बनकर निर्मोही
होकर हर एक चिंता से दूर
घाव, अश्रु, दुख, तक़लीफ़,
खुशी, उल्लास, आह्लाद, आश्चर्य
अपने-पराये, अच्छे-बुरे
धन-दौलत, वसीयत, कर्ज़
गहने, ज़ेवर, चूड़ी, पाज़ेब
मेहंदी का चटक रंग,
सौंधी उसकी सुगंध,
महावर का गहरा रंग,
और
जीवन की उमंग और हर एक तरंग
से होकर परे,
जब तुम छोड़ चली थी इस जग को।
आज भी
उस दिन के
हर मिनट का हिसाब रखा है मैंने,
आँखों के आगे हर मंज़र है साफ़
आज भी,
शोख हरे रंग की साड़ी में लिपटी तुम
चेहरे पर वही स्निग्ध मुस्कान बिखेरती हुई,
पर न जाने क्यूँ
रह-रहकर उस दिन
भर आ रही थीं
आँखें तुम्हारी,
जैसे एहसास सा हो रहा था कहीं
कि ये सब छूटने ही वाला है।
याद है मुझे आज भी
कि उस दिन
सारे सामान की लिस्ट बनवाई थी तुमने,
कहा था- कल सोमवार है, कल मटर फुला देना,
परसों कढ़ी बनेगी
याद मुझे दिला देना।
यूँ हर घड़ी बेसबर सी हो रही थी तुम
जैसे हर एक पल में
एक सदी जी लेना चाहती थी तुम।
याद आ रहा है आज भी
किस तरह
फ्रिज की बोतलें भी भर रखी थीं तुमने,
ऐसी लालसा
एक ही दिन में
पूरी ज़िंदगी जी लेने की क्यों थी,
तब हुआ था एहसास,
जब रात होते-होते
प्राण उड़ चुके थे तुम्हारे
पंख लगाकर।
चेहरे को कम,
तुम्हारे पैरों को ज़्यादा निहारा था मैंने,
क्योंकि तब जाकर हुआ था मुझे यक़ीन
फिर कभी दुबारा छू न सकूँगी इन्हें,
हाँ, आज भी उस दिन के
हर मिनट का हिसाब रखा है मैंने
जब निर्मोही बनकर, माँ
सब कुछ छोड़ चली थी तुम।

अनुपमा मिश्रा
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