आले में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साए-से डोल जाते। थोड़ी देर बाद बत्ती अपने-आप सीधी हो जाती और उसमें से उठनेवाली धुएँ की लकीर आले को चाटती हुई फिर से ऊपर की ओर सीधे रुख जाने लगती। नत्थू की साँस धौंकनी की तरह चल रही थी और उसे लगा जैसे उसकी साँस के ही कारण दीये की बत्ती झपकने लगी है।

नत्थू दीवार से लगकर बैठ गया। उसकी नज़र फिर सुअर की ओर उठ गई। सुअर फिर से किकियाया था और अब कोठरी के बीचोबीच कचरे के किसी लसलसे छिलके को मुँह मार रहा था। अपनी छोटी-छोटी आँखें फ़र्श पर गाड़े गुलाबी-सी थूथनी छिलके पर जमाए हुए था। पिछले दो घंटे से नत्थू इस बदरंग, कँटीले सुअर के साथ जूझ रहा था। तीन बार सुअर की गुलाबी थूथनी उसकी टाँगों को ‘चाट’ चुकी थी और उनमें से तीखा दर्द उठ रहा था। आँखें फ़र्श पर गाड़े सुअर किसी वक़्त दीवार के साथ चलने लगता, मानो किसी चीज़ को ढूँढ रहा हो, फिर सहसा किकियाकर भागने लगता। उसकी छोटी-सी पूँछ, ज़हरीले डंक की तरह, उसकी पीठ पर हिलती रहती, कभी उसका छल्ला-सा बन जाता, लगता उसमें गाँठ पड़ जाएगी, मगर फिर वह अपने-आप ही खुलकर सीधी हो जाती थी। बाईं आँख में से मवाद बहकर सुअर की थूथनी तक चला आया था। जब चलता तो अपनी बोझिल तोंद के कारण दाएँ-बाएँ झूलने-सा लगता था। बार-बार भागने से कचरा सारी कोठरी में बिखर गया था। कोठरी में उमस थी। कचरे की जहरीली बास, सुअर की चलती साँस और कड़वे तेल के धुएँ से कोठरी अटी पड़ी थी। फ़र्श पर जगह-जगह ख़ून के चित्ते पड़ गए थे लेकिन ज़रक़ के नाम पर सुअर के शरीर में एक भी ज़ख्म नहीं हो पाया था। पिछले दो घंटे से नत्थू जैसे पानी में या बालू के ढेर में छुरा घोंपता रहा था। कितनी ही बार वह सुअर के पेट में और कन्धों पर छुरा घोंप चुका था। छुरा निकालता तो कुछ बूँदें ख़ून की फ़र्श पर गिरतीं, पर ज़ख्म की जगह एक छोटी-सी लीक या छोटा-सा धब्बा-भर रह जाता जो सुअर की चमड़ी में नज़र तक नहीं आता था। और सुअर गुर्राता हुआ या तो नत्थू की टाँगों को अपनी थूथनी का निशाना बनाता या फिर से कमरे की दीवार के साथ-साथ चलने अथवा भागने लगता। छुरे की नोक चर्बी की तहों को काटकर लौट आती थी, अन्तड़ियों तक पहुँच ही नहीं पाती थी।

मारने को मिला भी तो कैसा मनहूस सुअर। भद्दा, इतनी बड़ी तोंद, पीठ पर के बाल काले, थूथनी के आसपास के बाल सफेद, कँटीले, जैसे साही के होते हैं।

उसने कहीं सुना था कि सुअर को मारने के लिए उस पर खौलता पानी डालते हैं। लेकिन नत्थू के पास खौलता पानी कहाँ था। एक बार चमड़ा साफ़ करते समय सुअर की चर्बी की बात चली थी और उसके साथी भीखू चमार ने कहा था, “सुअर की पिछली टाँग पकड़कर सुअर को उलटा कर दो। गिरा हुआ सुअर जल्दी से उठ नहीं सकता। फिर उसके गले की नस काट दो। सुअर मर जाएगा।”

नत्थू ये सब तरकीबें कर चुका था। एक भी तरकीब काम नहीं आई थी। इसके एवज़ उसकी अपनी टाँगों और टखनों पर ज़ख्म हो चुके थे। चमड़ा साफ़ करना और बात है, सुअर मारना बिल्कुल दूसरी बात। जाने किस खोटे वक़्त उसने यह काम सिर पर ले लिया था। और अगर पेशगी पैसे नहीं लिये होते तो नत्थू ने कब का सुअर को कोठरी में से धकेलकर बाहर खदेड़ दिया होता।

यह भी पढ़ें: तकषी शिवशंकर पिल्लै के उपन्यास ‘चेम्मीन (मछुआरे)’ का एक अंश

Link to buy:

भीष्म साहनी
भीष्म साहनी (८ अगस्त १९१५- ११ जुलाई २००३) आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से थे। १९३७ में लाहौर गवर्नमेन्ट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद साहनी ने १९५८ में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। भीष्म साहनी को हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। उन्हें १९७५ में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९७५ में शिरोमणि लेखक अवार्ड (पंजाब सरकार), १९८० में एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन का लोटस अवार्ड, १९८३ में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड तथा १९९८ में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया। उनके उपन्यास तमस पर १९८६ में एक फिल्म का निर्माण भी किया गया था।