अनुवाद: अज्ञेय

श्रीचरणकमलेषु,

आज हमारे विवाह को पन्द्रह वर्ष हो गए, लेकिन अभी तक मैंने कभी तुमको चिट्ठी न लिखी। सदा तुम्हारे पास ही बनी रही – न जाने कितनी बातें कहती-सुनती रही, पर चिट्ठी लिखने लायक़ दूरी कभी नहीं मिली। आज मैं श्री क्षेत्र में तीर्थ करने आयी हूँ, तुम अपने ऑफ़िस के काम में लगे हुए हो। कलकत्ता के साथ तुम्हारा वही सम्बन्ध है जो घोंघे के साथ शंख का होता है। वह तुम्हारे तन-मन से चिपक गया है। इसलिए तुमने ऑफ़िस में छुट्टी की दरख़्वास्त नहीं दी। विधाता की यही इच्छा थी; उन्होंने मेरी छुट्टी की दरख़्वास्त मंज़ूर कर ली। तुम्हारे घर की मझली बहू हूँ। पर आज पन्द्रह वर्ष बाद इस समुद्र के किनारे खड़े होकर मैं जान पायी हूँ कि अपने जगत और जगदीश्वर के साथ मेरा एक सम्बन्ध और भी है। इसीलिए आज साहस करके यह चिट्ठी लिख रही हूँ, इसे तुम अपने घर की मझली बहू की ही चिट्ठी मत समझना!

तुम लोगों के साथ मेरे सम्बन्ध की बात जिन्होंने मेरे भाग्य में लिखी थी उन्हें छोड़कर जब इस सम्भावना का और किसी को पता न था, उसी शैशवकाल में मैं और मेरा भाई एक साथ ही सन्निपात के ज्वर से पीड़ित हुए थे। भाई तो मारा गया, पर मैं बची रही। मोहल्ले की औरतें कहने लगीं, “मृणाल लड़की है न, इसीलिए बच गई। लड़का होती तो क्या भला बच सकती थी।”

चोरी की कला में यमराज निपुण हैं, उनकी नज़र क़ीमती चीज़ पर ही पड़ती है। मेरे भाग्य में मौत नहीं है। यही बात अच्छी तरह से समझाने के लिए मैं यह चिट्ठी लिखने बैठी हूँ।

एक दिन जब दूर के रिश्ते में तुम्हारे मामा तुम्हारे मित्र नीरद को साथ लेकर कन्या देखने आए थे, तब मेरी आयु बारह वर्ष की थी। दुर्गम गाँव में मेरा घर था, जहाँ दिन में भी सियार बोलते रहते। स्टेशन से सात कोस तक छकड़ा गाड़ी में चलने के बाद बाक़ी तीन मील का कच्चा रास्ता पालकी में बैठकर पार करने के बाद हमारे गाँव में पहुँचा जा सकता था। उस दिन तुम लोगों को कितनी हैरानी हुई। जिस पर हमारे पूर्वी बंगाल का भोजन – मामा उस भोजन की हँसी उड़ाना आज भी नहीं भूलते।

तुम्हारी माँ की एक ही ज़िद थी कि बड़ी बहू के रूप की कमी को मझली बहू के द्वारा पूरी करें। नहीं तो भला इतना कष्ट करके तुम लोग हमारे गाँव क्यों आते। पीलिया, यकृत, उदरशूल और दुल्हन के लिए बंगाल प्रान्त में खोज नहीं करनी पड़ती। वे स्वयं ही आकर घेर लेते हैं, छुड़ाए नहीं छूटते। पिता की छाती धक्-धक् करने लगी। माँ दुर्गा का नाम जपने लगी।

शहर के देवता को गाँव का पुजारी क्या देकर सन्तुष्ट करे।

बेटी के रूप का भरोसा था; लेकिन स्वयं बेटी में उस रूप का कोई मूल्य नहीं होता, देखने आया हुआ व्यक्ति उसका जो मूल्य दे, वही उसका मूल्य होता है। इसीलिए तो हज़ार रूप-गुण होने पर भी लड़कियों का संकोच किसी भी तरह दूर नहीं होता।

सारे घर का, यही नहीं, सारे मोहल्ले का यह आंतक मेरी छाती पर पत्थर की तरह जमकर बैठ गया। आकाश का सारा उजाला और संसार की समस्त शक्ति उस दिन मानो इस बारह-वर्षीय ग्रामीण लड़की को दो परीक्षकों की दो जोड़ी आँखों के सामने कसकर पकड़ रखने के लिए चपरासगीरी कर रही थी – मुझे कहीं छिपने की जगह न मिली।

अपने करुण स्वर में सम्पूर्ण आकाश को कँपाती हुई शहनाई बज उठी। मैं तुम लोगों के यहाँ आ पहुँची। मेरे सारे ऐबों का ब्यौरेवार हिसाब लगाकर गृहिणियों को यह स्वीकार करना पड़ा कि सब-कुछ होते हुए भी मैं सुन्दरी ज़रूर हूँ। यह बात सुनते ही मेरी बड़ी जेठानी का चेहरा भारी हो गया। लेकिन सोचती हूँ, मुझे रूप की ज़रूरत ही क्या थी। रूप नामक वस्तु को अगर किसी त्रिपुण्डी पण्डित ने गंगा मिट्टी से गढ़ा हो तो उसका आदर हो, लेकिन उसे तो विधाता ने केवल अपने आनन्द से निर्मित किया है। इसलिए तुम्हारे धर्म के संसार में उसका कोई मूल्य नहीं।

मैं रूपवती हूँ, इस बात को भूलने में तुम्हें बहुत दिन नहीं लगे। लेकिन मुझमें बुद्धि भी है, यह बात तुम लोगों को पग-पग पर याद करनी पड़ी। मेरी यह बुद्धि इतनी प्रकृत है कि तुम लोगों की घर-गृहस्थी में इतना समय काट देने पर भी वह आज भी टिकी हुई है। मेरी इस बुद्धि से माँ बड़ी चिन्तित रहती थीं। नारी के लिए यह तो एक बला ही है।

बाधाओं को मानकर चलना जिसका काम है वह यदि बुद्धि को मानकर चलना चाहे तो ठोकर खा-खाकर उसका सिर फूटेगा ही। लेकिन तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूँ।

तुम लोगों के घर की बहू को जितनी बुद्धि की ज़रूरत है, विधाता ने लापरवाही में मुझे उससे बहुत ज़्यादा बुद्धि दे डाली है, अब मैं उसे लौटाऊँ भी तो किसको।

तुम लोग मुझे पुरखिन कहकर दिन-रात गाली देते रहे। अक्षम्य को कड़ी बात कहने से ही सान्त्वना मिलती है, इसीलिए मैंने उसको क्षमा कर दिया।

मेरी एक बात तुम्हारी घर-गृहस्थी से बाहर थी जिसे तुम में से कोई नहीं जानता। मैं तुम सबसे छिपाकर कविता लिखा करती थी। वह भले ही कूड़ा-कर्कट क्यों न हो, उस पर तुम्हारे अन्तःपुर की दीवार न उठ सकी। वहीं मुझे मृत्यु मिलती थी, वहीं पर मैं रो पाती थी। मेरे भीतर तुम लोगों की मझली बहू के अतिरिक्त जो कुछ था, उसे तुम लोगों ने कभी पसन्द नहीं किया। क्योंकि उसे तुम लोग पहचान भी न पाए। मैं कवि हूँ, यह बात पन्द्रह वर्ष में भी तुम लोगों की पकड़ में नहीं आयी।

तुम लोगों के घर की प्रथम स्मृतियों में मेरे मन में जो सबसे ज़्यादा जगती रहती है, वह है तुम लोगों की गोशाला। अन्तःपुर को जाने वाले ज़ीने की बग़ल के कोठे में तुम लोगों की गौएँ रहती हैं, सामने के आँगन को छोड़कर उनके हिलने-डुलने के लिए और कोई जगह न थी। आँगन के कोने में गायों को भूसा देने के लिए काठ की नाँद थी, सवेरे नौकर को तरह-तरह के काम रहते इसलिए भूखी गाएँ नाँद के किनारों को चाट-चाटकर चबा-चबाकर खुरच देतीं। मेरा मन रोने लगता। मैं गँवई-गाँव की बेटी जिस दिन पहली बार तुम्हारे घर में आयी, उस दिन उस बड़े शहर के बीच मुझे वे दो गाएँ और तीन बछड़े चिर परिचित आत्मीय जैसे जान पड़े। जितने दिन मैं रही, बहू रही, ख़ुद न खाकर छिपा-छिपाकर मैं उन्हें खिलाती रही; जब बड़ी हुई तब गौओं के प्रति मेरी प्रत्यक्ष ममता देखकर मेरे साथ हँसी-मज़ाक का सम्बन्ध रखने वाले लोग मेरे गोत्र के बारे में सन्देह प्रकट करते रहे।

मेरी बेटी जनमते ही मर गई। जाते समय उसने साथ चलने के लिए मुझे भी पुकारा था। अगर वह बची रहती तो मेरे जीवन में जो-कुछ महान है, जो कुछ सत्य है, वह सब मुझे ला देती; तब मैं मझली बहू से एकदम माँ बन जाती। गृहस्थी में बँधी रहने पर भी माँ विश्व-भर की माँ होती है। पर मुझे माँ होने की वेदना ही मिली, मातृत्व की मुक्ति प्राप्त नहीं हुई।

मुझे याद है, अंग्रेज़ डॉक्टर को हमारे घर का भीतरी भाग देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ था, और जच्चा घर देखकर नाराज़ होकर उसने डाँट-फटकार भी लगायी थी। सदर में तो तुम लोगों का छोटा-सा बाग़ है। कमरे में भी साज-शृंगार की कोई कमी नहीं, पर भीतर का भाग मानो पश्मीने के काम की उल्टी परत हो। वहाँ न कोई लज्जा है, न सौन्दर्य, न शृंगार। उजाला वहाँ टिमटिमाता रहता है। हवा चोर की भाँति प्रवेश करती है, आँगन का कूड़ा-कर्कट हटने का नाम नहीं लेता। फ़र्श और दीवार पर कालिमा अक्षय बनकर विराजती है। लेकिन डॉक्टर ने एक भूल की थी। उसने सोचा था कि शायद इससे हमको रात-दिन दुःख होता होगा। बात बिल्कुल उल्टी है।

अनादर नाम की चीज़ राख की तरह होती है। वह शायद भीतर-ही-भीतर आग को बनाए रहती है लेकिन ऊपर से उसके ताप को प्रकट नहीं होने देती। जब आत्म-सम्मान घट जाता है तब अनादर में अन्याय भी नहीं दिखायी देता। इसीलिए उसकी पीड़ा नहीं होती। यही कारण है कि नारी दुःख का अनुभव करने में ही लज्जा पाती है। इसीलिए मैं कहती हूँ, अगर तुम लोगों की व्यवस्था यही है कि नारी को दुःख पाना ही होगा तो फिर जहाँ तक सम्भव हो उसे अनादर में रखना ही ठीक है। आदर से दुःख की व्यथा और बढ़ जाती है।

तुम मुझे चाहे जैसे रखते रहे, मुझे दुःख है यह बात कभी मेरे ख़याल में भी न आयी। जच्चा घर में जब सिर पर मौत मण्डराने लगी थी, तब भी मुझे कोई डर नहीं लगा। हमारा जीवन ही क्या है कि मौत से डरना पड़े? जिनके प्राणों को आदर और यत्न से कसकर बाँध लिया गया हो, मरने में उन्हीं को कष्ट होता है। उस दिन अगर यमराज मुझे घसीटने लगते तो मैं उसी तरह उखड़ आती जिस तरह पोली ज़मीन से घास बड़ी आसानी से जड़-समेत खिंच आती है। बंगाल की बेटी तो बात-बात में मरना चाहती है। लेकिन इस तरह मरने में कौन-सी बहादुरी है। हम लोगों के लिए मरना इतना आसान है कि मरते लज्जा आती है।

मेरी बेटी सन्ध्या-तारा की तरह क्षण-भर के लिए उदित होकर अस्त हो गई। मैं फिर से अपने दैनिक कामों में और गाय-बछड़ों में लग गई। इसी तरह मेरा जीवन आख़िर तक जैसे-तैसे कट जाता; आज तुम्हें यह चिट्ठी लिखने की ज़रूरत न पड़ती, लेकिन कभी-कभी हवा एक मामूली-सा बीज उड़ाकर ले जाती है और पक्के दालान में पीपल का अंकुर फूट उठता है; और होते-होते उसी से लकड़ी-पत्थर की छाती विदीर्ण होने लग जाती है। मेरी गृहस्थी की पक्की व्यवस्था में भी जीवन का एक छोटा-सा कण न जाने कहाँ से उड़कर आ पड़ा; तभी से दरार शुरू हो गई।

जब विधवा माँ की मृत्यु के बाद मेरी बड़ी जेठानी की बहन बिन्दु ने अपने चचेरे भइयों के अत्याचार के मारे एक दिन हमारे घर में अपनी दीदी के पास आश्रय लिया था, तब तुम लोगों ने सोचा था, यह कहाँ की बला आ गई। आग लगे मेरे स्वभाव को, करती भी क्या। देखा, तुम लोग सब मन-ही-मन खीझ उठे हो, इसीलिए उस निराश्रिता लड़की को घेरकर मेरा सम्पूर्ण मन एकाएक जैसे कमर बाँधकर खड़ा हो गया हो। पराए घर में, पराए लोगों की अनिच्छा होते हुए भी आश्रय लेना – कितना बड़ा अपमान है यह। यह अपमान भी जिसे विवश होकर स्वीकार करना पड़ा हो, उसे क्या धक्का देकर एक कोने में डाल दिया जाता है?

बाद में मैंने अपनी बड़ी जेठानी की दशा देखी। उन्होंने अपनी गहरी सम्वेदना के कारण ही बहन को अपने पास बुलाया था, लेकिन जब उन्होंने देखा कि इसमें पति की इच्छा नहीं है, तो उन्होंने ऐसा भाव दिखाना शुरू किया मानो उन पर कोई बड़ी बला आ पड़ी हो, मानो अगर वह किसी तरह दूर हो सके तो जान बचे। उन्हें इतना साहस न हुआ कि वे अपनी अनाथ बहन के प्रति खुले मन से स्नेह प्रकट कर सकें। वे पतिव्रता थीं।

उनका यह संकट देखकर मेरा मन और भी दुःखी हो उठा। मैंने देखा, बड़ी जेठानी ने ख़ासतौर से सबको दिखा-दिखाकर बिन्दु के खाने-पहनने की ऐसी रद्दी व्यवस्था की और उसे घर में इस तरह नौकरानियों के से काम सौंप दिए कि मुझे दुःख ही नहीं, लज्जा भी हुई। मैं सबके सामने इस बात को प्रमाणित करने में लगी रहती थी कि हमारी गृहस्थी को बिन्दु बहुत सस्ते दामों में मिल गई है। ढेरों काम करती है फिर भी ख़र्च की दृष्टि से बेहद सस्ती है।

मेरी बड़ी जेठानी के पितृ-वंश में कुल के अलावा और कोई बड़ी चीज़ न थी, न रूप था, न धन। किस तरह मेरे ससुर के पैरों पड़ने पर तुम लोगों के घर में उनका ब्याह हुआ था, यह बात तुम अच्छी तरह जानते हो। वे सदा यही सोचती रहीं कि उनका विवाह तुम्हारे वंश के प्रति बड़ा भारी अपराध था। इसीलिए वे सब बातों में अपने-आपको भरसक दूर रखकर, अपने को छोटा मानकर तुम्हारे घर में बहुत ही थोड़ी जगह में सिमटकर रहती थीं।

लेकिन उनके इस प्रशंसनीय उदाहरण से हम लोगों को बड़ी कठिनाई होती रही। मैं अपने-आपको हर तरफ़ से इतना बेहद छोटा नहीं बना पाती, मैं जिस बात को अच्छा समझती हूँ उसे किसी और की ख़ातिर बुरा समझने को मैं उचित नहीं मानती – इस बात के तुम्हें भी बहुत-से प्रमाण मिल चुके हैं। बिन्दु को मैं अपने कमरे में घसीट लायी। जीजी कहने लगीं, “मझली बहू ग़रीब घर की बेटी का दिमाग़ ख़राब कर डालेगी।”

वे सबसे मेरी इस ढंग से शिकायत करती फिरती थीं मानो मैंने कोई भारी आफ़त ढा दी हो। लेकिन मैं अच्छी तरह जानती हूँ, वे मन-ही-मन सोचती थीं कि जान बची। अब अपराध का बोझ मेरे सिर पर पड़ने लगा। वे अपनी बहन के प्रति ख़ुद जो स्नेह नहीं दिखा पाती थीं, वही मेरे द्वारा प्रकट करके उनका मन हल्का हो जाता। मेरी बड़ी जेठानी बिन्दु की उम्र में से दो-एक अंक कम कर देने की चेष्टा किया करती थीं, लेकिन अगर अकेले में उनसे यह कहा जाता कि उसकी अवस्था चौदह से कम नहीं थी, तो ज़्यादती न होती। तुम्हें तो मालूम है, देखने में वह इतनी कुरूप थी कि अगर वह फ़र्श पर गिरकर अपना सिर फोड़ लेती तो भी लोगों को घर के फ़र्श की ही चिंता होती। यही कारण है कि माता-पिता के न होने पर ऐसा कोई न था जो उसके विवाह की सोचता, और ऐसे लोग भी भला कितने थे जिनके प्राणों में इतना बल हो कि उससे ब्याह कर सकें।

बिन्दु बहुत डरती-डरती मेरे पास आयी। मानो अगर मेरी देह उससे छू जाएगी तो मैं सह नहीं पाऊँगी। मानो संसार में उसको जन्म लेने का कोई अधिकार ही न था। इसीलिए वह हमेशा अलग हटकर आँख बचाकर चलती। उसके पिता के यहाँ उसके चचेरे भाई उसके लिए ऐसा एक भी कोना नहीं छोड़ना चाहते थे जिसमें वह फ़ालतू चीज़ की तरह पड़ी रह सके।

फ़ालतू कूड़े को घर के आसपास अनायास ही स्थान मिल जाता है क्योंकि मनुष्य उसको भूल जाता है; लेकिन अनावश्यक लड़की एक तो अनावश्यक होती है; दूसरे, उसको भूलना भी कठिन होता है। इसलिए उसके लिए घूरे पर भी जगह नहीं होती।

फिर भी यह कैसे कहा जा सकता है कि उसके चचेरे भाई ही संसार में परमावश्यक पदार्थ थे। जो हो, वे लोग थे ख़ूब। यही कारण है कि जब मैं बिन्दु को अपने कमरे में बुला लायी तो उसकी छाती धक्-धक् करने लग गई। उसका डर देखकर मुझे बड़ा दुःख हुआ। मेरे कमरे में उसके लिए थोड़ी-सी जगह है, यह बात मैंने बड़े प्यार से उसे समझायी।

लेकिन मेरा कमरा एक मेरा ही कमरा तो था नहीं। इसलिए मेरा काम आसान नहीं हुआ। मेरे पास दो-चार दिन रहने पर ही उसके शरीर में न जाने लाल-लाल क्या निकल आया। शायद अम्हौरी रही होगी या ऐसा ही कुछ होगा; तुमने कहा शीतला। क्यों न हो, वह बिन्दु थी न। तुम्हारे मोहल्ले के एक अनाड़ी डॉक्टर ने आकर बताया, दो-एक दिन और देखे बिना ठीक से कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन दो-एक दिन तक धीरज किसको होता। बिन्दु तो अपनी बीमारी की लज्जा से ही मरी जा रही थी। मैंने कहा, शीतला है तो हो, मैं उसे अपने जच्चा-घर में लिवा ले जाऊँगी, और किसी को कुछ करने की ज़रूरत नहीं। इस बात पर जब तुम सब लोग मेरे ऊपर भड़ककर क्रोध की मूर्ति बन गए, यही नहीं, जब बिन्दु की जीजी भी बड़ी परेशानी दिखाती हुई उस अभागी लड़की को अस्पताल भेजने का प्रस्ताव करने लगीं, तभी उसके शरीर के वे सारे लाल-लाल दाग़ एकदम विलीन हो गए। मैंने देखा कि इस बात से तुम लोग और भी व्यग्र हो उठे। कहने लगे, अब तो वाक़ई शीतला बैठ गई है। क्यों न हो, वह बिन्दु थी न।

अनादर के पालन-पोषण में एक बड़ा गुण है। शरीर को वह एकदम अजर-अमर कर देता है। बीमारी आने का नाम नहीं लेती, मरने के सारे आम रास्ते बिल्कुल बन्द हो जाते हैं। इसीलिए रोग उसके साथ मज़ाक करके चला गया, हुआ कुछ नहीं।

लेकिन यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो गई कि संसार में ज़्यादा साधनहीन व्यक्ति को आश्रय देना ही सबसे कठिन है। आश्रय की आवश्यकता उसको जितनी अधिक होती है, आश्रय की बाधाएँ भी उसके लिए उतनी ही विषम होती हैं।

बिन्दु के मन से जब मेरा डर जाता रहा तब उसको एक और कुग्रह ने पकड़ लिया। वह मुझे इतना प्यार करने लगी कि मुझे डर होने लगा। स्नेह की ऐसी मूर्ति तो संसार में पहले कभी देखी ही न थी। पुस्तकों में पढ़ा अवश्य था, पर वह भी स्त्री-पुरुष के बीच ही। बहुत दिनों से ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी कि मुझे अपने रूप की बात याद आती। अब इतने दिनों बाद यह कुरूप लड़की मेरे उसी रूप के पीछे पड़ गई। रात-दिन मेरा मुँह देखते रहने पर भी उसकी आँखों की प्यास नहीं बुझती थी। कहती, जीजी तुम्हारा यह मुँह मेरे अलावा और कोई नहीं देख पाता। जिस दिन मैं स्वयं ही अपने केश बाँध लेती उस दिन वह बहुत रूठ जाती। अपने हाथों से मेरे केश-भार को हिलाने-डुलाने में उसे बड़ा आनन्द आता। कभी कहीं दावत में जाने के अतिरिक्त और कभी तो मुझे साज-शृंगार की आवश्यकता पड़ती ही न थी, लेकिन बिन्दु मुझे तंग कर-करके थोड़ा-बहुत सजाती रहती। वह लड़की मुझे लेकर बिल्कुल पागल हो गई थी।

तुम्हारे घर के भीतरी हिस्से में कहीं रत्ती-भर भी मिट्टी न थी। उत्तर की ओर की दीवार में नाली के किनारे न जाने कैसे एक गाब का पौधा निकला। जिस दिन देखती कि उस गाब के पौधे में नयी लाल-लाल कोंपलें निकल आयी हैं, उसी दिन जान पड़ता कि धरती पर वसन्त आ गया है, और जिस दिन मेरी घर-गृहस्थी में जुटी हुई इस अनादृत लड़की के मन का ओर-छोर किसी तरह रंग उठा, उस दिन मैंने जाना कि हृदय के जगत में भी वसन्त की हवा बहती है। वह किसी स्वर्ग से आती है, गली के मोड़ से नहीं।

बिन्दु के स्नेह के दुःसह वेग ने मुझे अधीर कर डाला था। मैं मानती हूँ कि मुझे कभी-कभी उस पर क्रोध आ जाता; लेकिन उस स्नेह में मैंने अपना एक ऐसा रूप देखा जो जीवन में मैं पहले कभी नहीं देख पायी थी। वही मेरा मुख्य स्वरूप है।

इधर मैं बिन्दु-जैसी लड़की को जो इतना लाड़-प्यार करती थी, यह बात तुम लोगों को बड़ी ज़्यादती लगी। इसे लेकर बराबर खटपट होने लगी। जिस दिन मेरे कमरे से बाजूबन्द चोरी हुआ, उस दिन इस बात का आभास देते हुए तुम लोगों को तनिक भी लज्जा न आयी कि इस चोरी में किसी-न-किसी रूप में बिन्दु का हाथ है। जब स्वदेशी आन्दोलनों में लोगों के घर की तलाशियाँ होने लगीं, तब तुम लोग अनायास ही यह सन्देह कर बैठे कि बिन्दु पुलिस द्वारा रखी गई स्त्री-गुप्तचर है। इसका और तो कोई प्रमाण न था; प्रमाण बस इतना ही था कि वह बिन्दु थी। तुम लोगों के घर की दासियाँ उसका कोई भी काम करने से इंकार कर देती थीं – उनमें से किसी से अपने काम के लिए कहने में वह लड़की भी संकोच के मारे जड़वत हो जाती थी। इन्हीं सब कारणों से उसके लिए मेरा ख़र्च बढ़ गया। मैंने ख़ास तौर से अलग से एक दासी रख ली। यह बात तुम लोगों को अच्छी नहीं लगी। बिन्दु को पहनने के लिए मैं जो कपड़े देती थी, उन्हें देखकर तुम इतने क्रुद्ध हुए कि तुमने मेरे हाथ-ख़र्च के रुपये ही बन्द कर दिए। दूसरे ही दिन से मैंने सवा रुपये जोड़े की मोटी कोरी मिल की धोती पहनना शुरू कर दिया। और जब मोती की माँ मेरी जूठी थाली उठाने के लिए आयी तो मैंने उसको मना कर दिया। मैंने ख़ुद जूठा भात बछड़े को खिलाने के बाद आँगन के नल पर जाकर बर्तन मल लिए। एक दिन एकाएक इस दृश्य को देखकर तुम प्रसन्न न हो सके।

मेरी ख़ुशी के बिना तो काम चल सकता है, पर तुम लोगों की ख़ुशी के बिना नहीं चल सकता – यह बात आज तक मेरी समझ में नहीं आयी।

उधर ज्यों-ज्यों तुम लोगों का क्रोध बढ़ता जा रहा था, त्यों-त्यों बिन्दु की आयु भी बढ़ती जा रही थी। इस स्वाभाविक बात पर तुम लोग अस्वाभाविक ढंग से परेशान हो उठे थे।

एक बात याद करके मुझे आश्चर्य होता रहा है कि तुम लोगों ने बिन्दु को ज़बरदस्ती अपने घर से विदा क्यों नहीं कर दिया? मैं अच्छी तरह समझती हूँ कि तुम लोग मन-ही-मन मुझसे डरते थे। विधाता ने मुझे बुद्धि दी है, भीतर-ही-भीतर इस बात की ख़ातिर किए बिना तुम लोगों को चैन नहीं पड़ता था। अन्त में अपनी शक्ति से बिन्दु को विदा करने में असमर्थ होकर तुम लोगों ने प्रजापति देवता की शरण ली। बिन्दु का वर ठीक हुआ। बड़ी जेठानी बोली, जान बची। माँ काली ने अपने वंश की लाज रख ली। वर कैसा था, मैं नहीं जानती। तुम लोगों से सुना था कि सब बातों में अच्छा है। बिन्दु मेरे पैरों से लिपटकर रोने लगी। बोली, जीजी, मेरा ब्याह क्यों कर रही हो भला। मैंने उसको समझाते-बुझाते कहा, बिन्दु, डर मत, मैंने सुना है तेरा वर अच्छा है।

बिन्दु बोली, “अगर वर अच्छा है तो मुझमें भला ऐसा क्या है जो उसे पसन्द आ सके।”

लेकिन वर-पक्ष वालों ने तो बिन्दु को देखने के लिए आने का नाम भी न लिया। बड़ी जीजी इससे बड़ी निश्चिन्त हो गईं। लेकिन बिन्दु रात-दिन रोती रहती। चुप होने का नाम ही न लेती। उसको क्या कष्ट है, यह मैं जानती थी। बिन्दु के लिए मैंने घर में बहुत बार झगड़ा किया था लेकिन उसका ब्याह रुक जाए यह बात कहने का साहस नहीं होता था। कहती भी किस बल पर। मैं अगर मर जाती तो उसकी क्या दशा होती।

एक तो लड़की जिस पर काली; जिसके यहाँ जा रही है, वहाँ उसकी क्या दशा होगी, इन बातों की चिन्ता न करना ही अच्छा था। सोचती तो प्राण काँप उठते।

बिन्दु ने कहा, “जीजी, ब्याह के अभी पाँच दिन और हैं। इस बीच क्या मुझे मौत नहीं आएगी।”

मैंने उसको ख़ूब धमकाया। लेकिन अन्तर्यामी जानते हैं कि अगर किसी स्वाभाविक ढंग से बिन्दु की मृत्यु हो जाती तो मुझे चैन मिलता।

ब्याह के एक दिन पहले बिन्दु ने अपनी जीजी के पास जाकर कहा, “जीजी, मैं तुम लोगों की गोशाला में पड़ी रहूँगी, जो कहोगी वही करूँगी, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, मुझे इस तरह मत धकेलो।”

कुछ दिनों से जीजी की आँखों से चोरी-चोरी आँसू झर रहे थे। उस दिन भी झरने लगे। लेकिन सिर्फ़ हृदय ही तो नहीं होता। शास्त्र भी तो है। उन्होंने कहा, “बिन्दु, जानती नहीं, स्त्री की गति-मुक्ति सब-कुछ पति ही है। भाग्य में अगर दुःख लिखा है तो उसे कोई नहीं मिटा सकता।”

असली बात तो यह थी कि कहीं कोई रास्ता ही न था – बिन्दु को ब्याह तो करना ही पड़ेगा। फिर जो हो सो हो। मैं चाहती थी कि विवाह हमारे ही घर से हो। लेकिन तुम लोग कह बैठे वर के ही घर में हो, उनके कुल की यही रीति है। मैं समझ गई, बिन्दु के ब्याह में अगर तुम लोगों को ख़र्च करना पड़ा तो तुम्हारे गृह-देवता उसे किसी भी भाँति नहीं सह सकेंगे। इसीलिए चुप रह जाना पड़ा। लेकिन एक बात तुममें से कोई नहीं जानता। जीजी को बताना चाहती थी, पर फिर बतायी नहीं, नहीं तो वे डर से मर जातीं – मैंने अपने थोड़े-बहुत गहने लेकर चुपचाप बिन्दु का शृंगार कर दिया था। सोचा था, जीजी की नज़र में तो ज़रूर ही पड़ जाएगा। लेकिन उन्होंने जैसे देखकर भी नहीं देखा। दुहाई है धर्म की, इसके लिए तुम उन्हें क्षमा कर देना।

जाते समय बिन्दु मुझसे लिपटकर बोली, “जीजी, तो क्या तुम लोगों ने मुझे एकदम त्याग दिया।”

मैंने कहा, “नहीं बिन्दु, तुम चाहे-जैसी हालत में रहो, प्राण रहते मैं तुम्हें नहीं त्याग सकती।”

तीन दिन बीते। तुम्हारे ताल्लुके के आसामियों ने तुम्हें खाने के लिए जो भेड़ा दिया था, उसे मैंने तुम्हारी जठराग्नि से बचाकर नीचे वाली कोयले की कोठरी के एक कोने में बाँध दिया था। सवेरे उठते ही मैं ख़ुद जाकर उसको दाना खिला आती। दो-एक दिन तुम्हारे नौकरों पर भरोसा करके देखा, उसे खिलाने की बजाय उनका झुकाव उसी को खा जाने की ओर अधिक था। उस दिन सवेरे कोठरी में गई तो देखा, बिन्दु एक कोने में गुड़-मुड़ होकर बैठी हुई है। मुझे देखते ही वह मेरे पैर पकड़कर चुपचाप रोने लगी। बिन्दु का पति पागल था।

“सच कह रही है, बिन्दु?”

“तुम्हारे सामने क्या मैं इतना बड़ा झूठ बोल सकती हूँ, दीदी? वह पागल हैं। इस विवाह में ससुर की सम्मति नहीं थी, लेकिन वे मेरी सास से यमराज की तरह डरते थे। ब्याह के पहले ही काशी चल दिए थे। सास ने ज़िद करके अपने लड़के का ब्याह कर लिया।”

मैं वहीं कोयले के ढेर पर बैठ गई।

स्त्री पर स्त्री को दया नहीं आती। कहती है, कोई लड़की थोड़े ही है। लड़का पागल है तो हो, है तो पुरुष।

देखने में बिन्दु का पति पागल नहीं लगता। लेकिन कभी-कभी उसे ऐसा उन्माद चढ़ता कि उसे कमरे में ताला बन्द करके रखना पड़ता। ब्याह की रात वह ठीक था। लेकिन रात में जगते रहने के कारण और इसी तरह के और झंझटों के कारण दूसरे दिन से उसका दिमाग़ बिल्कुल ख़राब हो गया। बिन्दु दोपहर को पीतल की थाली में भात खाने बैठी थी, अचानक उसके पति ने भात समेत थाली उठाकर आँगन में फेंक दी। न जाने क्यों अचानक उसको लगा, मानो बिन्दु रानी रासमणि हो। नौकर ने, हो न हो, चोरी से उसी के सोने के थाल में रानी के खाने के लिए भात दिया हो। इसलिए उसे क्रोध आ गया था। बिन्दु तो डर के मारे मरी जा रही थी। तीसरी रात को जब उसकी सास ने उससे अपने पति के कमरे में सोने के लिए कहा तो बिन्दु के प्राण सूख गए। उसकी सास को जब क्रोध आता था तो होश में नहीं रहती थी। वह भी पागल ही थी, लेकिन पूरी तरह से नहीं। इसलिए वह ज़्यादा ख़तरनाक थी। बिन्दु को कमरे में जाना ही पड़ा। उस रात उसके पति का मिज़ाज ठण्डा था। लेकिन डर के मारे बिन्दु का शरीर पत्थर हो गया था। पति जब सो गए तब काफ़ी रात बीतने पर वह किस तरह चतुराई से भागकर चली आयी, इसका विस्तृत विवरण लिखने की आवश्यकता नहीं है। घृणा और क्रोध से मेरा शरीर जलने लगा। मैंने कहा, इस तरह धोखे के ब्याह को ब्याह नहीं कहा जा सकता। बिन्दु, तू जैसे रहती थी वैसे ही मेरे पास रह। देखूँ, तुझे कौन ले जाता है।

तुम लोगों ने कहा, बिन्दु झूठ बोलती है। मैंने कहा, वह कभी झूठ नहीं बोलती। तुम लोगों ने कहा, तुम्हें कैसे मालूम? मैंने कहा, मैं अच्छी तरह जानती हूँ। तुम लोगों ने डर दिखाया, अगर बिन्दु के ससुराल वालों ने पुलिस केस कर दिया तो आफ़त में पड़ जाएँगे। मैंने कहा, क्या अदालत यह बात न सुनेगी कि उसका ब्याह धोखे से पागल वर के साथ कर दिया गया है। तुमने कहा, तो क्या इसके लिए अदालत जाएँगे। हमें ऐसी क्या ग़र्ज़ है? मैंने कहा, जो कुछ मुझसे बन पड़ेगा, अपने गहने बेचकर करूँगी। तुम लोगों ने कहा, क्या वकील के घर तक दौड़ोगी? इस बात का क्या जवाब होता? सिर ठोकने के अलावा और कर भी क्या सकती थी।

उधर बिन्दु की ससुराल से उसके जेठ ने आकर बाहर बड़ा हंगामा खड़ा कर दिया। कहने लगा, थाने में रिपोर्ट कर दूँगा। मैं नहीं जानती मुझमें क्या शक्ति थी, लेकिन जिस गाय ने अपने प्राणों के डर से कसाई के हाथों से छूटकर मेरा आश्रय लिया हो, उसे पुलिस के डर से फिर उस कसाई को लौटाना पड़े, यह बात मैं किसी भी प्रकार नहीं मान सकती थी। मैंने हिम्मत करके कहा, “करने दो थाने में रिपोर्ट।”

इतना कहकर मैंने सोचा कि अब बिन्दु को अपने सोने के कमरे में ले जाकर कमरे में ताला लगाकर बैठ जाऊँ। लेकिन खोजा तो बिन्दु का कहीं पता नहीं। जिस समय तुम लोगों से मेरी बहस चल रही थी, उसी समय बिन्दु ने स्वयं बाहर निकलकर अपने जेठ को आत्म-समर्पण कर दिया था। वह समझ गई थी कि अगर वह इस घर में रही तो मैं बड़ी आफ़त में पड़ जाऊँगी।

बीच में भाग आने से बिन्दु ने अपना दुःख और भी बढ़ा लिया।

उसकी सास का तर्क था कि उनका लड़का उसको खाए तो नहीं जा रहा था न। संसार में बुरे पति के उदाहरण दुर्लभ भी नहीं हैं। उनकी तुलना में तो उनका लड़का सोने का चाँद था।

मेरी बड़ी जेठानी ने कहा – जिसका भाग्य ही ख़राब हो, उसके लिए रोने से क्या फ़ायदा? पागल-वागल जो भी हो, है तो स्वामी ही न। तुम लोगों के मन में लगातार उस सती-साध्वी का दृष्टान्त याद आ रहा था जो अपने कोढ़ी पति को अपने कंधों पर बिठाकर वेश्या के यहाँ ले गई थी। संसार-भर में कायरता के इस सबसे अधम आख्यान का प्रचार करते हुए तुम लोगों के पुरुष-मन को कभी तनिक भी संकोच न हुआ। इसलिए मानव-जन्म पाकर भी तुम लोग बिन्दु के व्यवहार पर क्रोध कर सके, उससे तुम्हारा सिर नहीं झुका। बिन्दु के लिए मेरी छाती फटी जा रही थी, लेकिन तुम लोगों का व्यवहार देखकर मेरी लज्जा का अन्त न था। मैं तो गाँव की लड़की थी, जिस पर तुम लोगों के घर आ पड़ी, फिर भगवान ने न जाने किस तरह मुझे ऐसी बुद्धि दे दी। धर्म-सम्बन्धी तुम लोगों की यह चर्चा मुझे किसी भी प्रकार सहन नहीं हुई।

मैं निश्चयपूर्वक जानती थी कि बिन्दु मर भले ही जाए, वह अब हमारे घर लौटकर नहीं आएगी। लेकिन मैं तो उसे ब्याह के एक दिन पहले यह आशा दिला चुकी थी कि प्राण रहते उसे नहीं छोड़ूँगी।

मेरा छोटा भाई शरद कलकत्ता में कॉलेज में पढ़ता था। तुम तो जानते ही हो, तरह-तरह से वॉलंटियरी करना, प्लेग वाले मोहल्लों में चूहे मारना, दामोदर में बाढ़ आ जाने की ख़बर सुनकर दौड़ पड़ना – इन सब बातों में उसका इतना उत्साह था कि एफ़.ए. की परीक्षा में लगातार दो बार फ़ेल होने पर भी उसके उत्साह में कोई कमी नहीं आयी। मैंने उसे बुलाकर कहा, “शरद, जैसे भी हो, बिन्दु की ख़बर पाने का इन्तज़ाम तुझे करना ही पड़ेगा। बिन्दु को मुझे चिट्ठी भेजने का साहस नहीं होगा, वह भेजे भी तो मुझे मिल नहीं सकेगी।”

इस काम के बजाय यदि मैं उससे डाका डालकर बिन्दु को लाने की बात कहती या उसके पागल स्वामी का सिर फोड़ देने के लिए कहती तो उसे ज़्यादा ख़ुशी होती।

शरद के साथ बातचीत कर रही थी तभी तुमने कमरे में आकर कहा, तुम फिर यह क्या बखेड़ा कर रही हो? मैंने कहा, वही जो शुरू से करती आयी हूँ। जब से तुम्हारे घर आयी हूँ… लेकिन नहीं, वह तो तुम्हीं लोगों की कीर्ति है।

तुमने पूछा, बिन्दु को लाकर फिर कहीं छिपा रखा है क्या?

मैंने कहा, बिन्दु अगर आती तो मैं ज़रूर ही छिपाकर रख लेती, लेकिन वह अब नहीं आएगी। तुम्हें डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। शरद को मेरे पास देखकर तुम्हारा सन्देह और भी बढ़ गया। मैं जानती थी कि शरद का हमारे यहाँ आना-जाना तुम लोगों को पसन्द नहीं है। तुम्हें डर था कि उस पर पुलिस की नज़र है। अगर कभी किसी राजनीतिक मामले में फँस गया तो तुम्हें भी फँसा डालेगा। इसीलिए मैं भैया-दूज का तिलक भी आदमी के हाथों उसी के पास भिजवा देती थी, अपने घर नहीं बुलाती थी।

एक दिन तुमसे सुना कि बिन्दु फिर भाग गई है, इसलिए उसका जेठ हमारे घर उसे खोजने आया है। सुनते ही मेरी छाती में शूल चुभ गए। अभागिनी का असह्य कष्ट तो मैं समझ गई, पर फिर भी कुछ करने का कोई रास्ता न था। शरद पता करने दौड़ा। शाम को लौटकर मुझसे बोला, बिन्दु अपने चचेरे भाइयों के यहाँ गई थी, लेकिन उन्होंने अत्यन्त क्रुद्ध होकर उसी वक़्त उसे फिर ससुराल पहुँचा दिया। इसके लिए उन्हें हर्जाने का और गाड़ी के किराए का जो दण्ड भोगना पड़ा, उसकी ख़ार अब भी उनके मन से नहीं गई है।

श्री क्षेत्र की तीर्थ-यात्रा करने के लिए तुम लोगों की काकी तुम्हारे यहाँ आकर ठहरीं। मैंने तुमसे कहा, मैं भी जाऊँगी। अचानक मेरे मन में धर्म के प्रति यह श्रद्धा देखकर तुम इतने ख़ुश हुए कि तुमने तनिक भी आपत्ति नहीं की। तुम्हें इस बात का भी ध्यान था कि अगर मैं कलकत्ता में रही तो फिर किसी-न-किसी दिन बिन्दु को लेकर झगड़ा कर बैठूँगी। मेरे मारे तुम्हें बड़ी परेशानी थी। मुझे बुधवार को चलना था, रविवार को ही सब ठीक-ठाक हो गया। मैंने शरद को बुलाकर कहा, जैसे भी हो बुधवार को पुरी जाने वाली गाड़ी में तुझे बिन्दु को चढ़ा ही देना पड़ेगा।

शरद का चेहरा खिल उठा। वह बोला, डर की कोई बात नहीं, जीजी, मैं उसे गाड़ी में बिठाकर पुरी तक चला चलूँगा। इसी बहाने जगन्नाथ जी के दर्शन भी हो जाएँगे।

उसी दिन शाम को शरद फिर आया। उसका मुँह देखते ही मेरा दिल बैठ गया। मैंने पूछा, क्या बात है शरद! शायद कोई रास्ता नहीं निकला। वह बोला, नहीं।

मैंने पूछा, क्या उसे राज़ी नहीं कर पाए? उसने कहा, “अब जरूरत भी नहीं है। कल रात अपने कपड़ों में आग लगाकर वह आत्महत्या करके मर गई। उस घर के जिस भतीजे से मैंने मेल बढ़ा लिया था, उसी से ख़बर मिली कि तुम्हारे नाम वह एक चिट्ठी रख गई थी, लेकिन वह चिट्ठी उन लोगों ने नष्ट कर दी।”

“चलो, छुट्टी हुई।”

गाँव-भर के लोग चीख़ उठे। कहने लगे, “लड़कियों का कपड़ों में आग लगाकर मर जाना तो अब एक फ़ैशन हो गया है।”

तुम लोगों ने कहा, “अच्छा नाटक है।”

हुआ करे, लेकिन नाटक का तमाशा सिर्फ़ बंगाली लड़कियों की साड़ी पर ही क्यों होता है, बंगाली वीर पुरुषों की धोती की चुन्नटों पर क्यों नहीं होता, यह भी तो सोचकर देखना चाहिए।

ऐसा ही था बिन्दु का दुर्भाग्य। जितने दिन जीवित रही, तनिक भी यश नहीं मिल सका। न रूप का, न गुण का – मरते वक़्त भी यह नहीं हुआ कि सोच-समझकर कुछ ऐसे नये ढंग से मरती कि दुनिया-भर के लोग ख़ुशी से ताली बजा उठते। मरकर भी उसने लोगों को नाराज़ ही किया।

जीजी कमरे में जाकर चुपचाप रोने लगीं, लेकिन उस रोने में जैसे एक सान्त्वना थी। कुछ भी सही, जान तो बची, मर गई, यही क्या कम है। अगर बची रहती तो न जाने क्या हो जाता।

मैं तीर्थ में आ पहुँची हूँ। बिन्दु के आने की तो ज़रूरत ही न रही। लेकिन मुझे ज़रूरत थी। लोग जिसे दुःख मानते हैं, वह तुम्हारी गृहस्थी में मुझे कभी नहीं मिला। तुम्हारे यहाँ खाने-पहनने की कोई कमी नहीं। तुम्हारे बड़े भाई का चरित्र चाहे जैसा हो, तुम्हारे चरित्र में ऐसा कोई दोष नहीं जिसके लिए विधाता को बुरा कह सकूँ। वैसे अगर तुम्हारा स्वभाव तुम्हारे बड़े भाई की तरह भी होता तो भी शायद मेरे दिन क़रीब-क़रीब ऐसे ही कट जाते और मैं अपनी सती-साध्वी बड़ी जेठानी की तरह पति देवता को दोष देने के बजाय विश्व-देवता को ही दोष देने की चेष्टा करती। अतएव, मैं तुमसे कोई शिकायत नहीं करना चाहती – मेरी चिट्ठी का कारण यह नहीं है।

लेकिन मैं अब माखन बड़ाल की गली के तुम्हारे उस सत्ताईस नम्बर वाले घर में लौटकर नहीं आऊँगी। मैं बिन्दु को देख चुकी हूँ। इस संसार में नारी का सच्चा परिचय क्या है, यह मैं पा चुकी हूँ। अब तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं। और फिर मैंने यह भी देखा है कि वह लड़की ही क्यों न हो, भगवान ने उसका त्याग नहीं किया। उस पर तुम लोगों का चाहे कितना ही ज़ोर क्यों न रहा हो, वह उसका अन्त नहीं था। वह अपने अभागे मानव जीवन से बड़ी थी। तुम लोगों के पैर इतने लम्बे नहीं थे कि तुम मनमाने ढंग से अपने हिसाब से उसके जीवन को सदा के लिए उनसे दबाकर रख सकते, मृत्यु तुम लोगों से भी बड़ी है। अपनी मृत्यु में वह महान है – वहाँ बिन्दु केवल बंगाली परिवार की लड़की नहीं है, केवल चचेरे भाइयों की बहन नहीं है, केवल किसी अपरिचित पागल पति की प्रवंचिता पत्नी नहीं है। वहाँ वह अनन्त है। मृत्यु की उस वंशी का स्वर उस बालिका के भग्न हृदय से निकलकर जब मेरे जीवन की यमुना के पास बजने लगा तो पहले-पहल मानो मेरी छाती में कोई बाण बिन्ध गया हो। मैंने विधाता से प्रश्न किया, “इस संसार में जो सबसे अधिक तुच्छ है, वही सबसे अधिक कठिन क्यों है?” इस गली में चारदीवारी से घिरे इस निरानन्द स्थान में यह जो तुच्छतम बुदबुद है, वह इतनी भयंकर बाधा कैसे बन गया? तुम्हारा संसार अपनी शठ-नीतियों से क्षुधा-पात्र को सम्भाले कितना ही क्यों न पुकारे, मैं उस अन्तःपुर की ज़रा-सी चौखट को क्षण-भर के लिए भी पार क्यों न कर सकी? ऐसे संसार में ऐसा जीवन लेकर मुझे इस अत्यन्त तुच्छ काठ पत्थर की आड़ में ही तिल-तिलकर क्यों मरना होगा? कितनी तुच्छ है यह मेरी प्रतिदिन की जीवन-यात्रा। इसके बँधे नियम, बँधे अभ्यास, बँधी हुई बोली, बँधी हुई मार सब कितनी तुच्छ है – फिर भी क्या अन्त में दीनता के उस नाग-पाश बँधन की ही जीत होगी, और तुम्हारे अपने इस आनन्द-लोक की, इस सृष्टि की हार?

लेकिन, मृत्यु की वंशी बजने लगी – कहाँ गई राज-मिस्त्रियों की बनायी हुई वह दीवार, कहाँ गया तुम्हारे घोर नियमों से बँधा वह काँटों का घेरा। कौन-सा है वह दुःख, कौन-सा है वह अपमान जो मनुष्य को बन्दी बनाकर रख सकता है। यह लो, मृत्यु के हाथ में जीवन की जय-पताका उड़ रही है। अरी मझली बहू, तुझे डरने की अब कोई ज़रूरत नहीं। मझली बहू के इस तेरे खोल को छिन्न होते एक निमेष भी न लगा।

तुम्हारी गली का मुझे कोई डर नहीं। आज मेरे सामने नीला समुद्र है, मेरे सिर पर आषाढ़ के बादल।

तुम लोगों की रीति-नीति के अन्धेरे ने मुझे अब तक ढक रखा था। बिन्दु ने आकर क्षण-भर के लिए उस आवरण के छेद में से मुझे देख लिया। वही लड़की अपनी मृत्यु द्वारा सिर से पैर तक मेरा वह आवरण उघाड़ गई है। आज बाहर आकर देखती हूँ, अपना गौरव रखने के लिए कहीं जगह ही नहीं है। मेरा यह अनादृत रूप जिनकी आँखों को भाया है, वे सुन्दर आज सम्पूर्ण आकाश से मुझे निहार रहे हैं। अब मझली बहू की ख़ैर नहीं।

तुम सोच रहे होगे, मैं मरने जा रही हूँ – डरने की कोई बात नहीं। तुम लोगों के साथ मैं ऐसा पुराना मज़ाक नहीं करूँगी।

मीराबाई भी तो मेरी ही तरह नारी थी। उनकी ज़ंजीरें भी तो कम भारी नहीं थीं, बचने के लिए उनको तो मरना नहीं पड़ा। मीराबाई ने अपने गीत में कहा था, ‘बाप छोड़े, माँ छोड़े, जहाँ कहीं जो भी हैं, सब छोड़ दें, लेकिन मीरा की लगन वहीं रहेगी प्रभु, अब जो होना है सो हो।’

यह लगन ही तो जीवन है। मैं अभी जीवित रहूँगी। मैं बच गई।

तुम लोगों के चरणों के आश्रय से छूटी हुई,
मृणाल

Book by Rabindranath Tagore:

रवीन्द्रनाथ टैगोर
रवीन्द्रनाथ टैगोर (7 मई, 1861 – 7 अगस्त, 1941) को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता हैं। बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगदृष्टा थे। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बाँग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।