‘Pani Ki Maut’, a nazm by Vishal Singh
दिन भर की थकी हारी आदम-ज़ात,
अँधेरा होते ही पानी की ओर खींची चली जाती है..!
या यूँ कहिये पानी उसे अपनी तरफ़ खींच लेता है,
पूरा ज़ोर लगाकर..
पानी इतना ख़ामोश हो जाता है मानो
अरसे से चीख़-चीख़कर कुछ कहना चाहता हो!
पोखरों, झीलों, समंदरों, नदियों के सिरहाने बैठकर
पानी के सीने से उठते ग़ुबार को अनदेखा करते-करते
आदमीयत ख़ुद का ग़ुबार निकालने लगती है…
कई ग़ुबार संग-संग उठते हैं,
ग़ैब से, चिपचिपे से..
पैदा होती है स्याह निहारिका!
ये मंज़र अयादत का सा मालूम पड़ता है
मानो किसी बीमार, ख़स्ता-हालत माज़ूर के पास
उसका मतलबी रिश्तेदार जायदाद में हिस्सेदारी की उम्मीद लिये बैठा हो
पानी का चौतरफ़ा घेराव होता है,
और आदम-ज़ात मूँगफलियाँ खाते-खाते
पानी की दर्दनाक मौत देखती है
पानी की छटपटाहट का लुत्फ़ उठाती है
पानी का पोखर के ज़ीने पर सिर पटकना
उसे नाटक लगता है!
वो उसके माथे पर पत्थर दे मारती है
वो एक ख़स्ता हाल बीमार को
गुदगुदा के हँसाने की कोशिश करती है!
अगले दिन फिर आने का वादा करके
आदमज़ात अपने घर लौट जाती है।