध्ययन की चीज़ हैं, यह मुझे आज मालूम हुआ।”
एक बार चलते हुए वह बोले — “अभी आपको कुछ भी मालूम नहीं हुआ है।”
किन्तु बेनी बाबू की इतनी-सी बात से मेरे मन का कौतूहल अभी शान्त नहीं हो पाया था, इसलिए मैं उनके पीछे चल दिया। घूमते, काम देखते हुए, एक मिस्त्री के पास जाकर वह खड़े हो गये। वह आर्च बनाने जा रहा था। बोले — “देखो जी मिस्त्री, पत्तियाँ और फूल बनाना ही काफी नहीं है। टहनी और उसमें उभरे हुए कांटे भी दिखाने होते हैं। माना कि नक़ल-नक़ल है, असल चीज़ वह कभी हो नहीं सकती। किन्तु असल चीज़ की जो असलियत है, गुण के साथ दुर्गुण भी, नक़ल में यदि उसको स्पष्ट न किया जा सका, तो वह नक़ल भी नक़ल नहीं हो सकती। बनाने में अगर तुमको दिक्कत हो, तो मैं नमूना दे सकता हूँ, लेकिन मेरी तबीयत की चीज़ अगर तुम न बना सके, तो मैं कह नहीं सकता कि आगे चलकर तुम्हें उसका क्या फल भोगना पड़ेगा।”
मिस्त्री वृद्ध था। उसके बाल पक गये थे। उसकी आंखों पर पुरानी चाल का चश्मा चढ़ा हुआ था। बड़े ग़ौर से वह बेनी बाबू की ओर देखने लगा, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। तब बेनी बाबू वहाँ और अधिक ठहर न सके।
अब वह आंगन में एक टब के पास खड़े थे। नल का पानी टब में गिर रहा था। मैं थोड़ा पीछे था। जब उसके निकट पहुँचा, तो वह बोले — “आपने इस मिस्त्री की आंखों को देखा? वह कुछ कह नहीं सका था, लेकिन उसकी आंखों ने जो बात कह दी, मैं उसे सहन नहीं कर सका। वह समझता है, मैंने फल भोगने की बात कह के उसको चोट पहुँचाने, उसका अपमान करने की चेष्टा की है, किन्तु वह नहीं जानता, जान भी नहीं सकता कि मेरी बात का कोई उत्तर न देकर मुझ पर कैसा भयंकर आघात किया है? एक वह नहीं, मालूम नहीं कितने आदमी आपको ऐसे मिल सकते हैं, जो मुझे ग़लत समझते हैं। आज पन्द्रह वर्षों से, बल्कि और भी अधिक काल से, मुझे जहाँ-कहीं भी मकान बनाने का काम पड़ा है, मैंने उस मिस्त्री को अवश्य बुलाया है। मैंने काम के सम्बन्ध में कभी-कभी तो उसे इतना डांटा है कि वह रो दिया है, तो भी कभी ऐसा अवसर नहीं आया कि उसने मुझे तीखा उत्तर दिया हो। उसका वही पुराना चश्मा है, वैसे ही भीतर तक प्रविष्ट हो जाने वाली आंखें। उसने कभी मज़दूरी मुझसे तय नहीं की, और कभी ऐसा अवसर नहीं आया, जब काम समाप्त हो जाने पर, मज़दूरी के अतिरिक्त, दस-पन्द्रह रुपये पुरस्कार प्राप्त न किये हों किन्तु इन सब बातों को अच्छी तरह समझते हुए भी डांटना तो पड़ता ही है क्योंकि उससे कलाकार की सुस्त कल्पना को जागरण मिलता है।”
अब बेनी बाबू घूमते-फिरते वहीं जा पहुँचे, जहाँ स्त्रियाँ छत कूट रही थीं। उन्होंने एकाएक जो हैटधारी हम लोगों को देखा, तो उनका गाना बन्द हो गया। तब मेरे मन में आया कि इससे तो यही अच्छा था कि हम लोग यहाँ न आते। और कुछ नहीं, तो संगीत का वह मृदुल स्वर तो कानों में पड़ता। और वह संगीत भी कैसा? एकदम असाधारण। उसकी टेक तो कभी भूल ही नहीं सकती। जैसी नन्ही वैसी ही भोली।
“निंदिया लागी — मैं सोय गयी गुइयाँ।”
बेनी बाबू ने खड़े-खड़े इधर-उधर देखा और कहा — “देखो इधर, इस तरह नहीं पीटना होता कि चोटों की आवाज़ का सिलसिला बिगड़ जाये। मुगरी की आवाज़, सारी की सारी एक बारगी एक साथ होनी चाहिए। और देखो, आज इस छत की पिटाई का काम ख़त्म हो जाना चाहिए।”
रामलखन बोला — “सरकार, आज कैसे पूरा होगा? दिन ही कितना रह गया है?”
“बको मत रामलखन! काम नहीं पूरा होगा, तो पैसा भी पूरा न होगा। समझते हो न? काम का ही दूसरा नाम पैसा है।”
रामलखन चुप रह गया। बेनी बाबू भी चल दिये, लेकिन चलने के साथ ही पिटाई की आवाज़, उसकी धमक, उसकी गति और चूड़ियों की खनक और — ‘निंदिया लागी’ का स्वर अतिशय गम्भीर हो गया।
मैंने बेनी बाबू से कहा — “आप काम लेना ख़ूब जानते हैं।”
वह हंसते-हंसते बोले — “मैं जानता बहुत कुछ हूँ — भैया, लेकिन जानना ही क़ाफ़ी नहीं होता। ज्ञान से भी बढ़कर जो वस्तु है, उसको भी तो जानना होता है और उसे मैं अभी तक जान नहीं सका।”
मैंने पूछ लिया — “वह क्या?”
वह बोले — “सत्य का ग्रहण।”
मैंने कहा — “सिर्फ पहेली न कहिये, उसे समझाते भी चलिये।”
वह तब तक एक पेड़ के नीचे, सड़क पर ही एक ओर कुरसी डलवाकर बैठ गये और बोले — “ये स्त्रियाँ, जो यहाँ मज़दूरी करने आयी हैं, कितने सवेरे घर से चली हैं। और कब पहुँचेगी। कोई अपने घर में बच्चे छोड़ आयी है, किसी का पति खेत में काम करने गया होगा। किसी के कोई होगा ही नहीं। और काम करते-करते अगर इनको सुधि आ जाती है और काम की गति में क्षणिक मन्दता उत्पन्न हो ही जाती है, तो वह भी आज की हमारी इस सामाजिक व्यवस्था को सहन नहीं है। और तारीफ़ यह है कि हम समझ लेते हैं कि हम बड़े ज्ञानी हैं। हम यही देखकर सन्तोष कर लेते हैं कि जो स्त्री यहाँ पर मज़दूरी कर रही है, हमको सिर्फ़ उसी से मतलब है, उसी की मज़दूरी हम दे रहे हैं, किन्तु हम यह सोचने की ज़रूरत ही नहीं समझते कि वह स्त्री अपने जगत् को लेकर क्या है? जो बच्चा उसने उत्पन्न किया है, वह भी तो अपने पालन-पोषण का भार अपनी मां पर रखता है, पर हम लोग यहाँ तक सोचना ही नहीं चाहते। हमारे स्वार्थों ने सत्य को कितनी निरंकुशता के साथ दबा रखा है।”
बेनी बाबू चुप हो गये।
एक ओर खुले अम्बर में, विहंगावलियाँ अपने पंखों को फैलाये नितान्त निर्बन्ध, हंसी-ख़ुशी के साथ, उड़ी चली जा रही थीं। एक साथ हम दोनों उधर देखने लगे। किन्तु बराबर उधर देखने के बदले मैंने एक बार फिर बेनी बाबू को देखा। उनके मस्तक के ऊपर चंदोवा खुल आया था। उसमें नन्हे-नन्हे एक-आध ही बाल अवशिष्ट थे। वे अब सान्ध्य आलोक में चमक रहे थे। उनकी खुली आंखें यद्यपि चश्मे के भीतर थीं, तो भी मुझे प्रतीत हुआ जैसे वे कुछ और भी फैल गयी हैं। इसी क्षण बोले — “अब यह काम आगे न करूंगा। लेकिन…।”
उनका यह वाक्य अधूरा रह गया। जान पड़ा, वह कोई निश्चय कर रहे हैं और रुक-रुक जाते हैं। रुक इसलिए जाते कि रुकना चाहते हैं। रुक इसलिए जाते हैं कि रुकना नहीं चाहते। तभी फिर बोले — “तुम उस बात को अभी समझ नहीं सकोगे, लेकिन ऐसी बात नहीं है कि उस बात को समझने की तुम्हारी क्षमता कुन्द है। देखता हूँ, तुम विचारशील हो और तभी मैं कहना भी चाहता हूँ कि आदमी तो अपने विश्वासों को लेकर खड़ा है, लेकिन जो आदमी अपने विश्वास को लेकर नहीं खड़ा होता, वह भी क्या आदमी है? वह आदमी नहीं है, वह पशु है — पशु। लेकिन कैसे कहूँ कि पशु भी अपने विश्वासों के विरुद्ध खड़ा हो सकने वाला प्राणी है। वह तो… वह तो, बल्कि अपनी प्रवृत्तियों का ही स्वरूप होता है। और वह मनुष्य छिः, उससे भी अधम क्या कोई स्थिति है?”
मैंने देखा, यह वातावरण तो अब अतिशय गम्भीर हो गया है। और उन दिनों इस तरह की निरी गम्भीरता ज़रा कम पसन्द आती थी, बल्कि साथी लोग जब ऐसे व्यक्तियों का मज़ाक उड़ाते, तो उस दल में मैं भी सम्मिलित हो जाया करता था। बात यह थी कि उस समय एक दूसरा दृष्टिकोण हम लोगों के सामने रहता था। हम सब यही मानते थे कि जीवन तो हंसी-खेल की चीज़ है। सर्वथा अनिश्चित और चरम अकल्पित जीवन के थोड़े से दिनों को रोना रोने का या सोच-विचार में निपीड़ित-निर्जीव कर डालने में कौन-सी महत्ता है? इसीलिए मैंने कह दिया — “इन लोगों के गानों में बीच का यह — हाँ, यह स्वर मुझे बड़ा कोमल लगता है।”
निमेषमात्र में, सम्यक् बदल कर — “जाओ, नज़दीक से सुन आओ। हैट यहीं रख जाओ। फिर भी अगर वे गाना बन्द कर दें, तो कहना कि काम में हरज नहीं होना चाहिए क्योंकि गाने के साथ छत कूटने का काम अधिक अच्छा होता है, ऐसा मैं सुनता आया हूँ।” — बेनी बाबू ने मुसकराते हुए कहा।
मैं चला गया। चुपचाप बहुत धीरे-धीरे, पैर संभाल-संभाल कर। तो भी उनको मालूम हो ही गया। काम की गति में कुछ तीव्रता ज़रूर जान पड़ी, किन्तु गाना बन्द हो गया। मैंने कहा, “तुम लोगों ने गाना क्यों बन्द किया?”
खिलखिल के कुछ मदिर कलहास। कभी इधर, कभी उधर। किसी ने अपनी सखी से कहा, उसे ज़रा धक्का देकर — “गा री पत्ती, चुप क्यों हो गयी?”
“तू ही क्यों नहीं गाती? छोटे भैया के सामने…”
“हूँ, बड़ी लाजवन्ती बनी है। जैसे दूल्हे का मुंह ही न देखा हो।”
मैंने कहना चाहा — “लड़ो मत। मैं चला जाता हूँ।” लेकिन मैं कुछ न कह सका। चुपचाप चला आया।
चला तो आया, किन्तु उस खिलखिल और अपने सामने गाने से लजाने-वाली उस पत्ती को मैंने फिर देखने की चेष्टा नहीं की। कैसे उल्लास के साथ आया था, किन्तु कैसा भीषण द्वन्द्व लेकर चल दिया।
बेनी बाबू ने बड़े प्यार से पूछा — “कह जाओ।”
मैंने कहा — “क्या कह जाऊं? वही बात हुई। उन लोगों ने गाना बन्द कर दिया।”
“फिर वह बात नहीं कही।”
“उसे मैं कह नहीं सका।”
“तो यह कहो कि तुम ख़ुद ही लजा गये।”
मैं चुप रहा। जिसने कभी चोरी नहीं की, जो यह भी नहीं जानता कि चोरी की कैसे जाती है, वह क्या चीज़ है, यदि वह कभी उसके दलदल में पड़ जायेगा, तो उससे सफ़ाई के साथ निकल ही कैसे सकेगा? वह तो निश्चयपूर्वक फंस जायेगा। वही गति मेरी हुई। क्या मैं जानता था कि बेनी बाबू मुझे ऐसी जगह ले जायेंगे, जहाँ पहुँचकर फिर मुक्ति का कोई मार्ग ही दृष्टिगत न होगा?
बेनी बाबू बोले — “अच्छा, एक काम कर जाओ। रामलखन से कहना कि अगर आज यह काम किसी तरह पूरा होता न दीख पड़े, तो कल ही पूरा कर डालना। बेनी बाबू से मैंने कह दिया है, मज़दूरों से उतना ही काम लिया जाये, जितना वे कर सकें।”
मैं उनकी ओर देखता रह गया। मेरे मन में आया — यह आदमी है कि देवता? मुझे अवाक् देखकर उन्होंने पूछा — “सोचते क्या हो?”
मैंने कहा — “कुछ नहीं। इतने दिन से आपका परिचय प्राप्त है, किन्तु कभी ऐसा अवसर नहीं आया कि आपको इतने निकट से देख पाता।”
वह बोले — “यह सब कोई चीज़ नहीं है, छोटे भैया। न्याय और सत्य से हम कितनी दूर रहते हैं, शायद हम ख़ुद नहीं जानते। अच्छा जाओ, जो काम तुम्हें दिया गया है, उसे पूरा कर आओ।”
मैं फिर उसी छत पर जा पहुँचा, पर अबकी बार मैंने देखा, गाना चल रहा है। लेकिन एक ही गाना तो दिन-भर चल नहीं सकता। तो भी मुझे उसी गाने के सुनने की इच्छा हो आयी। साथ ही मैंने यह भी सोच लिया कि अभी कुछ समय पहले बेनी बाबू ने कहा था, मनुष्य की कामनाओं का अन्त नहीं है। मैंने जो रामलखन को बुलवाया, तो वह सिटपिटा गया। बोला — “छोटे सरकार, क्या हुक़्म है?”
मैंने कहा — “बेनी बाबू क्या तुम लोगों से कुछ ज़्यादा सख़्ती से काम लेते हैं?”
वह चुप ही बना रहा, सत्य-कृष्ण कुछ भी नहीं कह सका। तब मैंने समझ लिया, डर के कारण वह उनके विरुद्ध कुछ कहना नहीं चाहता, इसीलिए चुप है, लेकिन जब मैंने कहा — “मैं उनसे कुछ कहूँगा नहीं। मैं तो सिर्फ़ असल बात जानना चाहता हूँ। बिल्कुल निडर होकर बतलाओ।”
तब उसने कहा — “काम सख़्ती से लेते हैं, तो मज़दूरी भी तो दो पैसा ज़्यादा और वक़्त पर देते हैं। ऐसे मालिक मिलें, तो मैं ज़िन्दगीभर उनकी ग़ुलामी करूं।”
मैंने कहा — “तुम ठीक कहते हो। उन्होंने मुझसे कहला भेजा है कि अगर काम आज पूरा नहीं होता है, तो कल ही पूरा कर डालना। ज़्यादा तकलीफ़ उठाने की ज़रूरत नहीं है।”
रामलखन बोला — “पर छोटे भैया, उन्होंने पहले ही बहुत सोच-समझकर हुक़्म दिया था। काम अगर आज पूरा न होता, तो कूटने के लिए चूना हम लोगों को इस हालत में न मिलता। वह सूख जाता। तब उस पर कुटाई ठीक तरह से कैसे होती? इसके सिवा कल गुड़ियों का त्योहार है — छुट्टी का दिन है। मैंने पीछे जो सोचा, तो मुझे इन सब बातों का ख़याल आ गया। काम पूरा हो जायेगा। बहुत कुछ तो हो भी गया है। थोड़ा-सा ही बाक़ी रह गया है। वह भी शाम होते-होते पूरा हो जायेगा। तकलीफ़ तो थोड़ी हुई — किसी-किसी के हाथों में छाले पड़ गये, लेकिन यह बात आप उनसे जाकर न कहें सरकार, इतनी बात मेरी भी रख लें।”
रामलखन की बात मानकर सचमुच मैंने बेनी बाबू से यह नहीं कहा कि स्त्रियों के हाथों में छाले पड़ गये हैं। किन्तु उसी दिन, सायंकाल एक ओर ज़ीने की दीवार गिर गयी। छुट्टी हो गयी। मज़दूर लोग इधर-उधर से आ-आकर जाने लगे थे कि अररर धम का भीषण स्वर और एक क्षीण ‘आह’। लोग दौड़ पड़े। लोग गिने भी गये। सब मिलाकर उन्तीस आदमी आज काम पर थे, लेकिन हैं केवल सत्ताईस।
“तो दो आदमी दब गये क्या?”
“हाँ, यह हलका स्वर जो आ रहा है यह!… यह!”
ईंटें उठायी जाने लगीं, तो एक स्त्री ने कहा — “हाय। हाय पत्ती है — पत्ती। तभी मैं सोच रही थी — वह दीख नहीं पड़ती, शायद आगे निकल गयी। हाय, यह तो चल बसी।”
उससे कौन कहता कि हाँ, वह आगे निकल गयी। लेकिन एक क्षीण स्वर तब भी ध्वनित होता रहा।
“अरे और उठाओ ईंटों को। हाँ, इस खंजड़ को। अभी एक आदमी और भी तो है।”
एक साथ कई आदमियों ने मिलकर एक दीवार के टुकड़े को उठाया। वह ईंटों के ऊपर था और बीच में कुछ जगह रह गयी थी। उसी में मुड़ा हुआ अचेत मिला गिरधर।
कुछ दिनों में गिरधर अच्छा हो गया। उसकी एक रीढ़ टूट गयी थी, लेकिन उसका जीवन उसकी रीढ़ से अधिक बलिष्ठ था। उस बंगले को, फिर आगे, बेनी बाबू नहीं बनवा सके। कुछ दिनों तक काम बन्द रहा और वह बीमार पड़ गये। मनुष्य का यह जीवन क्या इतना अस्थिर है? क्या वह फूल के बल से भी अधिक मृदुल है? क्या वह छुई-मुई है? उन दिनों मैं यही सोचता रहा था।
वह बीमार थे और उनकी बीमारी बढ़ती जाती थी। मैं देख रहा था, शायद बेनी बाबू तैयारी कर रहे हैं। लेकिन एक दिन मैंने उन्हें दूसरे रूप में देखा। मैंने देखा कि मृत्यु को उन्होंने मसल डाला है, पीस डाला है। वह छटपटा रही है। वह भाग जाना चाहती है। वह एक पलंग पर लेटे हुए थे, बहुत धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। उनके पास एक नौजवान बैठा हुआ था। वह मौन था और बेनी बाबू उससे कुछ पूछ रहे थे। उसी क्षण मैं पहुँच गया। वह उठने को हुए, तो नौकर ने उन्हें उठा दिया और उनके पीछे तकिये लगा दिये। पहले आंखों पर चश्मा नहीं था, अब उन्होंने चश्मा चढ़ा लिया। संकेत पाकर मैं उनके पास ही कुरसी डालकर बैठ गया था। वह बोले — “सुनते हो मुल्लू, मैं तुमको रोने नहीं दूँगा। रोने दूँ, तो मैं अपने को खो दूँगा। मैं इतना सस्ता नहीं हूँ। मैं मरना नहीं चाहता, इसीलिए मैं तुमको प्रसन्न देखना चाहता हूँ। बतलाओ, तुम किस तरह से प्रसन्न हो सकते हो? मैं और साफ़ कह दूँ? मैं तुमको कुछ देना चाहता हूँ। बोलो, तुम कितने रुपये पाकर ख़ुश हो सकते हो? लेकिन तुम यह सोचने की भूल न करना कि ये रुपये तुम्हारी स्त्री की क़ीमत हैं! एक स्त्री — एक नवयुवती, एक सुन्दरी — को क्या रुपयों से तौला जा सकता है? छिः, यह तो एक मूर्खता की बात है — जंगलीपन की। लेकिन मैंने अभी तुमको बतलाया न, मैं तुमको ख़ुश करना चाहता हूँ।”
“ओह, एक नवयुवती — एक सुन्दरी।”
“तो क्या पत्ती सुन्दर थी?”
“तो उसका कण्ठ ही कोमल न था, वरन्…”
बेनी बाबू बोले — “मैं जानता हूँ कि तुम कुछ कहोगे नहीं। अच्छा, तो मैं ही कहे देता हूँ — उसके बच्चे की परवरिश के लिए, दस रुपये हर महीने मुझसे बराबर ले जाया करना। समझे। यह लो दस रुपये। आज पहली तारीख़ है। हर महीने की पहली तारीख़ को ले जाया करना।”
जेब से नोट निकालकर उन्होंने मुल्लू के आगे फेंक दिया। मुल्लू तब कितना ख़ुश था, उसको मैंने जाना। किन्तु बेनी बाबू ने जितना कुछ जाना, उसको मैं न जान सका। मुल्लू जब छलकते हुए आनन्दाश्रुओं के साथ चल दिया, तो बेनी बाबू बोले — “मेरा ख़याल है, अब वह ख़ुश रहेगा। क्यों? तुम क्या सोचते हो?”
मैं चकित था, प्रतिहत था, अभिभूत था, तो भी मैंने कह दिया — “आपने यह क्या किया?”
“ओह, तुम मुझसे पूछते हो छोटे भैया, यह क्या किया? यह मैंने अपने को भुलाने के लिए किया है क्योंकि मनुष्य अपने को भुलावे में रखने का अभ्यासी है। मैंने देखा — मैं एक भूल कर रहा हूँ, मैं मृत्यु को भुला रहा हूँ। तब मैंने सोचा — मैं ऐसी भूल नहीं करूंगा, जिसमें अपने-आपको भी भुला सकें। जीवन में एक ऐसा क्षण भी आता है, जब हमको अपने-आपको भी भुलाना पड़ता है। यह मेरा ऐसा ही क्षण है। लेकिन यह मेरी भूल नहीं है। यह तो मेरा नवजीवन है — जागरण।”
यह कथा यहीं समाप्त हो गयी है। किन्तु इस कथा के प्राण में जो अन्त:कथा है, उसी की बात कहता हूँ। उपर्युक्त घटना के साथ कुछ वत्सर और जुड़ गये हैं। यह बंगला अब मुझे रहने के लिए दिया गया है। मैं अब अकेला ही इसमें रहता हूँ। कई सहस्र पुस्तकों के महत् ज्ञान से आवृत्त मैं — लोग कहते हैं — प्रोफ़ेसर हूँ। जीवन और जगत् का तत्त्वदर्शी। लेकिन मैं अपनी समस्या किससे कहूँ — अपना अन्तर किसको खोलकर दिखाऊं? बच्चे सुनें, तो हंसे और बीवी सुने, तो कहे — पागल हो गये हो। कभी-कभी रात के घोर सन्नाटे में स्वप्नाविष्ट-सा मैं कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ सुनने लगता हूँ। कोई खिल-खिलाकर हंस रही है। कोई धक्का देकर कह रही है — गा री पत्ती — और चूड़ियाँ खनक उठती हैं, छत कुटने लगती है और एक कोमल, अत्यन्त कोमल गायन-स्वर फूट पड़ता है — “निंदिया लागी…” और उसके हाथों में जो छाले पड़ गये हैं, वे वहाँ से उठकर मेरे हृदय से आकर चिपक गये हैं।
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