‘October Kranti’, a poem by Abhishek Ramashankar
(अक्टूबर क्रांति की शताब्दी पर लिखी गई)
मेरे साथ चलता हुआ
हर शख़्स
मुझे अपना साथी मालूम पड़ता है
भूखा, प्यासा, थका हुआ
पर हारा हुआ हरगिज़ नहीं
जारशाही परिस्थितियों के विरुद्ध
जीवन की इस क्रांति में
ख़ुद को सेंट पीटर्सबर्ग की सड़कों पर पाता हूँ
सेंट पीटर्सबर्ग जो अंततः सेंट पीटर्सबर्ग
होने तक में
कभी पेत्रोग्राद और कभी लेनिनग्राद भी हुआ करता था
मुझसे आगे सैकड़ों थे,
हैं और रहेंगे
और मेरे पीछे भी सैकड़ों…
कतारबद्ध, बोल्शेविक!
नेवा नदी की तरह बहते हुए
निरंतर, अनुशासित, प्रतिबद्ध।
अपनी आँखों के सामने
हमने, अपनों को खोया
हमारी पीठ पर
निशान उभर नहीं आते
हाथ फेरने से
हमारे दोनों तरफ़
– सीना होता है
जिस पर चलता है
– हल, कुदाल, हथौड़ा
24×7
और लिखता है
गाथा, संघर्ष की
बोल, कभी न मिटने वाली कविताओं के
हमारा बदन बदन नहीं होता
ज़मीन होती है
हमें हर दशा में जीना होता है
हमें हर दिशा से जीना होता है
अपने साथियों के लिए
हमारी पीठ नहीं होती
नहीं होती…
मगर हमारे हिस्से का हर दिन
– रक्तिम रविवार, ज़रूर होता है।
सीमाएँ, होती हैं
अपनी-अपनी
सड़कों की, खेतों की
हम सड़कों पर अनाज नहीं उगा सकते
पर खेतों में सेंध ज़रूर लगा देते हैं
सड़कें, जहाँ चुमती हैं
खेतों को
वहाँ आगमन होता है
हर चुम्बन अलविदा नहीं होता
क्रांति की कोई सीमा नहीं होती ।
चे, शहीद तो होता है
पर मरता कभी नहीं
लेनिन को अब लौट आना है
लेनिन कभी मरा ही नहीं।