‘Patang’, a poem by Sudhir Sharma
सुबह टीकम की दुकाँ से जाकर
इक ज़पाटा पतंग ख़रीदी थी
रगड़-रगड़ के काँच का रोगन,
ख़ूब माँझे को फिर पकाया था,
झट से एक पल में ही सूरज को छुआ था उसने,
जाने कब ढील मिली, हाथ ज़रा-सा फिसला,
आके सद्दी से उड़ा दी उसने
आज फिर छत पे आसमान को बुलाया है,
रगड़-रगड़ के काँच का रोगन
ख़ूब माँझे को पकाया है मगर
दुबारा कौन छुट्टी देगा इन पतंगों को…