‘Aurat’ – Nukkad Natak by Jan Natya Manch

पात्र-विभाजन:

औरत
सूत्रधार/अभिनेता-1/मज़दूर
अभिनेता-2/पंडित/गुंडा
अभिनेता-3/गुंडा/ससुर/मालिक
अभिनेता-4/बाप/मज़दूर
अभिनेता-5/पुलिस
अभिनेता-6/पति/गुंडा/मज़दूर

(गोलाकार अभिनय स्थल। छह अभिनेता एक दूसरे के कंधों पर हाथ रखे वृत्ताकार रचना में घूमते हुए एक छोर से प्रवेश करते हैं। उनके बीच में छुपी एक अभिनेत्री सहित वे केंद्र में आकर रुकते हैं। एक साथ पलट कर दर्शकों की ओर मुंह कर बैठते हैं। अभिनेत्री बीच में खड़ी दिखायी देती है।)

अभिनेत्री :

मैं एक माँ
एक बहन
एक अच्छी पत्नी
एक औरत हूँ।

अभिनेता-1 :

एक औरत जो न जाने कब से
नंगे पांव रेगिस्तानों की धधकती बालू में
भागती………….रही है।

अभिनेत्री : मैं सुदूर उत्तर के गाँवों से आयी हूँ।

अभिनेता-2 :

एक औरत जो न जाने कब से
धान के खेतों और चाय के बागान में
अपनी ताकत से ज्यादा मेहनत करती आयी है।

अभिनेत्री :

मैं पूरब के अंधेरे खंडहरों से आयी हूँ
जहाँ मैंने न जाने कब से
नंगे पाँव
अपनी मरियल गाय के साथ
खलिहानों में
दर्द का बोझ उठाया है।

अभिनेता-3 :

उन बंजारों में से
जो तमाम दुनिया में भटकते फिरते हैं
एक औरत जो पहाड़ों की गोद में बच्चे जनती है
जिसकी बकरी मैदानों में कहीं मर जाती है
और बैन करती रह जाती है।

अभिनेत्री : मैं वह मजदूर औरत हूँ।

अभिनेता-4 :

जो अपने हाथों से फैक्ट्री में
भीमकाय मशीनों के चक्के घुमाती है
वह मशीनें जो उसकी ताकत को
ऐन उसकी आँखों के सामने
हर दिन नोंचा करती है
एक औरत जिसके खूने जिगर से
खूँखार कंकालों की प्यास बुझती है,
एक औरत जिस का खून बहने से
सरमायेदार का मुनाफा बढ़ता है।

अभिनेत्री : एक औरत जिसके लिए तुम्हारी बेहया शब्दावली में

अभिनेता-5 :

एक शब्द भी ऐसा नहीं
जो उसके महत्व को बयान कर सके
तुम्हारी शब्दावली केवल उसी औरत की बात करती है
जिसके हाथ साफ हैं
जिसका शरीर नर्म है
जिसकी त्वचा मुलायम है
और जिसके बाल खुशबूदार हैं।

अभिनेत्री : मैं तो वह औरत हूँ

अभिनेता-6 :

जिसके हाथों को दर्द की पैनी छुरियों ने
घायल कर दिया है
एक औरत जिसका बदन तुम्हारे अंतहीन
शर्मनाक और कमर तोड़ काम से टूट चुका है।
एक औरत जिसकी खाल में
रेगिस्तानों की झलक दिखाई देती है
जिसके बालों में फैक्ट्री के धुएँ की बदबू आती है।

अभिनेत्री : मैं एक आजाद औरत हूँ (वृत्त के बाहर निकलती है, मुट्ठी तानकर आगे किए हुए, बाकी अभिनेता भी उसके पीछे मुट्ठी ताने एक घुटना टेके एक पैर आगे बढ़ाकर बैठते हैं)

मोहन राकेश का नाटक 'आधे अधूरे'

अभिनेता-1 :

जो अपने कामरेडों, भाइयों के साथ
काँधे से काँधा मिला कर
मैदान पार करती है

अभिनेता-2 :

एक औरत जिसने मजदूर के
मजबूत हाथों की रचना की है
और किसान की बलवान भुजाओं की।
(बाकी अभिनेता वैसे ही बैठे रहते हैं, अभिनेत्री उनके बीच इधर-उधर घूम कर संवाद बोलती है।) 

अभिनेत्री :

मैं खुद भी एक मजदूर हूँ
मैं खुद भी एक किसान हूँ
मेरा पूरा जिस्म दर्द की तस्वीर है
मेरी रग-रग में नफरत की आग भरी है
और तुम कितनी बेशर्मी से कहते हो
कि मेरी भूख एक भ्रम है
और मेरा नंगापन एक ख्वाब
एक औरत जिसके लिए तुम्हारी बेहूदा शब्दावली में
एक शब्द भी ऐसा नहीं
जो उसके महत्व को बयान कर सके।
(बाकी अभिनेता पलट कर वृत्ताकार आकृति में एक दूसरे की ओर मुंह कर के बैठते हैं।)

अभिनेता-5 :

एक औरत जिसके सीने में
गुस्से के फफकते नासूरों से भरा
एक दिल छिपा है

अभिनेता-4 :

एक औरत जिसकी आँखों में
आजादी की आग के लाल साये
लहरा रहे हैं।

अभिनेत्री :

एक औरत जिसके हाथ
काम करते करते सीख गए हैं
लाल झंडा कैसे उठाया जाता है।
(लाल झण्डा उठाती है।)

सूत्रधार :

आइये, आपको एक कहानी सुनाएँ, छोटी सी कहानी,
छोटी सी बिटिया की छोटी सी कहानी।

औरत :

(ग्यारह का पहाड़ा दोहराती है)
[एक अभिनेता उठता है, बाप के अभिनय में]

बाप : मुन्नी…. मुन्नी मुन्नी कहाँ मर गयी तू। चिलम भरने को दी थी और अब तक नहीं लौटी।

औरत : (पास आते हुए) ग्यारह दूनी बाइस

बाप : क्योंरी यह घर है या स्कूल… घंटा भर हो गया काम से आये। कब तक मैं यूं ही बैठा रहूँगा? मुन्नी…

औरत : बाबा मैं याद कर रही थी। मास्टरजी कहते हैं घर पे पढ़ा करो। समझ न आये तो अपने बाबा से पूछो।

बाप : बाबा से पूछो! बाबा से पूछो तो घर बैठो और काम करो। क्या करेगी स्कूल जा के। तुझे कौन दफ्तर जाना है?

औरत : मास्टरजी कह रहे थे कल किताब जरूर लाना नहीं तो नाम काट देंगे। और कह रहे थे स्कूल की वर्दी धुली हुई होनी चाहिए, इंस्पेक्टर साहब आने वाले हैं।

बाप : हरामजादों को बच्ची का मन बहलाने के सिवा कोई काम है? यहाँ दो जन खाने के दाने नहीं हैं घर में, बरसात आने वाली है और छप्पर अब तक ठीक नहीं करा पाये, इन्हें किताबें चाहिए? धुली हुई वर्दी चाहिये? कल से स्कूल विस्कूल बंद।

औरत : नहीं बाबा मैं स्कूल जाऊंगी…

बाप : चुप रहे, तेरे भाई को स्कूल भेज रहा हूँ उसी में कमर टूटी जा रही है…

औरत : (रोती हुई) बाबा मैं भी स्कूल जाऊंगी।

बाप : बिटिया घर का काम-काज किया कर….. कोई बच्चीनीहं रह गई। दस साल की होने को आयी, ढींग की ढींग। स्कूल जाएगी…. कुछ काम ढूंढ दूंगा तेरे लिए। यह आवारों की तरह उछल कूद बंद कर दे। बड़ा बुरा ज़माना आ रहा है।

औरत : बाबा एक रस्सा ला दो, शाम को खेलने के लिए…

बाप : इसीलिए कहता हूँ, बच्चों को स्कूल भेजना ही नहीं चाहिए। बच्चों को स्कूल भेजो तो कॉपी-किताब का खर्चा, वर्दी का खर्चा-अब ये खेलकूद और एक बला हो तो…

औरत : रस्सा… ला दो बाबा रस्सा…

बाप : गले में लटका के मर क्यों नहीं जाती कम्बख्त, तेरी मां मर रही है, तू भी मर। पीछा छूटेगा। लड़का है, किसी तरह पाल लूंगा। कहाँ से लाऊं तेरे लिए। तनख्वाह के नाम पे पिछले पाँच साल से एक पैसा नहीं बढ़ा। बढ़ाने की बात भी करो तो सालों ने तालाबंदी की धमकी दे दी और एक तरफ ये हैं… किताब चाहिए, खिलौने चाहिए, चल उठ बासन मांझ, हरामजादी कहीं की! स्कूल जाएगी।

औरत : जाऊंगी, जाऊंगी, जाऊंगी! सुबह-सुबह सारे बच्चे सुंदर कपड़े पहन कर बस में बैठ कर जाते हैं, मैं भी जाऊंगी।

बाप : उन बच्चों की जितनी फीस है उतनी तेरे बाप की पगार है, चल उठ, और लाला से जाकर आटा ले आ।

औरत : बाबा वह आटा नहीं देता।

बाप : अरे आटा क्यों नहीं देता… उधार देता है कोई भीख नहीं देता।

औरत : पर बाबा उसका बेटा कहता है…

बाप : क्या कहता है?

औरत : कहता है… कहता है… अगर उधार में आटा चाहिए तो दुकान बंद होने के बाद अकेले में आना।

बाप : सूअर का बच्चा! अगर उधार न चुकाना होता… (बाबा और औरत दोनों अपनी मुद्रा में ‘फ्रीज’ हो जाते हैं। सूत्रधार उठ कर दर्शकों से सम्बोधित होता है।)

सूत्रधार : एक दिन बाबा की फैक्ट्री में तालाबंदी हो गयी। लाल झंडा हाथ में लेकर चिल्लाते हैं ‘हड़ताल हमारा नारा है’। ‘संघर्ष हमारा नारा है।’

औरत : मेरे साथ अब इतना बुरा सलूक नहीं होता। लेकिन बोझ मैं अब भी हूँ। इसीलिए मेरा लगन तय हो गया है। आज फेरे हैं। लड़का भैया की मिल में 2000 रु. महीना तनखा पाता है।

(गाते नाचते बारात का दृश्य। तीन बराती, रामनाम का दौशाला डाले पंडित, दूल्हा, और ससुर। पंडित, औरत का पल्लू दूल्हा की पैंट से बांधता है, गायत्री मंत्र उच्चारण के दौरान दोनों दायरे का चक्कर लगाते हैं। फेरा पूरा होने पर पंडित के सामने रुकते हैं।)

भुवनेश्वर का नाटक 'ताँबे के कीड़े'

पंडित : सास-ससुर की आज्ञा मानोगी। पति को साक्षात भगवान जानोगी, पहले उन्हें खिलाओगी, फिर खुद खाओगी। पति ससुर अन्याय भी करें तो उसे न्याय मानोगी, कभी पलट कर उत्तर नहीं दोगी, आँखें सदा नीची रखोगी, घर का काम काज संभालोगी।

[बाकी पात्र दोहराते हैं।]

पति : फौरन कोई काम तलाश करोगी, सबेरे ही सब्जी मंडी से साग तरकारी लाओगी। फिर कुएँ से पानी। बाबा का हुक्का भरोगी। झाड़ू-पोंछा, चौका चक्की सब तुम्हीं संभालोगी।

ससुर : इस घर में आराम करने नहीं बोझ बंटाने आई हो। अपनी सास को आराम दोगी। सारा काम संभालोगी।

[बाकी पात्र दोहराते हैं।]

पंडित : तथास्तु, (पंडित, पति और ससुर अपनी-अपनी मुद्राओं में थम जाते हैं। बाकी पात्र बैठ जाते हैं।)

सूत्रधार : इस तरह गृहस्थी की चक्की में पिसते-पिसते आठ बरस हो गए। (ससुर, पति तथा पंडित वापस दायरे में बैठते हैं।)

औरत : (घर का काम करते करते) छोटे-छोटे बच्चे हैं। कमजोर गंदे और चीं-पीं करते हुए। 25 साल की उमर में 40 साल की बुढ़िया लगती हूँ। मुंह अंधेरे जागती हूँ, घर का सारा काम काज करती हूँ। चक्की पर जाती हूँ गेहूँ साफ करने। दोपहर का चौका बर्तन कर फिर काम पर जाती हूँ, शाम ढले लौटती हूँ। फिर सारा काम, ससुरजी के मरने के बाद से ही मेरा आदमी शराबी हो गया। (पति बैठे-बैठे बोलता है – ‘हरामजादी’) रात दिन मारपीट और गाली गलौज करता है। थाने में नाम दर्ज है उसका।

(पति शराब की बोतल लेकर उठता है।)

पति : अरी ओ हरामजादी, यह मुन्ना क्यों रोये जा रहा है?

औरत : जाग गया है तुम्हारे दहाड़ने से।

पति : तो चुप करा इसे, नहीं होता तो उठा कर बाहर फेंक दे सुअर के बच्चे को।

(अपनी मुद्रा में फ्रीज़ हो जाता है।)

सूत्रधार : क्या होगा इन ‘सुअर के बच्चों’ का। दिन भर आवारा घूमते हैं। पढ़ाई लिखाई का कोई प्रबंध नहीं। बड़े होकर अपने बाप पर ही जाना है इन्हें।

औरत : बड़े होंगे तो काम की तलाश में मारे-मारे भटकेंगे, न जाने कहाँ-कहाँ जायेंगे। मुझ से दूर। मैं हमेशा की अकेली, हमेशा की खामोश किस के सहारे जिऊँगी। चक्की से जवाब मिल गया तो किसके दरवाज़े पर जाऊँगी? हे भगवान, तू ही कुछ कर।

पति : भगवान क्या कर लेगा? उसे क्या पड़ी है तेरी तरफ देखने की? सेठ जी का बंगला पसंद है उसे। सेठानी गोरी चिट्टी है। भोग भी वह अंग्रेजी बोतल का लगाता होगा।

औरत : यह उल्टी सीधी न बको। इसी सबके कारण तो यह हाल है। मंदिर जाते, भले मानस की तरह रहते तो घर की सकल ही कुछ और होती आज।

पति : हरामजादी कहीं की। जबान लड़ाती है (थप्पड़ मारता है। औरत गिर पड़ती है।) आदमी को कहीं आराम ही नहीं। फैक्ट्री से थका मांदा आता है। फैक्ट्री में सुपरवाईजर की भौं-भौं, घर में तेरी। दान दहेज के नाम पर तो बाप को साँप सूंघ गया था, और बेटी है कि होश ही ठिकाने नहीं है। चल उठ। घर का काम काज कर बड़ी आयी है, हरामजादी। (दोनों दायरे में बैठ जाते हैं। सूत्रधार उठता है।)

सूत्रधार : 

बाप के भाई के और खाविन्द के
ताने तिश्नों को सुनना तमाम उमर।
बच्चे जनना सदा, भूखे रहना सदा
करना मेहनत हमेशा कमर तोड़ कर
और बहुत से जुलमों सितम औरत के हिस्से आते हैं
कमजोरी का उठा फायदा गुण्डे उसे सताते हैं।
दरोगा और नेता वेता दूर से यह सब तकते हैं
क्योंकि रात के परदे में वह खुद भी यह सब करते हैं।
औरत की हालत का यह तो जाना माना किस्सा है
और झलकियाँ आगे देखो जो जीवन का हिस्सा है।

(औरत दायरे से उठती है, हाथ में कुछ किताबें लिए हुए)

औरत : मैं औरत का एक और रूप हूँ। स्कूल पास किया है मैंने। घर वालों को बहुत मुश्किल से रोज कालेज भेजने के लिये राजी किया है। वहीं जा रही हूँ दाखिला कराने।

(बाकी अभिनेता इंटरव्यू पैनल का दायरा बनाते हैं।)

पहला : ट्रिन…. ट्रिन।

दूसरा : नेक्स्ट।

तीसरा : अगले कैंडीडेंट को अंदर भेजो।

(औरत पैनल के दायें से अंदर आती है। आखिर तक वहीं रहती है)

औरत : नमस्ते।

चौथा : गुड मार्निग सर कहो।

पांचवाँ : न जाने कहाँ से यह फटीचर उठ कर आ जाते हैं।

छठा : ओह दीज़ रैचिज़।

पहला : हम्म्! तुम्हारे कागजात। (देती है)

दूसरा : फ़िजिक्स!

तीसरा : कैमेस्ट्री!

चौथा : बायोलॉजी!

पाँचवाँ : मैथेमेटिक्स!

छठा : हिंदी??!!

पहला : व्हाट इज़ आल दिस?

दूसरा : भई, यहाँ तो मिलिट्री साईंस और चाइल्ड साईकोलोजी में ही सीटें खाली हैं।

छठा : अब तुम्हारा क्या होगा?

औरत : गुड मार्निग सर, मुझे दाखिल कर लीजिए, मैं फीजिक्स पढ़ना चाहती हूँ।

औरत : मैं फिजिक्स पढ़ के इंजीनियर बनना चाहती हूँ।

दूसरा : तुम्हें मालूम है फिजिक्स की पढ़ाई में कितना खर्चा होता है?

दूसरा : यहाँ तो लिखा है तुम्हारे डैडी को 3500 रुपये महीना मिलते हैं।

छठा : तुम्हें मालूम है यूल ब्राईनर की ‘प्रॉब्लम्स ऑफ फ़िजिक्स इन द वाइल्ड वेस्ट।’

चौथा : 500 रुपये की आती है, और यह किताब हर विद्यार्थी को खरीदनी ज़रूरी है।

पाँचवाँ : इसके अलावा जान हैम्बरगर की ‘फंडामेटल्स ऑफ फ़िजिक्स इन दि ट्वन्टीथ सेंचुरी’ 375 रुपये की आती है।

छठा : कालिज की महीने की फीस 200 रुपये है।

पहला : बिल्डिंग फंड के 400 रुपये।

दूसरा : लैब चार्जिज़ 450 रुपया महीना।

तीसरा : कुल मिलाकर 1050 रुपये।

चौथा : दे पाओगी?

औरत : हाँ जी, कुछ न कुछ करूंगी, ट्यूशन पढ़ाकर दूंगी।

तीसरा : ट्यूशन पढ़ाओगी तो अपनी पढ़ाई कब करोगी (सब हंसते हैं) फेल हो गयी तो कालिज का नाम बदनाम होगा।

पाँचवाँ : खैर तुम्हें दाखिल किया जाता है।

पहला : पर इतना याद रखना इस कालिज के अपने नियम हैं एक परंपरा है।

चौथा : लड़कियाँ लड़कों से बात नहीं करतीं।

पाँचवाँ : लड़कियाँ कैंटीन में नहीं जातीं।

दूसरा : राजनीतिक और हड़ताले बिल्कुल बर्दाश्त नहीं की जातीं, समझ गयी?

तीसरा : जाओ कल से क्लास में आना।

सब : बाहर फीस जमा कर दो।

(सब अभिनेता बैठते हैं।)

औरत : खैर दाखिला हुआ, पर आज कल लड़कियों के लिए कालिज आना जाना कोई हंसी खेल नहीं है। लगता है पूरा शहर शोहदों और गुन्डों से भरा पड़ा है। लड़की देखते ही भेड़ियों की तरह झपटते हैं। (अभिनेता उछलकर नाचते हैं। काला चश्मा, गले में भड़कीले रूमाल बांधे, पंडित का पार्ट करने वाला पुलिस कैप लगाये, हाथ में छड़ी लिए खड़ा होता है, बाकियों को देख मुस्करा कर ठुमके लगाता है।)

गुण्डे : (गाते हैं) चली गोरी कालिज से घर को चली।

(तीनों उसके साथ छेड़खानी करते हैं।)

औरत : ऐ पुलिस वाले, खड़े दाँत क्या निकाल रहे हो? रोकते क्यों नहीं इन्हें?

(गुंडे पहले डर कर ‘पुलिस पुलिस’ चिल्लाते भागते हैं। फिर जेब से एक नोट निकाल कर पुलिस वाले को देते हैं। पुलिस वाला पलट कर औरत की तरफ बढ़ता है।)

पुलिस : अरी तमीज से बात कर, बड़ी आई है दरोगन। ऐसी ही सीता है तो घर में बैठ, क्यों भटक रही है गली कूचों में, और यह सब पसंद नहीं तो टैक्सी में आया-जाया कर।

गुण्डे : टैक्सी टैक्सी

(सब अपनी मुद्रा में थम जाते हैं।)

सूत्रधार : यह रोज़ ही होता है, शहरी हंसते रहते हैं। शरीफ आदमी गुंडों से घबराते हैं और पुलिस में तो वर्दीधारी गुंडे ही भरे पड़े हैं।

(पुलिस और गुंडे बैठ जाते हैं)

औरत : कालिज की पढ़ाई किसी तरह राम राम करके खतम हुई, बड़े घरों से आने वाले फर्राटे से अंग्रेजी बोलने वाले लड़के-लड़कियों को अच्छे नम्बर मिले। मैं रो-धो कर पास हुई तीसरी श्रेणी में। फिर नौकरी की तलाश। एक जगह से इंटरव्यू का बुलावा आया। अंदर गयी तो देखा कल तक कालिज में आवारागर्दी करने वाला एक सेठ का लड़का आरामकुर्सी पर बैठा था, वही मालिक था उस दफ्तर का जहाँ नौकरी निकली थी। लेकिन मैं समझ नहीं पायी कि इंटरव्यू लेने वाला मेरे शरीर में दिलचस्पी रखता था या मेरी डिग्री में।

(पहला गुंडा मालिक बन कर आता है)

गुंडा : हम्… मिस आपकी तो सैकंड डिवीजन है, कम्प्यूटर में क्या आता है?

औरत : सर मुझे कम्प्यूटर नहीं आता।

गुंडा : तो फिर क्या आता है? दफ्तर के कामकाज का पन्द्रह साल का अनुभव है?

औरत : सर अभी तो मेरी उम्र ही 20 साल की है। वैसे कालिज में, मैंने फ़िज़िक्स और कैमेस्ट्री पढ़ा था। वह सब याद है मुझे।

गुंडा : फ़िज़िक्स? कैमिस्ट्री? फिर तो आप काले को सफेद और सफेद को काला करना जानती होंगी?

औरत : जी? मैं समझी नहीं।

(गुंडा लड़की को अपने आगोश में लेने की कोशिश करता है)

गुंडा : इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का धंधा होता है यहाँ। रोज काले को सफ़ेद और सफ़ेद को काला करना पड़ता है। (औरत थप्पड़ मारती है) आपकी शिक्षा किसी काम की नहीं। आप जा सकती हैं।

(बाकी सब दोहराते हैं, ‘आप जा सकती हैं’। पहला गुंडा दायरे में बैठता है।)

औरत : ‘आप जा सकती हैं’ हर जगह यही जवाब मिलता है, अब इस बी.एस.सी. की डिग्री का क्या करूं?

(सभी पात्र खड़े होकर जुलूस बनाते हैं।)

एक दिन मैंने देखा, नौजवानों का जुलूस। बहुत से लड़के लड़कियाँ। मैं भी उनके साथ शामिल हो गयी।

(जुलूस में जा मिलती है। नारे लगते हैं : बेरोजगारी दूर करो… बेरोजगारी दूर करो… बेरोजगारी दूर करो…)

औरत : अचानक पुलिस आ गयी (पात्र खुद को लाठियों से बचाने का अभिनय करते हैं) एक-एक को दस-दस ने दबोच लिया। मुझ पर भी लाठियाँ पड़ीं। औरों के साथ डाल दिया गया जेल में। (पात्र खड़े होकर हाथ ऊपर उठाये एक जेल के कमरे की तरह खड़े होते हैं। उनके बीच में कैद औरत।) जानते हैं क्यों? दंगा करने के अपराध में। मैं समझ नहीं पाई कि ऐसा क्यों हुआ। मुहल्ले में बदनामी हुई, बिरादरी में नाक कटी। पर नौकरी के नाम पे वही ढाक के तीन पात। चार दिन जेल काटने के बाद घर आई तो पिता जी कहने लगे-

(बाप का अभिनय करने वाला अभिनेता उठता है।)

बाप : लड़की बदचलन हो गयी है। मैं न कहता था मत भेजो कालिज, बाहर की हवा लगते ही पर निकल आयेंगे। अब मैं बिरादरी को क्या मुंह दिखाऊंगा। ऐसी लड़की को भला, वर कहाँ मिलेगा। हे राम अब तू ही कुछ कर।

(दोनों बैठे जाते हैं। सूत्रधार उठता है।)

सूत्रधार :

बीबी हो, माँ हो, या हो वो किसी घर की बेटी।
कालिज में पढ़ने जाती हो, चाहे कोई लड़की।
हर जगह इस समाज में रहती है वह पीछे।
मुंह पर लगे हैं ताले, नज़र उसकी है नीचे।
पर सबसे बुरा हाल है उस बदनसीब का
करके मजूरी जो कि चलाती हो जीविका।
स्कूल में हो, फैक्ट्री में, या हो खेत में
रहती है हमेशा ही जुल्म की चपेट में।
आओ दिखाऊँ तुमको मैं इक ऐसी ही नारी
कि फैक्ट्री में काम जो करती है बेचारी।

(सूत्रधार और दो अभिनेता तथा औरत फैक्ट्री में काम करने का अभिनय करते हैं। मालिक का अभिनय करने वाला अभिनेता आता है।)

मालिक : बुढ़िया, क्या हाथ टूट गए हैं तेरे? हट्टी-कट्टी नजर आती है फिर भी हरामखोरी।

(औरत और ज्यादा जोर से काम करती है।)

मालिक : अरी नहीं है तेरे बस का तो घर बैठ, और सैकड़ों मिल जायेंगे, बाहर लाइन लगाये खड़े रहते हैं।

औरत : सब के बराबर का काम करती हूँ, फिर भी कम दिहाड़ी देते हो। ऊपर से यह डांट डपट, यह कहाँ का न्याय है।

मालिक : जबान चलाती है हरामजादी (मारने के लिये छड़ी उठाता है)

सूत्रधार : ए.ए. सेठजी होश में।

दूसरा मजदूर : हाथ न उठाना

तीसरा मजदूर : बहुत बुरा होगा। बताए देते हैं, हाँ।

मालिक : अच्छा बेटा, अभी दिखाता हूँ यहाँ का मालिक कौन है।

ए बुढ़िया बाहर निकल, आज से तेरी नौकरी खत्म।

औरत : नहीं सरकार, ऐसा जुल्म मत करो। मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ। मेरे बच्चे भूखे मर जायेंगे।

सूत्रधार : अरे हाथ क्यों जोड़ती है, क्यों खुद को गिराती है? यूनियन किस काम आएगी, मजाक समझ रखा है जब मरजी जिस को निकाल देंगे। तू अरजी लिख, हम सब तेरे साथ हैं।

औरत : न भैया, यह सब मुझसे नहीं होगा। हमारे यहाँ औरतें चिट्ठी न लिखा करें, बिरादरी में नाक कट जाएगी। मैं जाकर सेठजी से माफी माँग लूंगी, भगवान ज़रूर कुछ करेंगे।

दूसरा : अरी भगवान ही तेरे होते तो इस बुढ़ापे में दो रोटी के लिए यह दिन दिखलाते? तू लड़, हम सब तेरे साथ हैं।

औरत : क्यों मेरे दुश्मन बने हो? तुम्हारा तो काम ही है फिजूल में हुल्लड़बाजी करना। बहाना मिलना चाहिए झगड़े का। मेरे पास न लड़ने की ताकत
है न फुरसत। मैं सेठ जी से माफी माँग लूंगी।

तीनों : मान जा।

(औरत दौड़ कर मालिक के पास जाकर पैरों पर गिर पड़ती है)

औरत : सरकार, मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ। मुझसे गलती हो गयी। इन लोगों की वजह से मुझ पर क्यों नाराज होते हो। मेरा पूरा घर बार तुम्हारी ही दया पर जिंदा है। मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ सरकार।

मालिक : बुढ़िया, मुंह से निकली बात पत्थर की लकीर है। कह दिया – नहीं है तेरे लिए नौकरी। जा अपने हिमायतियों के पास, माँग उनसे नौकरी।हिम्मत है तो रखवा दें काम पर।

औरत : सरकार….

मालिक : (चिल्ला कर) चली जा….

तीनों : (दर्शकों से)

भेड़िये से रहम की उम्मीद छोड़ दे।
अपनी इन सदियों पुरानी बेड़ियों को तोड़ दे।
आ चुका है वक्त अब इस पार या उस पार का
राज़ जाहिर हो चुका है असली जिम्मेदार का।

(औरत लड़खड़ाते कदमों से वापस आती है। मज़दूर, औरत को बीच में करके, नारे लगाते हैं)

मजदूर : हर जोर जुलम की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है।

मालिक : ए, यह काम कैसे रुक गया, चलो, काम से लगो। ये मेरा आर्डर है।

सूत्रधार : जब तक इसे काम पर नहीं लोगे काम शुरू नहीं होगा।

मालिक : कह दिया इस बुढ़िया के लिए कोई जगह नहीं है।

तीनों : तो पूरी हड़ताल होगी।

मालिक : अच्छा, यह तेवर है। (चीखता है) शेरा, पुलिस (बाकी तीनों अभिनेता भागे आते हैं, मालिक के इशारे पर तीनों मजदूरों पर वार करते हैं। वह गिरते हैं। औरत झुक कर लाल झंडा उठाती है।)

औरत : हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है। हर जोर जुल्म की टक्कर में…

(सभी अभिनेता उठकर नारा लगाते है)

सब : संघर्ष हमारा नारा है।

सूत्रधार : यह वक्त की आवाज है। मिल के चलो

(सब गाते हैं)

यह जिंदगी का राज है, मिल के चलो।
मिल के चलो, मिल के चलो, मिल के चलो…

यह भी पढ़ें: रशीद जहाँ का नाटक ‘मर्द और औरत’

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