ओ! कश्मीरी बाला
झेलम की अविरल धारा
डल में धड़कती शिकारा
ओ! कश्मीरी बाला

रुख़ पै रोशन केसरी लाली
मुस्काँ बिखेरती चारों तरफ़
पर्वत की बिटिया हो तुम
आवाज़ में है जमी बर्फ़

रंग-बिरंगा फिरन बेमिसाल
माथे पै जिग्गनी का जमाल
तुम बाकेरखानी, वाज़वान,
फिरनी, कहवा-सी कमाल

तुम निशात-बाग़, तुम शालीमार,
तुम चश्म-शाही, तुम परी-महल,
तुम सेबों के बागान की अरुणिमा,
पतझड़ में चिनार वन की पीतिमा

ओ! कश्मीरी बाला
झेलम की अविरल धारा
डल में धड़कती शिकारा
ओ! कश्मीरी बाला

(2018)

कुशाग्र अद्वैत
कुशाग्र अद्वैत बनारस में रहते हैं, इक्कीस बरस के हैं, कविताएँ लिखते हैं। इतिहास, मिथक और सिनेेमा में विशेष रुचि रखते हैं। अभी बनारस हिन्दू विश्विद्यालय से राजनीति विज्ञान में ऑनर्स कर रहे हैं।