पार्क में खेलते हुए बच्चे
आसमान को हथेलियों पर रखकर, मुठ्ठियों में बंद कर लेते हैं
फिर मुठ्ठियाँ खोलते हैं
तो भरभराकर सैकड़ों ग़ुब्बारे उड़ पड़ते हैं।
हरेक बच्चा अपनी अस्थिर और व्यस्त उँगलियों में
आसमान पर एक चित्र बनाता है,
और सहसा पूरा आसमान आर्ट गैलरी बन जाता है।
मैं अपनी बच्ची की उँगली थामे इस गैलरी के
एक-एक चित्र को देखने में व्यस्त रहता हूँ कि
पता नहीं कहाँ से आ जाते हैं—लम्बी-लम्बी घड़ियाल जैसी
कारों में—
बच्ची की हँसी—शताब्दियों के पार की धूप होती है
कि उनकी चुरुट के धुएँ के बादल
उस धूप पर मण्डराने लगते हैं
पता नहीं कितनी सुरंगों और तहख़ानों के स्वामी वे
आसमान, पार्क और बच्ची सबको, झोले में बंद करके
घड़ियाल सरीखी कारों में रख लेते हैं
मस्त और अवाक् मैं घर लौटता हूँ और मन के
रेगिस्तान में घूमता हुआ थककर सो जाता हूँ
तो काले लबादे ओढ़े, रात के अंधेरे में पता नहीं कैसे
मेरे शयन कक्ष में आ जाते हैं, पिस्तौल तान डराते हैं
मैं धड़कते हुए वक्ष वाला एक तरफ़ अपनी बच्ची को
और दूसरी तरफ़ अपनी पत्नी को टटोलता हुआ
धमकियाँ और हाहाकार सुनता रहता हूँ।
राजेश जोशी की कविता 'रुको बच्चो'