इक बगिया थी
बगिया में था आशियाना
पंछी, पशु, पतिंगो का
दरख्त थे, हल्दिहवा, सुन्दरिहवा
ऐसे कई नाम के

बहुत रमणीय था सावन का नृत्य वह
बहुत भव्य छाया थी आम्र वृक्ष की वह
पर छाया मिटने वाली है
धूप फिर से खिलने वाली है
किसे मालूम था?

उनको भी नहीं मालूम था
जो तिनका-तिनका संजो कर
अपना आशियाना बना रहे थे

कि, दरिंदे आ रहे हैं
हाथों में औजार लेकर
उसमें तेज धार लेकर
घोंसले पर प्रहार कर
आशियाना उजाड़ कर
इक नया आशियाना बनाने
जो दरख्त जैसा नहीं है
जिसकी छाया, वैसी नहीं है
जिसमें बच्चे हैं, पर बचपन नहीं है
जहां परिंदे भी हैं, दरिंदे भी हैं
बस, कुछ क़ैद हैं, कुछ मुस्तैद हैं।

पुनीत तिवारी
बी.ए (आनर्स - दर्शनशास्र) बनारस हिंदू विश्वविद्यालय