‘Pahaad’, a poem by Niki Pushkar
देश जवान है
और मेरे पहाड़ पर
बुढ़ौती छायी है
गाँव सूने पड़े हैं
घर के छज्जे जर-जर हुए जाते हैं
दो जून का साधन जुटाने
पहाड़ का यौवन
कर गया पलायन…
बची हुई मानव-देह
प्रतीक्षा में हैं,
जीवन के अन्तिम सत्य की
हर तरफ़
एक बूढ़ा सूनापन बिखरा रहता है
घाटियाँ वीरान हैं,
नन्हें कलरव से…।
शालाएँ सुनसान हैं,
देशगान से…।
गाँव शमसान हैं,
इंसान के अभाव से…।
पलती धरती पड़ी है निश्चेट
बीमार सी…।
कोई जुगत हो कि,
लौटे पहाड़ की जवानी
करे उसके औषध की व्यवस्था
रखे उसका ध्यान
और देश के साथ
मेरा पहाड़ भी बने जवान!