निषिद्ध — एक आवाज़ …लैंगिक विषमता के विरुद्ध
जैसा कि सर्वविदित है तसलीमा नसरीन ने हमेशा ही समाज में औरतों को समानता का अधिकार दिलाने, उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से स्वतंत्र करने के लिए पुरज़ोर आवाज़ उठाई है। उनकी कलम जब भी चली समाज में ख़ासतौर से पूर्वी देशों में जड़ जमाये लैंगिक असमानता, शिशु यौन शोषण, धर्मांधता जैसे वृक्षों की जड़ें हिल गयीं। हमेशा से औरतों की आज़ादी की पक्षधर लेखिका ने समाज में व्याप्त पुरुषवादी सोच और पुरुष तंत्र के हर पक्ष को उजागर किया है। समाज में औरतें सभ्यता के आरंभ से ही एक गंभीर मसअला बन कर रह गयीं। पुरुषों द्वारा निर्मित समाज ने जो भी नियम बनाये वो अपने हक़ में बनाये। जहाँ उन्होंने अपने लिए अधिकारों का हिमालय खड़ा कर लिया, वहीं अधिकार के नाम पर स्त्रियां आज भी हाशिये पर खड़ी दिखाई देतीं हैं।
पूर्वी देशों में तो स्त्रियों और बच्चियों की दशा और भी दयनीय है। उन्हें हर दिन किसी न किसी पुरुष की यौनेच्छा का शिकार होना पड़ता है फिर भी इस पुरुष संचालित समाज में पुरुष शिखर पर है। लेखिका ने पुरुषवादी समाज को नसीहत दी है और स्पष्ट किया है कि-
“यह विकृत मानसिकता के लोग हैं जो औरतों को देखकर अपनी कामेच्छा पर नियंत्रण नहीं रख पाते और बलात्कार जैसी अमानवीय घटना को अंजाम दे बैठते हैं।“
इसे रोकने को लेकर भी लेखिका का मत स्पष्ट है। एक जगह उन्होंने लिखा है-
”कोई भी क़ानून या सज़ा इसे नहीं रोक पाएगी। जिस दिन से पुरुष बलात्कार करना बंद कर देगा ये उस दिन ही रुकेगी।“
तसलीमा नसरीन ने हमेशा ही सभी धर्मों में, मुख्य रूप से इस्लाम में प्रचलित कट्टरपंथ और अंधविश्वासों पर कुठाराघात किया है जिसके लिए उन्हें इस्लामिक कट्टरपंथियों का आक्रोश सहना पड़ा, यहां तक कि देशनिकाला भी दे दिया गया। वो आज भी एक निर्वासित जीवन जीने को मजबूर हैं। अपने इस दर्द को भी उन्होंने बख़ूबी उकेरा है। बहुत हद तक यह आत्मकथात्मक शैली में लिखी गयी किताब है। इसके हर शीर्षक में लेखिका का दर्द उभरा है और समाज के हर पहलू का सच बिखरा है।
हमेशा ही लेखिका ने औरतों की आज़ादी, उनके अधिकार, स्त्री पुरुष साम्यवाद, उन पर जबरन थोपने वाली प्रथाओं और मानवाधिकार की लड़ाई लड़ी है और उन पर अपनी क़लम का तीखा प्रहार किया है। यह किताब भी इन्हीं बुराइयों के खिलाफ़ खड़ी दिखाई देती है।
© वंदना कपिल