रूथ वनिता का उपन्यास ‘परियों के बीच’ एक ऐसे कोमल अहसास और रिश्ते का संसार हमारे सामने उजागर करता है जिसका वजूद हमेशा से रहा है, लेकिन ज़्यादातर वक़्तों में यह अनकहा और पोशीदा रहा; कई बार उसे अपनी स्वाभाविक मानवीयता की अनदेखी करनेवाले सवालों का सामना भी करना पड़ा है। दो औरतों, मशहूर तवायफ़ चपला बाई और शायरा नफ़ीस बाई के आपसी प्यार की इस कहानी में उनके कुछ मर्द दोस्त भी हैं जो उनकी मदद करते हैं। इन दोस्तों में कुछ नामचीन शायर हैं तो ख़ुद एक मर्द से प्यार करने वाला शरद भी। उपन्यास में रंगीन, ईशा और जुरअत जैसे उर्दू के कुछ असल शायर किरदार के रूप में आए हैं। उनकी शायरी के साथ-साथ उस दौर की कुछेक ग़ज़लों-नज़्मों और गानों का इस्तेमाल उपन्यास की ख़ूबसूरती और असर को बढ़ा देता है। वस्तुतः यह उपन्यास पूर्व-औपनिवेशिक काल के उस दौर को जीवन्त करता है जब समलैंगिक प्यार को अपेक्षाकृत सहजता से स्वीकार किया जाता था। लेकिन 1857 के बाद के दौर में उसको सवालिया बना दिया गया। उपन्यास राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है, प्रस्तुत है एक अंश—
वारदात, तारीख़, लफ़्ज़, जो दिमाग़ पर गुदे हुए मालूम होते थे, पिघलकर लुप्त हो चुके। क़लम उठाती हूँ तो छाया जैसे उभरने लगते हैं। लेकिन जितना पकड़ पाती हूँ, उबलती गहराइयों को छुपा ही देता है। हम दोनों के बीच जो कुछ था या जो उसके मन में ढका रह गया, उस सब की मैं सतह ही जानती हूँ, उस वक़्त भी शायद सतह ही जान पायी।
ज़्यादातर तो खो गया है। या दूसरों की याददाश्त के किनारे कहीं पड़ा तो नहीं है? मसलन दद्दा को हम दोनों के सैर-सपाटे याद हैं? हम पालकी में एक-दूसरी से सटी बैठतीं, पीछे-पीछे वह पैदल आतीं। डरते-डरते मेरी बाँह चपला के कंधों को लपेट लेती, धीरे-धीरे वहाँ सुस्ताने लगती। एक बार शरद के गाँव गए—बूँदाबाँदी, दोनों तरफ़ पेड़ों पर पलाश के ज्वाला जैसे चमचमाते। कीचड़-कंकड़ों वाला रास्ता जन्नत की राह लग रहा था। शरद के बाग़ में घूमने निकले। वह मुझसे लम्बी ठहरी, अपनी बाँह आराम से मेरे कंधे पर टिका लेती थी। घास पर गिरे पलाश के फूलों को दुपट्टे में इकट्ठा कर रही थी मैं, मुंशीजी के लिए। उनकी माँ दवा बनाती थीं। मगर ज़्यादा झुककर चपला की बाँह को हटाना भी नहीं चाहती थी।
“बिलकुल मिट्ठू की कलगी के रंग हैं”, मैंने कहा।
“तभी अंग्रेज़ लोग इसे तोता पेड़ कहते हैं। थोड़े और फूल तोड़ लो, एक अँगिया रँगानी है। और सुनो, यह चख लो।” डाल से फूल तोड़कर, उसकी डंडी निकाल दी, फिर मेरे सर को पीछे की तरफ़ झुकाया। मेरे होंठ खुले तो उसने डंडी दबायी और शहद जैसी बूँदें जीभ पर टपकीं।
भरी महफ़िलों में, शराब और बातचीत के बहाव के बीच हम दोनों का आँखें मिलाना किसी को याद है? नादिरा को? शरू को? कई बार अपने चाहनेवालों से थक जाती तो इशारे से मुझे बाहर बुला लेती, कहीं बैठकर थोड़ी देर रो-झींक लेती, फिर सम्भलकर वापिस जाती। मगर और मौक़ों पर, शायद उन्हीं शामों के दौरान, वह उन्हीं चाहनेवालों पर आँखें चमकाने का ख़ूब मज़ा उठाती। हर नज़र, हर मुस्कान एक मीठी कटार।
उस वक़्त मुझे लगता था कि जब भी खिन्न हो जाती है, कहीं छुपकर सोच में डूबना चाहती है जो हमारे घरों में, शायद किसी भी घर में करना मुश्किल होता है, तो मेरे ही पास आती है। मगर कहीं मैं ख़ुद को बरगला तो नहीं रही थी? मेरे कमरे में थोड़ी देर दुबककर बैठती थी, हो सकता है उसके पास और भी ऐसी जगहें रही हों।
“लोगों से थक जाता है इनसान”, उसने एक बार कहा, “इतने ज़्यादा हैं। इतने सारे छोटे-छोटे मर्द—मन करता है कहीं दूर चली जाऊँ, बस कभी तुम से, कभी चम्पा से मिलूँ। और कभी-कभार घर वालों से। सुबह उठें, अकेले बैठ पढ़े-लिखें, रियाज़ करें, एकांत में पैदल सैर करें, कभी किसी से शाम को मिलें, खा-पीकर सोए रहें। आश्रम का जीवन सुहाएगा या वहाँ भी लोग ज़्यादा होंगे? पहाड़ों में कोई गुफ़ा हो अपनी तो वहाँ भाग जाऊँ।”
इन आते-जाते जज़्बात को नज़्मों में ही ज़ाहिर किया जा सकता था, वह भी पर्दे की आड़ में हम दोनों बराबर नज़्मों की अदला-बदली करती थीं, हाथ से हाथ में डालकर, किताबों में छुपाकर, तकियों के नीचे रखकर—उसका लिखा हर जुमला मेरी आँख, ज़ुबान, दिल में बसा हुआ था, फिर भी उनमें कही गई किसी बात से बचना चाहती तो उस पर से फिसलकर निकल जाती। अब कभी पढ़ती हूँ तो कुछ याद आती हैं, कुछ नहीं।
इस्लाह भी किया, बदलाव किए। एक में मेरा नाम लिया था, मैंने कहा, हटा दो, अब दिल करता है रहने देती। लेकिन रहने देती तो बाद में वह शायद ख़ुद ही हटा लेती।
टीले पर खड़े होकर आदमी अँधेरी गुफाओं में झाँकें, अनमोल जवाहरात की झलक पाए तो गिरने का डर सिहरन में बह जाता है। पानी में पूरी तरह डूबकर तहमस्प को गुफा में मिलती है नागों की रानी शाहमारान—अजब खिंचाव, अजब गहराई। मगर उस गहराई के तले और गहराइयाँ, उस गुफा के पार और गुफाएँ, अनदेखे जीव, अनकही कहानियाँ।
विजय सिंह के उपन्यास 'जया गंगा' से किताब अंश
उस क़िस्म के ख़त, उस तरह की नज्में मैंने पहले भी लिखी थीं। सबसे पहले अपनी उस्तानी के लिए जिन्होंने हम सब को पढ़ाया-लिखाया था। वो विधवा थीं, अपनी सहेली शकुंतला के साथ रहती थीं। कहानी तो सब ने सुनी थी—शकुंतला के शौहर हमेशा दौरे पर रहते थे या अपने दोस्तों के साथ पीते रहते थे। एक दिन लौटकर आए तो घर को सफाचट पाया। उस्तानी ने अच्छी सीख दी थी। दोनों मिलकर हर बोरी-बिस्तर, बर्तन-भांडे, पर्दा-कालीन, यहाँ तक कि उसकी चप्पलों तक को उठा ले गए थे। एक गर्मियों की बात थी जब मैं छोटी थी। वो दोनों बूढ़ी लगती थीं मगर असल में उनकी उम्र मेरी अब की उम्र से बहुत कम थी, शकुन्तला गाँव गई थीं माँ-बाप से मिलने। मैं अचानक उस्तानी को नई निगाह से देखने लगी। रोज़ उनसे मिलने जाती, उनकी किताबों को पलटती हालाँकि तब एकाध ही ज़ुबान पढ़ पाती थी, तस्वीरों को ग़ौर से देखती, नज़्में लिखकर उनके तकिए के नीचे रखती, कभी-कभार रात को भी रुक जाती। उनका मन कुछ तो बहल गया होगा, कुछ हिल-मिल भी गईं मुझसे पर उनकी ज़्यादातर बातों का मतलब धुंधला ही रहता था, मसलन, “बरसात वक़्त पर होनी चाहिए। बेमौसम बरसात से फ़सल नहीं होती।” अब तो ख़ैर शकुंतला के माँ-बाप के गुज़र जाने के बाद दोनों उनके गाँव वाले घर में रहते हैं।
अगली गर्मियों में मैंने और नज़्में लिखीं, मट्टन आपा की भांजी गुलबदन के नाम, जो उनके पास ठहरी हुई थीं। छोटी, गोल-मटोल-सी, गुलरुख, गुलबदन, मुँह उठाकर ऊपर देखती तो ठोढ़ी मलाई जैसी चिकनी; मेरी माँ के नाम से मिलते-जुलते नाम में भी एक अजब लुभाव। अँधेरे में उसके दरवाज़े के आस-पास मण्डराती, एक बोसे की उम्मीद में कई महीनों तक मैंने उसके और उसके चहेते अंग्रेज़ सिपाही के बीच पैग़ाम पहुँचाने का काम किया, साथ-साथ अपनी पीड़ा को लेकर नज़्में भी लिखती रही। अगले ही साल वह उस सिपाही के साथ भाग खड़ी हुई। पर ये सब क़िस्से अब बच्चों की बेमानी बातें क्यों लगती हैं?
शायद इसलिए कि गाते रहो कइयों के सामने मगर जिसकी आवाज़ अपनी आवाज से जुड़ती है, याद उसी की आती है।
बाक़ी सब कुछ यों ही चलता रहा होगा, मुझे बारीक़ियाँ याद नहीं—शाम की महफ़िलें, रंगीन साहब, मीर इंशा, मदन, शरू, दरबारियों, व्यापारियों, अफ़सरों का आना-जाना, मेरा लेखा-जोखा, भंडार वग़ैरह को सम्भालना, लड़कियों की करतूतों, नौकरों के बखेड़ों पर निगरानी रखना। अँधेरे में दौड़ती बैलगाड़ी पर लालटेन की डुलती रोशनी की तरह मुझे बस कुछ लम्हे याद हैं—मिलने, अलग होने, नज़्में लिखने, देर रात तक उसकी नज़्में पढ़ते रहने के लम्हे।
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